साझा संस्कृति का आईना है बदायूं
बदायूं आज भले ही एक छोटा सा उदास, उनीदा सा शहर लगता है इसमें धरती ने सदियों का एक शानदार इतिहास अपने में सजो रखा है।
डॉ. श्रीकांत श्रीवास्तव
बदायूं आज भले ही एक छोटा सा उदास, उनीदा सा शहर लगता है इसमें धरती ने सदियों का एक शानदार इतिहास अपने में सजो रखा है। जीवनदायिनी स्रोत के किनारे बसे इस शहर ने इतिहास के कई उतार-चढ़ाव देखे हैं। भारत की मिलीजुली साझा संस्कृति आज भी इस शहर मैं जिंदा है। यहां जिंदगी जिंदादिली का नाम रही है। सूफी संत ने बदायूं की धरती से पूरी दुनिया को प्यार और भाईचारे का पैगाम दिया। ऐसा माना जाता है कि आहीर राजा बुद्ध ने 905 ईसवी में इस शहर को बसाया था। बुध के उत्तराधिकारी ने 11वीं शताब्दी तक बदायूं पर शासन किया था। सातवाहन ने अपने पुत्र को चन्द्रपाल को इस शहर का शासक नियुक्त किया था । सातवाहन के 11 बे उत्तराधिकारी यहां शासक बने थे। बदायूं से प्राप्त एक शिलालेख में इसका उल्लेख अंकित है ।
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यह शिलालेख आज भी लखनऊ के संग्रहालय मैं सुरक्षित है । इसका संबंध कन्नौज के राठौर से माना गया है राठौर के बाद तोमर वंशी शासको ने बदायूं पर शासन किया । इनका शासनकाल करीब एक सौ वर्ष रहा। बाद में कंपिल के राजा हरेंद्र पाल ने तोमर को हराकर बदायूं को अपने प्रशासनिक नियंत्रण में ले लिया । 1190 में जयदेव को बदायूं का राजा बनाया गया। जो कन्नौज के राजा का पुत्र था। इससे पहले सैयद सलार मसूद गाजी ने यहां आक्रमण कर तोड़फोड़ की थी। 1196 में कुतुबुद्दीन ऐवक ने बदायूं पर विजय प्राप्त की थी। सुल्तान इल्तुतमिश (1211-1236) के समय में यह बदायूं राजधानी बनाया था। इल्तुतमिश स्वयं एक बहुत बड़ा सूफी संत था और उसने बदायूं की संस्कृति की सूफी रंग दिया।
प्रोफ़ेसर गोटी जॉन के अनुसार बदायूं का नाम बेदमूथ था जो बाद में बदायूं पड़ा। हालांकि मुस्लिम इतिहासकारों ने इसे बदायूं ही लिखा है। मुल्ला अब्दुल कादिर बदायूनी (1546-1615) के थे । मुंतखबा उत तवारीख भारत के इतिहास में मध्यकाल पर लिखी गई उनकी एक प्रसिद्ध किताब है। मुल्ला ने इस शहर का नाम बदायूं लिखा है। बहरहाल मध्यकाल से ही इस शहर का नाम बदायूं चला आ रहा है। अंग्रेजों ने 1828 में बदायूं को जिले का दर्जा दिया था। इससे पहले अंग्रेजों ने सहसवान की जिला मुख्यालय बनाया था। मुगल काल में बदायूं का ही महत्वपूर्ण स्थान बना रहा। जहांगीर (1569-1627) के समय में फरीद खां और बाद में अली कुली खां यहां के गवर्नर रहे। इन दोनों का ही यहां विकास में काफी योगदान रहा।
बदायूं सूफी संतो का शहर रहा है हजरत ख्वाजा हसन शाही बड़े सरकार (1188-1230) की दरगाह यहीं पर है। कहा जाता है कि इनका संबंध यमन के शाही परिवार से था। बड़े सरकार को सुल्तान उल आरथीन का लकबा हासिल था। यह अपने परिवार के साथ भ्रमण करते हुए भारत आए और बदायूं में बस गए। काजी हमीदउद्दीन नागौरी (1192-1274) से इन्होंने धार्मिक शिक्षा प्राप्त की थी और खिरखा लिया था। हजरत नागोरी की दरगाह दिल्ली में है। इनके छोटे भाई हजरत शेख वरूदउद्दीन शाह विलायत छोटे सरकार के नाम से विख्यात है। इन्होंने बड़े सरकार तथा चिशतिया शेख कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी (1173-1235) से मुरीद हुए थे तथा सिरखा खिलाफत हासिल किया था। बड़े सरकार की दरगाह सोत नदी के किनारे है। बड़ी संख्या में श्रद्धालु यहां आते हैं । इन दोनों ही सूफी संतों ने लोगों को प्रेम और सच्चाई का मार्ग दिखाया ।
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बड़े सरकार कहा करते थे - '' अपने दिल को लोगों के प्रति नफरत से मुक्त करो इससे तुम्हारा रूहानी दर्जा बढ़ेगा और अल्लाह पाक के करीब बनोगे '' । इनहोने सत्य को महत्व दिया । कहा करते थे - " अल्लाह का बली हर स्थिति में सच बोलता है।" बड़े सरकार और छोटे सरकार दोनों ने मानव जाति को प्रेम, भाईचारे और शांति का पाठ पढ़ाया। इनकी खानखाह का दरवाजा हमेशा सभी के लिए खुला रहता था। इनकी दरगाह आज भी हर जाति और हर धर्म के लोगों के लिए पूजा स्थल है। यहां सभी आते हैं और अपने कष्टों से छुटकारा पाने के लिए दुआ मांगते हैं। शेख निजामुद्दीन औलिया (1238-1325) का जन्म भी बदायूं में हुआ था । इनके पिता सैयद अहमद बुख़ारी बदायूं आकर बस गए थे । शेख निजामुद्दीन औलिया ने बाद में दिल्ली में शिक्षा प्राप्त की ओर अपनी खानकाह का स्थापित की थी। शेख का बदायूं से काफी लगाव था। बदायूं सपनों का शहर लगता है। तमाम इमारतें यहां की स्वर्णिम इतिहास की गवाह है। यहां की इमारतों में मस्जिद मकबरे और सूफी संतों की दरगाहे प्रसिद्ध है। सुल्तान इल्तुतमिश जो कि स्वयं पहुंचा हुआ सूफी संतों था, बदायूं में जामा मस्जिद और ईदगाह का बनवाई थी।
वह 1209 में बदायूं का गवर्नर था। 1210 में इल्तुतमिश ने मशहूर जामा मस्जिद की तामीर का काम शुरू कराया था। यह मस्जिद स्थापत्य कला की दृष्टि से जहा एक ओर सादी तथा आध्यात्म से परिपूर्ण है वही दूसरी ओर भारतीय स्थापत्य कला का नमूना भी है। नवाब अखलास खां का मकबरा बदायूं की एक खास निधि है। आगरा में ताजमहल का निर्माण बादशाह शाहजहां ने अपनी बेगम मुमताज महल के नाम पर कराया था । लेकिन बदायूं मैं नवाब ने अखलास खां के नाम पर ताज महल जैसा ही मकबरा उनकी बेगम महबूब बेगम ने बनाया था। यह ताजमहल जैसा ही लगता है लेकिन एक मामले में अलग है। यह प्रेमी के नहीं बल्कि एक प्रेमिका के प्यार की निशानी है। सुल्तान सैयद अलाउद्दीन ने 1464 में अपनी माता के लिए एक मकबरा बनवाया था।
इसके अलावा नवाब फरीद खां का मकबरा भी काफी प्रसिद्ध है। बड़े सरकार और छोटे सरकार की दरगाह तो विश्व विख्यात है ही। बदायूं की इमारतें हिंदू मुस्लिम एकता के रंग में रंगी है । यहां पर आकर लगता है कि भारत विभिन्न संस्कृतियों वाला देश है । बदायूं में कई बड़े संगीतकार भी हुए जिन्होंने भी एकता की इस परंपरा को आगे बढ़ाया। उस्ताद फिदा हुसैन, उस्ताद निसार हुसैन खा, उस्ताद अजीज अहमद खा, और गुलाम मुस्तफा जैसे कलाकारों ने संगीत के माध्यम से देश की साझा संस्कृति की उजागर किया है। शकील बदायूनी और फ़ानी बदायूनी जैसे शायरों ने इसी परंपरा को आगे बढ़ाया। शकील साहब ने लिखा है -
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" मंदिर में तू मस्जिद में तू और तू ही है ईमानो में
मुरली की तानों में तू और तू ही है अजानों में ॥ "
आज प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जिस एक भारत श्रेष्ठ भारत की बात कर रहे हैं वह भारत के अध्यात्म से सराबोर उस संस्कृति की बात है जो दुनिया में अनोखी है । अल्लामा इकबाल ने शायद इसी ओर संकेत करते हुए कहा था -
" कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी
सदियों रहा है दुश्मन दौरे जमां हमारा॥ "
उत्तर प्रदेश का एक छोटा सा ऐतिहासिक शहर बदायूं इसी बात की तस्दीक करता है।
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