BSP Chunav Chinah : क्यों चिड़िया को छोड़ हाथी बना बसपा का चुनाव चिन्ह, पढ़ें रोचक सफरनामा

BSP Chunav Chinah : क्या आपको पता है जब बहुजन समाज पार्टी की स्थापना हुए थी तब 'चिड़िया' उसका चुनाव चिन्ह था।

Written By :  aman
Published By :  Shraddha
Update:2021-09-26 08:17 IST

क्यों चिड़िया को छोड़ हाथी बना बसपा का चुनाव चिन्ह (कॉन्सेप्ट फोटो - सोशल मीडिया)

BSP Chunav Chinah : कांशीराम की पहचान 70 के दशक में ही एक दलित नेता के रूप में स्थापित हो चुकी थी। समय के साथ कई चेहरे जुड़ते गए और कारवां बनता गया। कांशीराम (Kanshiram) को दलित राजनीति के लिए तब एक अदद छतरीनुमा पार्टी की जरूरत थी, जिसके तले दलित राजनीति को बढ़ाया जा सके। इसके लिए कांशीराम ने पहले पूरे देश का भ्रमण किया। फिर 1978 में वामसेफ और उसके बाद डीएस-4 नाम का संगठन स्थापित किया। लेकिन बात नहीं बनी। आखिरकार, 14 अप्रैल 1984 को कांशीराम ने बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की स्थापना की।     

क्या आपको पता है जब बहुजन समाज पार्टी की स्थापना हुए थी तब 'चिड़िया' उसका चुनाव चिन्ह था। बसपा चिड़िया चुनाव चिन्ह के साथ अगले पांच सालों तक चुनाव लड़ती रही, मगर उसे एक भी जीत नसीब नहीं हुई। आखिरकार, 1989 में जब मायावती पहली बार बिजनौर से सियासी मैदान में उतरीं तो उनका चुनाव चिन्ह चिड़िया नहीं 'हाथी' था। दरअसल, बसपा ने चुनाव आयोग से हाथी सिंबल की मांग की थी, जिसे आयोग ने मान लिया था। इस चुनाव में मायावती को जीत मिली और वो पहली बार सांसद बनीं। इसके बाद से ही बसपा का चुनाव चिन्ह हाथी है। 

 'हाथी' चिन्ह के पीछे का मकसद 

 

80 के दशक में कांशीराम की राजनीति दलितों को जोड़ने की थी। क्योंकि उस वक्त समाज में पिछड़े और दलित वर्ग के लोग ज्यादा पढ़े-लिखे नहीं थे। खासकर जब बात वोटिंग की हो, तो दलित समाज के लोग परंपरागत तौर पर कांग्रेस को ही वोट करते थे। क्योंकि कांग्रेस इतनी पुरानी पार्टी थी, जिसे हर कोई जानता था। तब उस वर्ग को अपने समाज का नेतृत्व और नफा-नुकसान उतना समझ नहीं आता था। ऐसे में उन्हें एक नई पार्टी पर भरोसा करवाना जो उनके हित की बात करे, थोड़ा मुश्किल था। इस दरमियान कांशीराम और उनके सहयोगियों ने काफी माथापच्ची की, फिर कहीं हाथी पर जाकर बात बनी।  

कांशीराम- मायावती (फाइल फोटो - सोशल मीडिया)

'हाथी' रहा लकी 

1989 में बसपा के सिंबल 'हाथी' से चुनाव जीतने वाली मायावती अकेली नेता नहीं थीं। मायावती बिजनौर से तो आजमगढ़ से कृष्णपाल यादव सांसद चुने गए थे। इतना ही नहीं बसपा के 13 विधायक भी जीतकर यूपी विधानसभा पहुंचे थे। इस कामयाबी के बाद चुनाव आयोग ने बहुजन समाज पार्टी को क्षेत्रीय दल और हाथी को चुनाव चिन्ह की मान्यता दे दी। इसके बाद का इतिहास बताने की जरूरत नहीं है। बसपा ने फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा। तभी से हाथी चुनाव चिन्ह को लकी माना गया।   

हाथी बस चुनाव चिन्ह नहीं, एक सोच है  


कांशीराम जाति-प्रथा में समाज के निचले तबके के लोगों को 'बहुजन' कहते थे। वजह, इनकी आबादी शेष जातियों से अधिक थी। कांशीराम का कहना था, कि दलित कहने से किसी की मानसिक मजबूती कैसे बढ़ेगी? इसलिए उनका मानना था कि बहुजन समाज एक हाथी की तरह है। मतलब, विशालकाय, खूब मेहनत करने वाला, मजबूत आदि-आदि। बस इसी को उन्होंने आधार बनाया। कहा कि बहुजन समाज भी वैसे ही है। बस, उसे अपनी ताकत की समझ नहीं है। इसीलिए अगड़ी जातियों के लोग कमजोर होने के बावजूद महावत की तरह निचली जातियों पर नियंत्रण करते हैं।   


बसपा की स्थापना के समय 'चिड़िया' चुनाव चिन्ह था (कॉन्सेप्ट फोटो - सोशल मीडिया)


 बौद्ध धर्म और अंबेडकर से गहरा रिश्ता भी 


बताते चलें, कि भीमराव अंबेडकर ने जब अपनी पार्टी बनाई थी, तब हाथी को ही उन्होंने सिंबल के तौर पर लिया था। चूंकि, कांशीराम को अंबेडकर की राजनीति का उत्तराधिकारी माना जाता रहा था, तो इसे सम्मान का भी प्रतीक माना गया। इसके अलावा, हाथी का बौद्ध धर्म से भी पुराना रिश्ता है। भीमराव अंबेडकर ने अपनी मृत्यु से कुछ समय पहले बौद्ध धर्म अपना लिया था। बुद्ध की जातक कथाओं में भी हाथी का जिक्र है। इसलिए भी बसपा के लिए हाथी विशेष महत्त्व रखता है।

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