कांग्रेस ने डुबाई नैया: तेजस्वी के लिए बन गई मुसीबत, इसीलिए लगा इन्हें झटका
बिहार विधानसभा के चुनावी नतीजों के बाद एक बार फिर गठबंधन में कांग्रेस की भूमिका पर सवाल उठने लगे हैं। बिहार में महागठबंधन की हार की बड़ी वजह कांग्रेस को माना जा रहा है। कांग्रेस के लचर प्रदर्शन ने महागठबंधन की ओर से मुख्यमंत्री पद का चेहरा घोषित किए गए तेजस्वी यादव को जबर्दस्त झटका दिया है।
नई दिल्ली: बिहार विधानसभा के चुनावी नतीजों के बाद एक बार फिर गठबंधन में कांग्रेस की भूमिका पर सवाल उठने लगे हैं। बिहार में महागठबंधन की हार की बड़ी वजह कांग्रेस को माना जा रहा है। कांग्रेस के लचर प्रदर्शन ने महागठबंधन की ओर से मुख्यमंत्री पद का चेहरा घोषित किए गए तेजस्वी यादव को जबर्दस्त झटका दिया है।
कांग्रेस ने बिहार में 70 सीटों पर चुनाव लड़ा था मगर उसके 19 विधायक ही विधानसभा पहुंचने में कामयाब हो सके। कांग्रेस ने सिर्फ बिहार में ही लचर प्रदर्शन नहीं किया है बल्कि इससे पहले कई राज्यों में हुए चुनावों में भी कांग्रेस के कारण गठबंधन को नुकसान उठाना पड़ा है। सियासी जानकारों का तो यहां तक कहना है कि कांग्रेस गठबंधन के सहयोगियों के लिए बड़ी मुसीबत साबित हो रही है।
राजद का जीत का प्रतिशत कांग्रेस से बेहतर
यदि बिहार विधानसभा के चुनावी नतीजों का विश्लेषण किया जाए जो कांग्रेस का प्रदर्शन हम और वीआईपी जैसे क्षेत्रीय दलों की तुलना में भी काफी लचर रहा है। बिहार चुनाव में पार्टी की जीत का प्रतिशत सिर्फ 27.1 फ़ीसदी रहा है।
दूसरी ओर यदि राजद को देखा जाए तो राजद की जीत का प्रतिशत 52.8 फीसदी रहा है। हम और वीआईपी जैसी छोटी पार्टियों का भी स्ट्राइक रेट कांग्रेस से काफी बेहतर रहा है। ऐसे में कांग्रेस को इतनी ज्यादा सीटें देने पर भी सवाल उठ रहे हैं।
कांग्रेस के कारण महागठबंधन को झटका
बिहार की सियासत को करीब से देखने वालों का मानना है कि कांग्रेस ने राजद पर दबाव बनाकर 70 सीटें तो हासिल कर लीं मगर इन सीटों पर लड़ने के लिए दमदार प्रत्याशी ही पार्टी के पास नहीं थे।
इसके साथ ही बिहार में पार्टी का संगठनात्मक ढांचा भी काफी कमजोर है और पार्टी की ओर से विधानसभा चुनाव लड़ने की मजबूत तैयारियां भी नहीं की गई थीं। यही कारण था कि बिहार के चुनावी नतीजों में पार्टी की कामयाबी का प्रतिशत काफी कम रहा है। कांग्रेस को महागठबंधन में 70 सीटें तो जरूर मिल गईं मगर उसके सिर्फ 19 विधायक ही जीत सके।
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तब बदल सकती थी बिहार की तस्वीर
चुनाव नतीजों के बाद सियासी जानकारों का कहना है कि यदि कांग्रेस कोटे की कुछ और सीटें राजद के हिस्से में आई होतीं तो बिहार में महागठबंधन की सरकार भी बन सकती थी।
कांग्रेस कोटे की कुछ सीटों को कम करके वीआईपी और हम जैसे सहयोगी दलों को भी संतुष्ट किया जा सकता था जो बाद में सम्मानजनक सीटें न मिलने पर नाराज होकर गठबंधन छोड़कर एनडीए में शामिल हो गए। इन दोनों क्षेत्रीय दलों ने चुनाव में अच्छा प्रदर्शन किया है।
यूपी में भी लचर था कांग्रेस का प्रदर्शन
यदि दूसरे प्रदेशों के चुनाव का विश्लेषण किया जाए तो वहां भी कांग्रेस का यही हाल रहा है। महाराष्ट्र, झारखंड और तमिलनाडु चुनाव के नतीजे बताते हैं कि कांग्रेस गठबंधन के सहयोगी पर दबाव डालकर अधिक सीटें तो हासिल कर लेती है मगर उसकी जीत का प्रतिशत अपने सहयोगी से काफी कम रहता है।
यूपी के 2017 में हुए विधानसभा चुनाव में भी ऐसी ही स्थिति दिखी थी। कांग्रेस ने समाजवादी पार्टी पर दबाव डालकर 114 सीटें तो जरूर हासिल कर ली थीं मगर उसके सिर्फ 7 प्रत्याशी ही जीतने में कामयाब हुए थे। दूसरी ओर समाजवादी पार्टी का प्रदेश कांग्रेस की तुलना में ज्यादा अच्छा रहा था।
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महाराष्ट्र और झारखंड में भी कांग्रेस हुई फेल
2019 में महाराष्ट्र विधानसभा के चुनाव में भी कांग्रेस अपने सहयोगी दल एनसीपी से कमजोर रही थी। कांग्रेस ने 147 सीटों पर चुनाव लड़कर 44 सीटों पर कामयाबी हासिल की थी जबकि एनसीपी ने 121 सीटों पर चुनाव लड़कर 54 सीटें जीत ली थीं।
यदि झारखंड चुनाव को देखा जाए तो झारखंड मुक्ति मोर्चा ने 43 सीटों पर चुनाव लड़कर 30 सीटों पर विजय हासिल की थी जबकि कांग्रेस ने 31 सीटों पर चुनाव लड़कर 16 सीटें जीती थीं।
क्षेत्रीय दलों से भी पिछड़ रही कांग्रेस
तमिलनाडु के चुनाव में कांग्रेस ने डीएमके के साथ गठबंधन किया था मगर चुनाव के नतीजों में कांग्रेस की जीत का प्रतिशत डीएमके से काफी कम रहा था।
सियासी जानकारों का कहना है कि अपने राष्ट्रीय स्वरूप के दम पर कांग्रेस क्षेत्रीय दलों पर दबाव डालकर ज्यादा सीटें तो हासिल कर लेती है मगर उसका प्रदर्शन क्षेत्रीय दलों की अपेक्षा काफी कमजोर रहता है। ऐसे में कांग्रेस गठबंधन के सहयोगी दलों पर भी बोझ बनती जा रही है।
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प्रदेशों में कांग्रेस का संगठन काफी कमजोर
कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता का भी कहना है कि यह सच बात है कि विभिन्न प्रदेशों में पार्टी का संगठनात्मक ढांचा कमजोर है और उसे मजबूत बनाने पर ध्यान देना होगा।
उन्होंने माना कि जब तक कांग्रेस विभिन्न प्रदेशों में अपना संगठन मजबूत नहीं करती तब तक बिहार वाली कहानी ही दोहराई जाती रहेगी। अब देखने वाली बात यह होगी कि बिहार से सबक लेते हुए कांग्रेस हाईकमान कब प्रदेशों में अपने संगठन को मजबूत बनाने पर ध्यान देता है।
अंशुमान तिवारी