1996 में आख़िरी लड़ाकू विमान सुखोई-30 खरीदा गया था, 'राफेल' की ज़रूरत क्यों पड़ी?
31 जनवरी 2012 को भारत ने फ्रांस को राफेल बनाने का टेंडर दिया था। उसको यह टेंडर सस्ती बोली व फील्ड ट्रायल के दौरान भारतीय परिस्थितियों और मानकों पर खरा उतरने के कारण मिला था।
शाश्वत मिश्रा
किसी भी देश को सुरक्षित महसूस करने के लिये वहाँ की सेना का सशक्त होना बहुत ज़रूरी है। भारत वह देश है जिसकी थल सेना के मुकाबले दुनिया में कोई सेना नहीं। भारत की जल सेना भी मजबूत है। वायुसेना ने भी समय-समय पर अपना दमख़म दिखाया है।
आने वाली 29 जुलाई को फ्रांस के मेरिनेक एयरबेस से राफेल फाइटर विमानों का पहला बैच 7 हजार किमी की दूरी तय कर भारत पहुंचेगा। इन मल्टी-रोल फाइटर जेट्स के शामिल होने से भारतीय वायुसेना की ताकत कई गुना बढ़ जाएगी।
राफेल विमान की जबसे डील शुरु हुई, यह काफी विवादों में रहा। मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा। विपक्षी दलों ने इस मुद्दे को चुनावी मुद्दा भी बनाया। जिसका उनको फ़ायदा भी मिला। लेकिन राफेल की चर्चा सुप्रीमकोर्ट के केंद्र सरकार को क्लीनचिट देने के बाद समाप्त हो गयी।
इतने दिनों तक जो पूरे देश में राफेल-राफेल का शोर बरपा, लोगों की जुबां पर जो इस लड़ाकू विमान का नाम पहुंचा,
आख़िर ये है क्या? भारतीय वायुसेना को इस लड़ाकू विमान की ज़रूरत क्यों पड़ी?
सबसे पहले हम आपको बताते हैं कि सभी रक्षा विशेषज्ञ क्या मानते हैं?
विश्व के सभी रक्षा विशेषज्ञ का मानना है कि "अब जंग उसी देश के द्वारा जीती जायेगी, जिसकी वायुसेना में ताकत होगी। थल सेना के द्वारा जंग जीतने के दिन लद गए हैं।"
भारत के लिये ये विमान इसलिये ज़रूरी बन जाता है, क्योंकि उसे दक्षिण एशिया में शक्ति संतुलन रखना है। इस विमान की मारक क्षमता और मिसाइल का मुकाबला करना, भारत के पड़ोसी देशों के बस की बात नहीं है।
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कैसे चुना गया 'राफेल?'
31 जनवरी 2012 को भारत ने फ्रांस को राफेल बनाने का टेंडर दिया था। उसको यह टेंडर सस्ती बोली व फील्ड ट्रायल के दौरान भारतीय परिस्थितियों और मानकों पर खरा उतरने के कारण मिला था।
दरअसल, वर्ष 2007 में भारत सरकार ने मल्टीरोल नए लड़ाकू विमानों के लिए टेंडर जारी किये थे। जिसमें अमेरिका ने एफ-16, एफए-18, रूस ने मिग-35, स्वीडेन ने ग्रिपिन, फ्रांस ने राफेल और यूरोपीय समूह ने यूरोफाइटर टाइफून की दावेदारी पेश की थी। 27 अप्रैल 2011 को आखिरी दौड़ में यूरोफाइटर और राफेल ही भारतीय परिस्तिथियों के अनुकूल पाए गए थे। लेकिन अंततः यह टेंडर राफेल को दिया गया।
राफेल डील की जरुरत क्यों पड़ी?
हम सभी के लोगों के ज़ेहन में एक सवाल ने घर बनाया हुआ है कि भारत को राफेल की क्या ज़रूरत है। दरअसल,
भारत ने 1996 में सुखोई-30 के तौर पर आखिरी बार कोई लड़ाकू विमान खरीदा था। भारत की वायुसेना ताकत 31 स्क्वाड्रन है। भारत को इसे कम से कम 42 स्क्वाड्रन करने की ज़रूरत है। जिससे वह दो मोर्चों पर युद्व करने के लिये तैयार रहे। हमें पता होना चाहिये कि एक स्क्वाड्रन में 12-24 के करीब विमान होते हैं।
भारत हमेशा से लड़ाकू विमानों की खरीद रूस से करता आ रहा है। भारत की वायुसेना में रूस में बने विमान; मिग-21, मिग-27, सुखोई-30 जैसे विमान शामिल हैं। मिग -21 और मिग-27 की स्क्वाड्रन में गिरावट आई है। जबकि दूसरी तरफ भारत के पड़ोसी देश पाकिस्तान ने भी चीन से एडवांस्ड पीढी के विमान जेएफ-17 और अमेरिका से एफ-16 खरीद लिए हैं ऐसे में भारत अब पुरानी तकनीकी के विमानों पर ज्यादा निर्भर नहीं रह सकता है। इनकी जगह नई तकनीक के विमानों को लाना था, इसलिये राफेल डील की गई।
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राफेल विमान की विशेषता
यह एक मल्टीरोल फाइटर विमान है। राफेल की खासियत है कि वह हवा में हवा के अलावा ज़मीन पर हमला कर सकता है। बेहद कम ऊंचाई पर रहने के बावजूद वह एक साथ हवा व ज़मीन पर परमाणु हमला व मिसाइल दागने में सक्षम है। यह विमान इलेक्ट्रानिक स्कैनिंग रडार से थ्रीडी मैपिंग कर रियल टाइम में दुश्मन की पोजीशन खोज लेता है। इसके अलावा यह हर मौसम में लंबी दूरी के खतरे को भी समय रहते भांप सकता है और नजदीकी लड़ाई के दौरान एक साथ कई टारगेट पर नजर रख सकता है साथ ही यह जमीनी सैन्य ठिकाने के अलावा विमानवाहक पोत से भी उड़ान भरने के सक्षम है।
इसे फ़्रांस की डेसॉल्ट एविएशन नाम की कम्पनी बनाती है। राफेल-A श्रेणी के पहले विमान ने 4 जुलाई 1986 को उडान भरी थी जबकि राफेल-C श्रेणी के विमान ने 19 मई 1991 को उड़ान भरी थी। वर्ष 1986 से 2018 तक इस विमान की 165 यूनिट बन चुकी हैं। राफेल A,B,C और M श्रेणियों में एक सीट और डबल सीट और डबल इंजन में उपलब्ध है।
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