विजय शंकर पंकज
लखनऊ। उत्तर प्रदेश के स्थानीय निकाय चुनाव में विपक्षी दलों ने सत्तारूढ भारतीय जनता पार्टी को वाकओवर दे दिया है। चुनाव से पहले ही निकाय चुनावों को लेकर विपक्षी दलों की उदासीनता और सक्रियता ने भाजपा का मनोबल बढ़ा दिया है। इसके बावजूद अपनी साख बढ़ाने के लिए भाजपा निकाय चुनाव में किसी तरह की कोर-कसर नहीं छोड़ रही है और हर मोर्चे पर पूरी तैयारी करने में जुटी हुई है। प्रदेश में निकाय चुनाव भाजपा संगठन से ज्यादा मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की प्रतिष्ठा का विषय बना हुआ है। यही वजह है कि पहली बार किसी मुख्यमंत्री ने निकाय चुनाव में इतनी बड़ी तैयारी से जुटने के साथ ही सभी महानगरों एवं कई प्रभावशाली जिलों में चुनाव सभाएं आयोजित की हैं। इसके साथ ही जिला स्तर पर पार्टी पदाधिकारियों को प्रभारी बनाकर पूरे चुनाव की देखरेख करने की जिम्मेदारी सौपी गयी है।
प्रदेश में संगठन की कमजोरी को देखते हुए कांग्रेस पहले से ही निकाय चुनाव को लेकर उत्साहित नहीं थी। कांग्रेस पदाधिकारी भी मानते हैं कि पार्टी के निकाय चुनाव में कुछ करने को नहीं है। कांग्रेस प्रत्याशी निकाय चुनाव में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने के लिए लगे हुए हंै। लोकसभा एवं विधानसभा चुनाव में पार्टी फंड हासिल करने के लिए टिकट के दावेदारों की संख्या ज्यादा होती है परन्तु निकाय चुनाव में पार्टी के कोई धनराशि न मिलने से भी प्रत्याशी उदास हंै। वैसे अब कांग्रेस प्रत्याशियों को चंदा भी बहुत कम ही मिल रहा है।
ऐसे में कांग्रेस से जारी प्रत्याशियों की सूची निकाय चुनाव में उपस्थिति दर्ज कराने तक ही सीमित होकर रह गयी है। इसमें कुछ प्रत्याशी जीतते है तो कांग्रेस का कम क्षेत्र में प्रत्याशी की मेहनत एवं साख का ही प्रभाव होगा। जहां तक निकाय चुनाव में बसपा की स्थिति का है, वह पिछले विधानसभा चुनाव की ही तरह विवादास्पद हो गया है। विभिन्न चुनावों में बसपा प्रत्याशियों की घोषणा में पैसे के लेन-देन के आरोपों से घिरी पार्टी प्रमुख मायावती ने किसी प्रत्याशी से चुनावी फंड न लेने की बात की थी परन्तु पार्टी की संगठनात्मक गतिविधियों के नाम पर वसूली शून्य डिग्री हो गयी। असर यह है कि पार्टी ने महानगरों के मेयर पद के लिए 50 लाख से एक करोड़ तो नगर पंचायत अध्यक्षों के लिए 25 से 50 लाख की रकम निर्धारित कर दी। इसी प्रकार पार्षदों के लिए पहले न्यूनतम 10 से 20 लाख की रकम रखी गयी जो बाद में कम कर दी गयी।
इतनी बड़ी रकम की देनदारी को लेकर बसपा के लिए प्रत्याशी ही मिलने बंद हो गये तो कई महानगरों एवं जिलों में अन्तिम समय निर्धारित चंदे की रकम कम करके प्रत्याशी घोषित किये गये। वैसे कुछ महानगरों एवं जिलों में बसपा प्रत्याशी चुनावी प्रतिद्वन्दिता में भाजपा को कड़ी टक्कर दे रहे हैं परन्तु पार्टी से अपेक्षित सहयोग न मिलने और विपक्षी एवं मुस्लिम मतों के बंटवारे के कारण चुनाव में पकड़ नहीं बना पा रहे हैं । ऐसी स्थिति में बसपा प्रत्याशी भी पार्टी की साख और अपनी राजनीतिक महत्वकांक्षा बनाये रखने के लिए ही चुनाव मैदान में डटे हैं। जहां तक प्रदेश में सबसे प्रमुख विपक्षी दल सपा के निकाय चुनाव में स्थिति का है, कांग्रेस और बसपा के दरकिनार होने के बाद अपेक्षा थी कि सपा इस बार भाजपा को कड़ी टक्कर देगी।
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इसके लिए सपा के पास विकास कार्यो में अवरूद्ध होना, बिगड़ती कानून व्यवस्था सहित राष्ट्रीय एवं स्थानीय मुद्दे थे परन्तु आक्रामक तेवर न अपना कर सपा भी काफी पिछड़ गयी है। यही नही निकाय चुनाव में सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने जिस प्रकार अपने पिता मुलायम सिंह यादव तथा चचा शिवपाल यादव के नजदीकियों को टिकट देने से मना कर दिया, उससे साफ हो गया कि अभी परिवार में शान्ति की खबरें केवल ऊपरी तौर पर ही कही जा रही हैं। अभी यादव परिवार में खटास बनी हुई है। सपा के यादव परिवार का विवाद और अखिलेश टीम की अनुभवहीनता एवं अहंकार निकाय चुनाव में उनकी मुहिम पर भारी पड़ रहा है। सपा मजबूत एवं हमलावर विपक्ष की भूमिका नहीं निभा पा रही है जिससे भाजपा को बढ़त मिल रही है।
वैसे भी निकाय चुनाव एवं शहरी क्षेत्रों में भाजपा का पहले से ही वर्चस्व रहा है। पिछले निकाय चुनाव में 12 महानगरों में से 9 पर भाजपा को जीत मिली थी और बाद में इलाहाबाद की मेयर भी भाजपा में शामिल हो गयी थी। इसके विपरीत नगर पंचायतों में भाजपा को अपेक्षित सफलता नहीं मिली थी। नगर पंचायतों में सपा ने अपनी सरकार होने का प्रभाव दिखा दिया था। अब जबकि प्रदेश भाजपा की भारी बहुमत की सरकार है तो सांसदों एवं विधायकों के माध्यम से पार्टी ज्यादा से ज्यादा नगर पंचायतों पर अपना प्रभुत्व बनाने का मंसूबा पाले हुए है। इस बार 16 महानगरों में से भाजपा को सहारनपुर, मेरठ, आगरा, बरेली, मुरादाबाद में कड़ी टक्कर मिलने की संभावना थी परन्तु विपक्ष के बिखराव ने इस मुहिम को विफल कर दिया है।
लखनऊ में कांग्रेस ने ऐन मौके पर प्रत्याशी बदलकर अपना दांव जरूर खेला था परन्तु जोड़ तोड़ में माहिर भाजपा नेतृत्व ने कांग्रेस प्रत्याशी के बेटे को पार्टी में मिलाकर अपनी स्थिति मजबूत कर ली। सपा ने कई स्थानों पर ऐसे प्रत्याशी घोषित किये जिससे आशंका जतायी जा रही है कि यह सब कुछ भाजपा को जिताने के लिए किया जा रहा है। विधान सभा चुनाव के बाद हार से हताश विपक्षी दलों ने जिस प्रकार एकता का स्वर बुलन्द किया था, वह निकाय चुनाव के समय धराशायी हो गया। अखिलेश ने कट्टर विरोधी एवं पारिवारिक रंजिश वाली बसपा प्रमुख मायावती से भी गठजोड़ की बात की परन्तु अपने पुराने सहयोगी कांग्रेस को भी निकाय चुनाव में गठबंधन से दूर रखा जबकि उन्हें खुद भी कई स्थानों पर जीत की संभावना कम ही लग रही है। इस प्रकार निकाय चुनाव में विपक्षी दलों ने राजनीतिक एकता को तोडऩे हुए भाजपा को वाक ओवर दे दिया है।