BSP अब भी चुनाव के परंपरागत तरीकों पर निर्भर, लिम्का बुक ऑफ रिकॉर्डस में दर्ज है नाम

तेजी से बदलते समय के साथ अब चुनाव भी आधुनिक और टेक्नोलॉजी से लैस हो चुके हैं। राजनीतिक दल प्रचार अभियान के लिए विदेशी कंपनियों और रणनीतिकारों का सहारा लेने लगे हैं। ऐसे दौर में भी बसपा चुनाव के परंपरागत तरीकों पर ही निर्भर है। पार्टी में आज भी ''रैली'' को ही प्रचार के लिए सबसे कारगर हथियार माना जाता है। साल 2009 से 2016 के दौरान हुए चुनावों के नतीजे आईना ​दिखाने वाले निकले। अब एक बार फिर जब पार्टी के संस्थापक कांशीराम की 10वीं पुण्यतिथि पर राजधानी में आयोजित रैली में भीड़ जुटी तो फिर इसके सियासी मायने निकाले जा रहे हैं।

Update: 2016-10-12 15:05 GMT

राजकुमार उपाध्याय

लखनऊ: तेजी से बदलते समय के साथ अब चुनाव भी आधुनिक और टेक्नोलॉजी से लैस हो चुके हैं। राजनीतिक दल प्रचार अभियान के लिए विदेशी कंपनियों और रणनीतिकारों का सहारा लेने लगे हैं। ऐसे दौर में भी बसपा चुनाव के परंपरागत तरीकों पर ही निर्भर है। पार्टी में आज भी ''रैली'' को ही प्रचार के लिए सबसे कारगर हथियार माना जाता है। साल 2009 से 2016 के दौरान हुए चुनावों के नतीजे आईना दिखाने वाले निकले। अब एक बार फिर जब पार्टी के संस्थापक कांशीराम की 10वीं पुण्यतिथि पर राजधानी में आयोजित रैली में भीड़ जुटी तो फिर इसके सियासी मायने निकाले जा रहे हैं।

यूं देखा जाए तो बसपा को सबसे बड़ी राजनीतिक रैली करने का तमगा मिला हुआ है। जो साल 2006 के लिम्का बुक ऑफ रिकॉर्डस में दर्ज भी है। बात करें साल 2012 के विधानसभा चुनावों की तो उस समय भी पार्टी की दर्जन भर से अधिक रैलियां हुई थीं। लेकिन हाथी का निशान सिर्फ 80 सीटों तक ही सिमट कर रह गया। इसी तरह साल 2014 के लोकसभा चुनाव के ठीक पहले बसपा मुखिया मायावती ने अपने जन्मदिन (15 जनवरी) पर लखनऊ में रैली आयोजित की और दो महीने तक आगामी चुनावों को लेकर चुप्पी साधे रहीं। तब उनकी यह चुप्पी कई महीनों तक पार्टी के अंदरखाने में ही चर्चा का विषय बनी रही और बाद में इसे एक ''चुपचाप रणनीति'' (साइलेंस स्ट्रेटजी) के शक्ल में प्रचार मिला।

कहा गया कि वह जमीनी स्तर पर पार्टी की भाईचारा कमेटियों को सक्रिय करने में व्यस्त हैं। फिलहाल इस दौरान उनकी सभी जिलों में रैलियां हुईं और उसमें काफी भीड़ भी जुटी लेकिन चुनाव में पार्टी का खाता तक नहीं खुला।

दलित चिंतक डॉ. लालजी निर्मल कहते हैं कि बसपा की रैलियों में जो भीड़ जुटती है वह परंपरागत दलितों की ही भीड़ होती है। वह स्वत: स्फूर्त नहीं है। जब प्रत्याशियों के जरिए बसों और गाड़ियों की व्यवस्था हो जाती है तब लोग गांवों से निकलते हैं। दलित आज भी भीड़ का ही हिस्सा बन कर रह गए हैं लेकिन दलितों की इस भीड़ में भी दलित मुददे और एजेंडे गायब हैं।

बहुजन से सर्वजन की पार्टी बनी बसपा

-डॉ. निर्मल कहते हैं कि डॉ. भीमराव अम्बेडकर एक जाति विहीन समाज की स्थापना करना चाहते थे।

-बसपा ने उससे अलग हटकर जातियों को मजबूत करने का काम किया।

-जातीय भाईचारा कमेटी का गठन कर सजातीय नेताओं को उनका अगुवा बना दिया।

-इन जातियों के अगुवा अपने प्रतीकों के साथ अलग हो गए।

-इससे लोगों को लगा कि डॉ. अम्बेडकर का मिशन दूसरी तरफ मुड़ गया यानि की बसपा बहुजन से सर्वसमाज की पार्टी बन गई।

साल 2007 के बाद हुए चुनाव नतीजों में बसपा

साल चुनाव वोट (प्रतिशत में)

2007 विधानसभा चुनाव 30.46

2009 लोकसभा चुनाव 27.42

2012 विधानसभा चुनाव 25.90

2014 लोकसभा चुनाव 19.60

बसपा की रैली में होती रही हैं दुर्घटनाएं

-बसपा संस्थापक कांशीराम की 10वीं पुण्य तिथि पर आयोजित रैली में मची भगदड़ से दो लोगों की मौत हो गई और दर्जन भर से ज्यादा लोग घायल हुएं।

-पार्टी की रैलियों में इसके पहले भी दुर्घटनाएं होती रही हैं।

-01 मार्च 2007 में भी पार्टी ने ''सत्ता प्राप्त करो संकल्प महारैली'' डॉ. अम्बेडकर मैदान में आयोजित की थी।

-उस समय रैली में आते समय दो बसें दुर्घटनाग्रस्त हुईं थी।

-इसमें तीन बसपा कार्यकर्ताओं की मौत हुई और लगभग एक दर्जन लोग घायल हुए थे।

-इसी तरह साल 2002 में लखनऊ में बसपा की एक रैली के बाद चारबाग रेलवे स्टेशन पर पार्टी के लगभग 12 कार्यकर्ताओं की जान गई थी और 22 लोग घायल हुए थे।

तब मृतक आश्रितों को दी थी सहायता आज बता रहीं खैरात

मायावती ने बसपा की साल 2007 की रैली में सड़क दुर्घटना में मृत बसपा कार्यकर्ताओं के परिजनों को तीन-तीन लाख रुपए और घायलों को एक-एक लाख रुपए की सहायता राशि देने की घोषणा की थी और मृतक आश्रितों को सरकारी नौकरी देने का वादा किया था। लेकिन अब हाल ही में आयोजित रैली में अखिलेश सरकार के मृतकों को सरकारी सहायता देने की घोषणा को मायावती खैरात बता रही हैं।

रैलियां बुलाकर विरोधियों पर करती रहीं पलटवार

बसपा मुखिया मायावती पर जब-जब विरोधी दलों ने हमला किया है तब-तब वह रैलियां बुलाकर उन पर पलटवार करती रही हैं। बसपा ने लखनऊ में बने डॉ. अम्बेकर स्मारक को सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव द्वारा अय्याशी का अडडा बताए जाने के विरोध में बसपा ने 28 सितंबर 2002 को 'निन्दा और धिक्कार रैली' बुलाई थी। इसी तरह भाजपा-बसपा गठबंधन की सरकार टूटने के बाद मायावती का नाम ताज कारीडोर में उछला और उनके घर पर सीबीआई ने छापा भी डाला था। इसके विरोध में उन्होंने 13 मार्च 2004 को पर्दाफाश महारैली बुलाई थी।

Tags:    

Similar News