राहुल गांधी की ट्रैक्टर पॉलिटिक्सः क्या हैं कांग्रेस के भविष्य के लिए संकेत
Rahul Gandhi Tractor Politics : यह पहली बार नहीं है जब गांधी का किसानों तक पहुंचने का विस्तृत प्रयास चुनावी जीत में तब्दील होने में विफल रहा।
Rahul Gandhi Tractor Politics : आखिरकार आठ महीने तक इंतजार के बाद कांग्रेस (Congress) अपने नेता राहुल गांधी की ट्रैक्टर पॉलिटिक्स (Tractor March) के जरिये किसान आंदोलन (Farmers Protest) के साथ खुलकर आ ही गई। निसंदेह कांग्रेस किसानों के जरिये 2022 में होने वाले पांच राज्यों के चुनाव (Assembly Election 2022) पर निशाना साधना चाहती है। किसान आंदोलन की शुरुआत से लेकर अब तक लुकाछिपी का लंबा खेल खेलने के बाद शायद कांग्रेस को अब इस बात से अब बहुत अधिक फर्क नहीं पड़ता है कि भाजपा और उसके समर्थक दल इस मामले में उसके स्टैंड को किस रूप में देखते हैं।
पंजाब में अंदरूनी कलह (Punjab Congress Crisis) से जूझ रही कांग्रेस को राहुल का स्टैंड संभवतः एक बार फिर अग्रिम मोर्चे पर ला दे। इसी तरह उत्तराखंड (Uttarakhand Congress) में जहां कांग्रेस के दिग्गज नेता भाजपा का दामन थाम चुके हैं और कांग्रेस के पास उसके कद्दावर नेता हरीश रावत (Harish Rawat) और प्रीतम सिंह (Pritam Singh) के अलावा कोई कद्दावर नेता नहीं दिख रहा है। तो उत्तर प्रदेश में कांग्रेस (Uttar Pradesh Congress) की जमीन पूरी तरह खिसक चुकी है। लेकिन कांग्रेस के प्रदेश नेताओं का दावा रहा कि जिला पंचायत चुनाव में कांग्रेस पार्टी के 270 जिला पंचायत के उम्मीदवारों ने विजय प्राप्त की, 571 सीटों पर जिला पंचायत के कांग्रेस प्रत्याशी जहां दूसरे स्थान पर रहे तो 711 सीटों पर कांग्रेस प्रत्याशी तृतीय स्थान पर रहे। अपनी इस हालत पर भी कांग्रेस संतुष्ट रही कि वह इससे बुरी दशा में नहीं गई।
किसान आंदोलन के समर्थन से फायदे का लिटमस टेस्ट अगर पंजाब को माना जाए तो राज्य में किसान आंदोलन के समर्थन का पूरा पूरा फायदा निकाय चुनाव में कांग्रेस को मिला जिसमें भाजपा तो झुलसी ही उसके साथ रहने की कीमत शिरोमणि अकाली दल (Shiromani Akali Dal) को भी चुकानी पड़ी थी। पंजाब में निकाय चुनाव को अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव के लिटमस टेस्ट के रूप में देखा जा रहा था। निश्चय ही कांग्रेस इसे दोहराना चाहेगी बशर्ते उससे पहले भाजपा समर्पण न कर दे। जो कि संभव नहीं दिखता।
कांग्रेस की उत्तराखंड में स्थिति
अगर उत्तराखंड की राजनीति को देखें तो उत्तराखंड की सत्ता में वापसी के लिए कांग्रेस छटपटा रही है। उसके हक में सिर्फ एक बात गई है वह है भाजपा सरकार में बार-बार हो रहा नेतृत्व परिवर्तन। इससे कांग्रेस को राजनीतिक अस्थिरता, भ्रष्टाचार, सरकार की कार्यप्रणाली व क्षमता को लेकर भाजपा पर हमले तेज करने का मौका मिल गया है। वह नये नये मुद्दों को उछालकर जनता के बीच पैठ बनाने के लिए नए सिरे से कोशिशें तेज कर रही है।
राहुल गांधी की ट्रैक्टर पॉलिटिक्स पहाड़ी राज्य में किसानों को मुद्दा बना सकती है जहां 2017 में करारी हार के बाद से कांग्रेस इतनी पस्त पड़ चुकी है कि पिछले चार सालों में हुए लोकसभा चुनाव, शहरी निकाय चुनाव और पंचायत चुनाव में भी कामयाबी हासिल करन की उसकी तड़प बरकरार रही है।
किसान आंदोलन से कांग्रेस को चुनावी लाभ
हालांकि अगर इतिहास देखें तो किसान आंदोलनों से शायद ही कभी कांग्रेस को चुनावी लाभ मिला हो। मोदी सरकार द्वारा 2013 भूमि अधिग्रहण अधिनियम में कुछ विवादास्पद संशोधन किये गए थे जिन्हें 2015 में, भारी विरोध के बाद वापस ले लिया गया। इसे उस समय विपक्ष की एक महत्वपूर्ण जीत के रूप में देखा गया था, जिसने सरकार के खिलाफ तीखा हमला किया था। इसके कुछ महीने बाद हुए बिहार विधान सभा चुनाव में जबकि राजद के नेतृत्व वाले महागठबंधन, जिसमें जद (यू) और कांग्रेस शामिल थे, ने जीत हासिल की। लेकिन कांग्रेस अगले कई चुनावों में किसानों के गुस्से को भुनाने में सफल नहीं रही।
इसके एक साल बाद 2016 कांग्रेस ने पांच राज्यों में से चार को खो दिया। उसने असम और केरल में सत्ता खो दी और तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल में भी उसे खोई हुई जमीन हासिल नहीं हुई। उस वर्ष पुडुचेरी एकमात्र चुनाव था जिसे उसने जीता था। फिर, 2017 में, कांग्रेस ने मध्य प्रदेश के मंदसौर में कर्ज माफी की मांग को लेकर एक आंदोलन के दौरान पुलिस फायरिंग में 6 किसानों की हत्या के विरोध में विरोध प्रदर्शन किया। राहुल गांधी, जो तब कांग्रेस अध्यक्ष थे, 2018 के मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव अभियान से पहले, मृतक किसानों के परिवारों से मिलने भी गए थे। जबकि कांग्रेस ने राज्य का चुनाव जीता, पार्टी मंदसौर सीट पर कब्जा करने में विफल रही, भाजपा के मौजूदा विधायक यशपाल सिंह सिसोदिया से हार गई।
यूूपी में कांग्रेस का किसान समर्थन
यह भी पहली बार नहीं था जब गांधी का किसानों तक पहुंचने का विस्तृत प्रयास चुनावी जीत में तब्दील होने में विफल रहा। 2011 में राहुल गांधी पश्चिमी उत्तर प्रदेश के भट्टा और परसौल के गांवों में गए, जो तत्कालीन मायावती के नेतृत्व वाली सरकार के खिलाफ किसानों के विरोध का केंद्र था। उनके गांव के दौरे और मिले स्वागत ने कांग्रेस को 2012 के विधानसभा चुनावों में कम से कम एक सीट जीतने का भरोसा दिलाया। लेकिन सत्तारूढ़ बहुजन समाज पार्टी के उम्मीदवार ने जेवर सीट से जीत हासिल की, जिसके तहत ये जुड़वां गांव आते थे, जबकि कांग्रेस उम्मीदवार लगभग 10,000 वोटों से हार गया।
वैसे राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार, किसान राजनीति हाल के वर्षों में शायद ही कभी चुनावों पर प्रभाव डाल पाई है। उनका कहना है कि अगर चौधरी चरण सिंह को छोड़ दें तो ऐसा इसलिए है क्योंकि किसान एक संयुक्त राजनीतिक निर्वाचन क्षेत्र नहीं हैं, बल्कि बाकी आबादी की तरह जाति, वर्ग, क्षेत्र और विचारधारा के आधार पर समान रूप से विभाजित हैं। किसान आमतौर पर टिकाऊ और व्यापक गठबंधन बनाने में विफल होते हैं जो चुनावी प्रतिस्पर्धा को व्यवस्थित रूप से बदल सके। लोगों का यह मानना है कि कांग्रेस किसान के मुद्दे उठाकर लाभ लेने में कम कुशल रही है।