नेपाल में भारत विरोध की जीत, केपी ओली के सिर नये प्रधानमंत्री का ताज सजना तय
दस साल की राजनीतिक उथल-पुथल के बीच दस प्रधानमंत्री देख चुके नेपाल में अब वाम दलों का सूर्य चमकता दिख रहा है। आत्मनिर्भरता के नारे के बीच भारत का विरोध करने वाले पूर्व प्रधानमंत्री केपी ओली के सिर नये प्रधानमंत्री का ताज सजना तय है। नेपाल में लाल सलाम के खतरे भी हैं क्योंकि प्रचंड से लेकर ओली का चीन की तरफ झुकाव जगजाहिर है। भारत समर्थित नेपाली कांग्रेस सियासी लड़ाई में पूरी तरह बाहर दिख रही है।
पूर्णिमा श्रीवास्तव
गोरखपुर। सितम्बर 2015 में नेपाल में नये संविधान पर मुहर लगने के साथ देश में स्थायी सरकार की उम्मीदें परवान चढऩे लगी थीं। नेपाल में बीते 26 नवंबर और सात दिसंबर को दो चरणों में चुनाव कराए गए थे। संसदीय सीटों के लिए 1663 उम्मीदवार चुनावी मैदान में उतरे थे।
चुनाव में सूरज चुनाव चिह्न के साथ उतरे केपी ओली और प्रचंड का गठबंधन लोगों के बीच राष्ट्रवाद के नाम पर वोट मांगने उतरा था। नेपाली जनता ने वाम गठबंधन को हाथों हाथ लिया तो वहीं दूसरी ओर नेपाली कांग्रेस का भारत के प्रति झुकाव और मुद्दाविहीन होना उसे ले डूबा।
पूर्व प्रधानमंत्री केपी ओली और प्रचंड लोगों को यह समझाने में सफल रहे कि नेपाल जब तक खुद आत्मनिर्भर नहीं होगा, उसके वजूद पर संकट बना रहेगा। चुनावी सभाओं में भूकंप के दौरान भारत की बेरुखी को भी वाम दलों ने पुरजोर ढंग से उठाया। भारत विरोध की वजहों को वाम दल पहाड़ से लेकर भारतीय सीमा से लगे इलाकों में भी समझाने में पूरी तरह कामयाब रहे।
केपी ओली ने अपनी सभाओं में युवाओं को समझाया कि चीन द्वारा लाई जा रही रेल नेटवर्क, जल विद्युत परियोजना, एयरपोर्ट और अन्य विकास कार्य से ही नेपाल आत्मनिर्भर बनेगा और बेरोजगारों को रोजगार मिलेगा। वहीं पूर्व प्रधानमंत्री शेर बहादुर देउबा और बाबू राम भटराई का गठबंधन अपने मूल मुद्दों से ही भटक गया।
नेपाली कांग्रेस की सियायत हिन्दू कार्ड के इर्द-गिर्द घूमती रही है, लेकिन इस चुनाव में नेपाल कांग्रेस के नेता बाबू राम भट्टराई की करीबी के चलते वह इस एजेंडे से भी भटकती दिखी। नेपाली जनता को वाम दलों और नेपाली कांग्रेस के बीच फर्क करने में मुश्किल हुई।
वाम दल लोगों को समझाने में कामयाब रहा
नेपाल में लंबे समय तक नेपाली कांग्रेस का कब्जा रहा है। ऐसे में वाम दल लोगों को यह समझाने में कामयाब रहे कि नेपाली कांग्रेस की अगुवाई वाली सरकारों ने नेपाल को बर्बाद कर दिया है। ना तो उद्योग लगे और न ही नेपाली युवाओं को रोजगार के अवसर हासिल हुए। नेपाली कांग्रेस के कार्यकाल में चिकित्सा, शिक्षा से लेकर मूलभूत सुविधाओं के लिए देश भारत या फिर चीन के रहमोकरम पर ही जिंदा रहा है।
कभी भी देश को आत्मनिर्भर बनाने की कोशिशें नहीं हुईं। वाम दलों को नेपाल की जनता का इन दलीलों पर भरपूर समर्थन मिला। इसके साथ ही भूकंप के दौरान पनपा भारत विरोध भी वाम दलों की जीत में अहम वजह बना। कमल थापा के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी राजा की समर्थन वाली मानी जाती है। पार्टी को चुनाव में करारी हार का सामना करना पड़ा है।
नेपाल में भारत विरोध केन्द्र की भाजपा सरकार के लिए भी बड़ा झटका है। पीएम बनने के बाद नरेन्द्र मोदी भूटान के बाद नेपाल के ही दौरे पर पहुंचे थे। नेपाली जनता ने पूरी गर्मजोशी से उनका स्वागत किया था, लेकिन नेपाल में भूकंप के दौरान भारत कूटनीतिक रूप से पूरी तरह असफल रहा।
स्थायी सरकार के लिए लोगों का समर्थन
नेपाली संविधान के जानकार विकास अधिकारी कहते हैं कि ओली नेपाल में अस्थिर सरकारों की लंबी फेहरिस्त में स्थयित्व वाली सरकार देने का वादा कर लोगों का भरोसा जीतने में सफल रहे। नेपाली जनता को लगा कि ओली प्रचंड की मदद से नेपाल को स्थायी सरकार दे सकते हैं और स्थायी सरकार ही नेपाल में विकास का द्वार प्रशस्त कर सकती है। भारत-नेपाल मैत्री समाज के शांत कुमार शर्मा कहते हैं कि भूकंप के दौरान भारत सरकार मदद की मार्केटिंग करने लगी। वहीं चीन शांति से मदद करता रहा।
ऐसे में नेपाली जनता चीन को पक्का दोस्त मामने लगी। सोनौली और रक्सौल बार्डर पर नाकेबंदी भी भारत विरोध की बड़ी वजह बनी। भारत सरकार यह समझाने में पूरी तरह नाकामयाब साबित हुई कि बार्डर पर नाकेबंदी नहीं हुई। दरअसल दो वर्ष पूर्व नेपाल में भूकंप की आपदा के बाद भारत-चीन मदद को लेकर जमकर सियासत हुई थी।
भारत की तरफ से रक्सौल और सोनौली बार्डर को सील किये जाने की अफवाह नेपाल के पहाड़ में खूब उड़ी। वाम दल नेपाली नागरिकों को समझाने में सफल रहे कि भारत की बार्डर पर नाकेबंदी के चलते काठमांडू में रसोई गैस से लेकर डीजल-पेट्रोल और खाने-पीने की सामानों की कीमतों में दस गुने से अधिक का इजाफा हुआ।
करीब दो महीने की दिक्कतों के बाद भारत सरकार के जिम्मेदार नेपाल में यह संदेश देने में नाकामयाब रहे कि बार्डर पर किसी प्रकार की नाकेबंदी नहीं की गई थी। उधर, इस अफरातफरी का चीन ने खूब लाभ उठाया। बता दें कि पूर्व प्रधानमंत्री केपी ओली की अगुआई वाली सीपीएन-यूएमएल और पूर्व प्रधानमंत्री प्रचंड की पार्टी सीपीएन-माओवादी ने संसदीय और प्रांतीय चुनावों के लिए हाथ मिलाया था।
इस गठबंधन को पिछले दो दशकों से राजनीतिक अस्थिरता के दौर से गुजर रहे नेपाल के लिए अहम माना जा रहा है। चुनाव के नतीजों से इस हिमालयी देश में स्थिरता की उम्मीद की जा रही है। यह देश पिछले एक दशक में 10 प्रधानमंत्रियों को देख चुका है। नेपाली जनता को उम्मीद है कि यह चुनाव नेपाल में विकास और स्थायी सरकार की बुनियाद रखेगा।
मधेशी दलों की भारी हार
पूर्व प्रधानमंत्री केपी ओली ने झापा-5 सीट से नेपाली कांग्रेस के उम्मीदवार खगेंद्र अधिकारी को 28 हजार से ज्यादा मतों से हराया है। वहीं वामपंथी नेता प्रचंड चितवन-3 सीट से निर्वाचित हुए हैं। उन्होंने राष्ट्रीय प्रजातंत्र के उम्मीदवार विक्रम पांडे को 10 हजार से ज्यादा मतों से परास्त किया।
भारत से सटे तराई इलाकों में मधेश राज्य के मुद्दों पर अपनी सियासी रोटियां सेंकने वाले मधेशी दलों को भी भारी हार का सामना करना पड़ा है। सप्तरी सीट से पूर्व गृहमंत्री और मधेश नेता उपेन्द्र यादव अपनी सीट बचाने में कामयाब रहे। वहीं पूर्व प्रधानमंत्री बाबूराम भटराई गोरखा से जीतने में सफल रहे। वहीं शेर बहादुर देउबा की पत्नी को हार का सामना करना पड़ा।
वाम गठबंधन को स्पष्ट बहुमत
नेपाल में दो चरणों में हुए चुनाव में संघीय संसद की 275 सीटों और सात प्रांतीय सभाओं के लिए 550 सदस्यों के निर्वाचन के लिए वोटिंग हुई थी। संविधान लागू होने के बाद नेपाल के लोग अपना प्रधानमंत्री और प्रांतीय सभाओं के लिए सदस्य सीधे चुनाव के जरिए चुन रहे हैं।
नेपाल के संसदीय और प्रांतीय चुनावों में सीटों की संख्या वाम गठबंधन की सरकार बननी तय है। सोमवार तक की मतगणना में वाम दलों के खाते में 106 सीटें आ चुकी हैं। वहीं सत्तारूढ़ नेपाली कांग्रेस पार्टी महज 20 सीटों के साथ तीसरे स्थान पर है। नेपाल में संसदीय और प्रांतीय विधानसभाओं के लिए दो चरणों में मतदान हुआ था।
बीते गुरुवार को दूसरे चरण का मतदान खत्म होने के बाद से ही वोटों की गिनती का काम चल रहा है। नेपाल चुनाव आयोग की मंगलवार को मीडिया से बातचीत में साफ हुआ कि पहले चरण की 165 सीटों में से सीपीएन-यूएमएल सबसे ज्यादा 75 सीटें जीत चुकी है। इसकी सहयोगी सीपीएन-माओवादी 36 सीटों के साथ दूसरे स्थान पर है। वाम गठबंधन 275 सदस्यीय संसद में स्पष्ट बहुमत की ओर बढ़ रहा है।
संसदीय चुनावों में दो मधेशी दल 19 सीटों पर जीत दर्ज कर सके हैं। राष्ट्रीय जनता पार्टी नेपाल के खाते में 10 और फेडरल सोशलिस्ट फोरम नेपाल की झोली में नौ सीटें आई हैं। यहां बता दें कि नेपाल के सात प्रदेशों में वोटिंग से 165 और 110 सांसद समानुपातिक आधार पर चुने जाएंगे।
27 साल में 25 बार बदली सत्ता
नेपाल में तीन दशक की राजनीतिक अस्थिरता के बाद स्थायी सरकार बनने जा रही है। वर्ष 1990 में नेपाल द्वारा बहुदलीय लोकतंत्रीय संसदीय व्यवस्था को अपनाए जाने के बाद पिछले 27 सालों में देश में 25 सरकारें बन चुकी हैं। इस दौरान नेपाल बलपूर्वक राजकीय सत्ता परिवर्तन भी गवाह बना।
वर्ष 2001 में चुनाव संपन्न होने के दो साल के भीतर ही अपातकाल लागू कर दिया गया था। वर्ष 2005 और 2006 में भारत सरकार के प्रयास से माओवादियों को राजनीतिक मुख्य धारा में शामिल किया गया। इसके बाद वर्ष 2008 में गणतांत्रिक नेपाल में नये संविधान के गठन के लिए प्रथम संविधान सभा का गठन हुआ। विभिन्न अस्मिताओं वाले नागरिकों के बीच सम्यक प्रतिनिधित्व के मुददे पर खींचातान चलती रही।
वर्ष 2013 में द्वितीय संविधान सभा का गठन किया गया। यह संविधान सभाएं संविधान निर्माण के लिए सहमति नहीं बना सकीं। इस दौरान शासन-प्रशासन भी किसी तरह चलता रहा। अप्रैल 2015 में नेपाल ने जहां भूकंप की भयानक विभीषिका झेली। सितम्बर 2015 में देश को नया संविधान मिला। नये संविधान के तहत नेपाल एक गणतांत्रिक लोकतंत्र बन गया है। नेपाल सात राज्यों का एक संघीय देश है।
165 संसदीय सीटों पर जीत का आंकड़ा
- नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी एमाले-75 सीट, 6 सीटों पर बढ़त
- माओवादी केन्द्र- 36 सीट
- नेपाली कांग्रेस-21 सीट
- संघीय फोरम-10 सीट
- राष्ट्रीय जनता पार्टी-10 सीट