राजद की बी टीम बनाने के आरोप से मारपीट तक, किस राह पर बिहार कांग्रेस

Update:2017-10-27 18:35 IST

बिहार में नीतीश कुमार ने महागठबंधन का साथ छोड़ राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की राह क्या पकड़ी, महागठबंधन के घटक दलों के अंदर की घुटन बाहर आने लगी। राजद के अंदर सरकार से बाहर होने की परेशानी दिखी तो कांग्रेस के अंदर कुछ भी नहीं बचा। कांग्रेस आलाकमान की दखल के बावजूद रास्ता नहीं निकला। अब बिहार में बड़ा सवाल है कि प्रदेश कांग्रेस किस राह पर है, जहां कांग्रेस मुख्यालय में कभी झगड़ा-झंझट हो रहा है तो कभी मारपीट और सबसे बड़ी बात कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के जयकारे भी लग जा रहे हैं। अब स्थायी अध्यक्ष के नाम पर भी लालू प्रसाद की अप्रत्यक्ष मुहर को जरूरी माना जा रहा है।

शिशिर कुमार सिन्हा

पटना। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के भाजपा के साथ जाने के बाद ही पूर्ववर्ती सरकार में शिक्षा मंत्री रहे तत्कालीन प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अशोक चौधरी की स्थिति पर सवाल उठने शुरू हो गए। कहा जाने लगा कि चौधरी के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से बहुत अच्छे संबंध हैं और वह कांग्रेस को तोड़ जदयू के साथ जाने की तैयारी में हैं। बात यहां तक आई कि कांग्रेस के कुछ नेता भाजपा का हाथ थामने की तैयारी भी कर रहे हैं।

चौधरी इनकार करते रहे, लेकिन इन्हीं बातों को आधार बनाकर पहले प्रदेश अध्यक्ष पद से उनकी छुट्टी की गई और अब उनके समर्थकों को धीरे-धीरे खिसकाया जा रहा है। इसी कारण अक्टूबर आते ही प्रदेश कांग्रेस में पूर्व अध्यक्ष अशोक चौधरी और वर्तमान कार्यकारी अध्यक्ष कौकब कादरी आमने-सामने आ गए। जूतमपैजार नहीं हुआ, बाकी सब कुछ हो गया इन दोनों के समर्थकों के बीच।

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हालत ऐसी हो गई कि कुछ कांग्रेस बीच में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के जयकारे लगाने लगे। कुछ लालू प्रसाद तो कुछ नीतीश के साथ चलने की बात भी कहते सुने गए। बदली स्थितियों में एक बार फिर कांग्रेस पुरानी राह पर जाती दिख रही है, जहां राजद अध्यक्ष लालू प्रसाद उसके भविष्य के लिए निर्णायक फैक्टर होंगे।

बी टीम का आरोप धीरे-धीरे साबित हो रहा है

लालू प्रसाद और राबड़ी देवी के मुख्यमंत्री काल में कांग्रेस राजद के साथ थी। कभी अकेले सरकार चलाने वाली कांग्रेस लालू का दामन थामने से पहले अस्तित्वहीन होती जा रही थी। तब राजद और कांग्रेस ने एक-दूसरे के वोट बैंक को साधने के लिए हाथ मिलाया। यह साथ लंबा भी चला और सोनिया गांधी भी बिहार में लालू प्रसाद का कोई विकल्प नहीं देख उनकी छत्रछाया में अपने नेताओं को छोड़ गईं।

क्षेत्रीय दलों की बढ़ती ताकत में कांग्रेस को राजद का ही साथ रास आता रहा है। पिछली सरकार में जदयू-राजद के साथ कांग्रेस आई, लेकिन प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष डॉ. अशोक चौधरी का जदयू और खासकर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से गहरा झुकाव-लगाव दिखा। परंपरा से हटकर नई राह पर कांग्रेस को देखकर भी कांग्रेस चुप थे, क्योंकि सरकार चल रही थी। नीतीश ने भाजपा का दामन थामा तो राजद-कांग्रेस को जोर का झटका लगा। राजद एकल नेतृत्व के कारण हमलावर रुख में है, लेकिन कांग्रेस हमले की स्थिति में नहीं। वह अंदरूनी कलह झेल रही है।

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इसी अंदरूनी कलह ने डॉ. अशोक चौधरी को प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष पद से हटाया। कार्यकारी अध्यक्ष कौकब कादरी बनाए तो गए, लेकिन कलह कायम रहा। भ्रष्टाचार के मामले में बुरी तरह घिरे लालू प्रसाद के परिवार के साथ कुछ कांग्रेस नहीं जाना चाहते, जबकि ज्यादातर विकल्पहीनता की स्थिति में राजद को अगले चुनाव में तारणहार मानते हैं। अब इसी दो सोच की लड़ाई है, जो नए प्रदेश अध्यक्ष के नाम पर मुहर लगाने में भूमिका निभाएगी।

चल रहे तीन नाम, कोई चौथा न आ जाए

बिहार कांग्रेस अध्यक्ष के लिए तीन नाम चल रहे हैं। एक हैं पूर्व केंद्रीय मंत्री अखिलेश सिंह, दूसरे पूर्व केंद्रीय मंत्री डॉ. शकील अहमद और तीसरे हैं मदन मोहन झा। इन तीनों में अखिलेश सिंह ने अपनी ताकत 21 अक्टूबर को बिहार के प्रथम मुख्यमंत्री श्री कृष्ण सिंह की जयंती के कार्यक्रम से दिखाने की पूरी कोशिश की। अखिलेश भूमिहार वर्ग से आते हैं और श्री कृष्ण सिंह की जयंती पर कार्यक्रम करते रहे हैं। इस कार्यक्रम में मंच पर डॉ. शकील अहमद भी थे।

लोकसभा की पूर्व अध्यक्ष मीरा कुमार भी थीं। लेकिन, पूरे कार्यक्रम में लालू प्रसाद ही चले। श्री कृष्ण सिंह की जयंती थी, लेकिन यह मसला ही गौण हो गया। लालू प्रसाद मंच से अपनी, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, भाजपा अध्यक्ष अमित शाह से लेकर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार तक की बात कह गए, लेकिन कांग्रेस को कोई राह नहीं दिखाई। इतना ही कहा कि कांग्रेस अंदरूनी झंझट खत्म कर भाजपा से लड़ाई में साथ आ जाए।

साफ है कि लालू प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष को लेकर मंच पर कुछ नहीं कहना चाहते थे, लेकिन यह भी तय है कि कांग्रेस आलाकमान को बिहार में भविष्य के मद्देनजर उनकी पसंद-नापसंद का ख्याल रखना ही है। अखिलेश सिंह के कार्यक्रम में लालू प्रसाद यादव की यह मौजूदगी पसंद-नापसंद बताने का प्रयास भी माना जा रहा है।

तीनों नाम पर देखें तो अनुभव के आधार पर डॉ. शकील अहमद सबसे आगे हैं। राजद के साथ उनका समन्वय पिछली राजद-कांग्रेस की लंबी चली सरकार में अच्छा रहा है। शकील लंबे समय तक चिकित्सा शिक्षा मंत्री थे। लेकिन, उनके साथ संकट यह है कि दिल्ली में वह फेल हो चुके हैं। बिहार में अपनी सीट पर संकट के बाद लंबे समय से डॉ. शकील अहमद केंद्र की राजनीति में तो हैं ही, बिहार से दूरी भी बनाए रहे हैं।

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बिहार कांग्रेस के नेताओं और यहां तक कि मीडियाकर्मियों से भी उनका नाता टूटा हुआ है। दूसरी तरफ अखिलेश सिंह कुछ कार्यक्रमों के जरिए ही खुद को बिहार में सक्रिय दिखाते रहे हैं। लालू प्रसाद से जुड़ाव के कारण राजद-जदयू-कांग्रेस की सरकार में वह ज्यादा सामने नहीं आ रहे थे, लेकिन अब जैसे ही नीतीश अलग हुए हैं और डॉ. अशोक चौधरी का विकेट गिरा है तो अखिलेश सिंह पूरी ताकत से संगठन में सक्रिय हुए हैं।

तीसरे दावेदार मदन मोहन झा कार्यकर्ता के रूप में अरसे से पार्टी और जमीनी संबंध के मामले में भी काफी हद तक सक्रिय हैं, लेकिन जातिगत आधार पर अखिलेश सिंह के सामने उनका पलड़ा हल्का पड़ता दिख रहा है। सामने आ रहे तीन दावेदारों में अगर ज्यादा टकराव की नौबत दिखी तो आलाकमान चौथे को अचानक सामने भी ला सकता है।

वैसे, कांग्रेस और राजद के बड़े नेताओं की मानें तो जो भी नाम तय होगा वह लालू प्रसाद की पसंद का होगा। इसके पीछे अगले लोकसभा और विधानसभा चुनाव की तैयारी है, जिसमें कांग्रेस को राजद का दामन थामने की मजबूरी है। यह मजबूरी इसलिए भी कि उत्तर प्रदेश में भी कांग्रेस को गठबंधन बनाने के लिए मुलायम भसह यादव के रिश्तेदार लालू प्रसाद से जुड़ाव का फायदा मिल सकता है।

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