तोप पर हुआ पूरे विपक्ष का इस्तीफा, जानिये इस की पूरी कहानी
और अंत में 1 नवंबर, 2018 को सीबीआई द्वारा सुप्रीम कोर्ट में बोफोर्स घोटाले की जांच फिर से शुरू किए जाने की मांग को शीर्ष अदालत ने खारिज कर दिया। कोर्ट ने कहा कि सीबीआई 13 साल की देरी से अदालत क्यों आई?
रामकृष्ण वाजपेयी
भारत में लोकतंत्र की जड़ें कितनी गहरी हैं इसकी एक बानगी है 24 जून 1989 का दिन जब एक तोप बोफोर्स को लेकर समूचे विपक्ष ने इस्तीफा दे दिया था। ये सिर्फ भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में ही संभव हो सकता है। 1980 के दशक में चर्चित रहे 'बोफोर्स' तोप घोटाले से सभी परिचित होंगे। हालांकि बाद में यह राजनीतिक तख्ता पलट कराने वाला मुद्दा अदालत में नहीं ठहर सका और मामला टांय टांय फिस रहा। लेकिन उस समय इस तोप घोटाले ने देश में आग लगा दी थी और लोकसभा में पूरे विपक्ष को एकजुट कर दिया था। और विपक्षी एकजुटता की ये मिसाल ऐसे समय में देखने को मिली थी जब विपक्ष का कोई नेता नहीं था।
सत्ता पक्ष से था नेता विपक्ष
उस दौर में अघोषित रूप से ही सही विपक्ष के नेता सत्ता पक्ष के एक मंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह बन गये थे, इन्हीं विश्वनाथ प्रताप सिंह द्वारा लगातार किये गए खुलासों के बाद विपक्ष के 110 सांसदों में से 106 ने लोकसभा से इस्तीफा दे दिया था।
यह दिन तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी और कांग्रेस के लिए राजनीतिक भूचाल लाने वाला साबित हुआ। इस मामले में राजीव गांधी नौसिखिये साबित हुए थे जबकि विश्वनाथ प्रताप सिंह राजनीति के माहिर खिलाड़ी बनकर उनपर हावी हो गए थे।
किस्सा बोफोर्स घोटाले का
मामला 1437 करोड़ रुपए के बोफोर्स घोटाले का था, जिसमें स्वीडन की कंपनी एबी बोफोर्स और पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की सरकार के बीच 155 मिमी के 400 हॉविट्जर तोपों का सौदा हुआ था।
जिन बोफोर्स तोपों को कबाड़ बताते हुए राजीव गांधी की सरकार के खिलाफ बगावत का बिगुल फूंका गया था वही तोपें कारगिल युद्ध में बेहद कारगर साबित हुईं और उनकी शान में कसीदे काढ़े गए।
वह भी उस समय जबकि कांग्रेस सत्ता में नहीं थी खैर ये तो वक्त वक्त की बात है। कहा भी गया है कि मनुज बली नहीं होत है समय होत बलवान...।
दलाली का खुलासा
खैर तो 1986 में हुई इस बोफोर्स तोपों की डील में दलाली और भ्रष्टाचार का खुलासा 1987 में स्वीडिश रेडियो ने किया था। जिसमें आरोप लगाया गया था कि कंपनी ने सौदे के लिए भारत के नेताओं और रक्षा विभाग के अधिकारियों को 60 करोड़ रुपए की घूस दी है।
अब देखिए मात्र 60 करोड़ की घूस के आरोप पर राजीव गांधी की सरकार चली गई जबकि उसके बाद कहीं अधिक बड़े घोटाले हुए लेकिन किसी सरकार का कुछ नहीं बिगड़ा।
लेकिन उस समय जनमानस में तत्कालीन रक्षामंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ईमानदार छवि की प्रतिमूर्ति बन गए जो किसी भी कीमत पर समझौता करने को तैयार नहीं थे उन्होंने इस स्कैम को सारे दबाव झटकते हुए सार्वजानिक कर दिया।
हिल गईं सरकार की चूलें
इसके बाद इंदिरा गांधी के निधन से उपजी सहानुभूति की लहर पर सवार होकर 404 सीटें जीतकर आने वाली कांग्रेस की पूर्ण बहुमत सरकार की चूलें हिल गईं।
भाजपा नेता और पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी भी इस खुलासे पर भड़क गए और तोप को लेकर हुए भ्रष्टाचार के भरपूर विरोध का एलान कर दिया। जिसकी परिणति 24 जून को विपक्ष के सामूहिक इस्तीफे से हुई। इसके बाद तेजी से हुए घटनाक्रम में 1989 में ही कांग्रेस को सत्ता तक गंवानी पड़ गई।
बोफोर्स मामले में आरोपी इटली के व्यवसायी ओत्तावियो क्वात्रोकी की गांधी परिवार से कथित नजदीकी को लेकर बवाल बढ़ गया। सोनिया राजीव दोनो शक के घेर में थे।
परत दर परत बोफोर्स घोटाला
भारत और स्वीडन की हथियार निर्माता कंपनी एबी बोफोर्स के बीच 24 मार्च, 1986 को 1,437 करोड़ रुपये की डील हुई। यह सौदा भारतीय थल सेना को 155 एमएम की 400 होवित्जर तोप की सप्लाई के लिए था।
लेकिन एक साल बाद 16 अप्रैल, 1987 को स्वीडिश रेडियो ने दावा कर दिया कि बोफोर्स ने सौदे के लिए भारत के वरिष्ठ राजनीतिज्ञों और रक्षा विभाग के अधिकारी को रिश्वत दी है। रेडियो ने 60 करोड़ रुपये की घूस दिये जाने का दावा किया।
इसके बाद तो वास्तव में भूचाल आ गया और 20 अप्रैल, 1987 को लोकसभा में राजीव गांधी को सफाई देते हुए कहना पड़ा कि सौदे में न तो कोई रिश्वत दी गई है और न ही इस डील में किसी बिचौलिये की भूमिका है।
बढ़ता बवाल, जेपीसी और बोफोर्स पर पाबंदी
राजीव गांधी के लोकसभा में स्पष्टीकरण देने के बावजूद विपक्ष संतुष्ट नहीं हुआ और 6 अगस्त, 1987 को केंद्रीय मंत्री बी, शंकरानंद के नेतृत्व में संयुक्त संसदीय कमेटी (जेपीसी) का गठन किया गया और समिति को आरोपों की जांच का काम सौंपा गया। समय गुजरता रहा इस बीच फरवरी 1988 में मामले की जांच के लिए भारत का एक जांच दल स्वीडन गया। उधर 18 जुलाई, 1989 को जेपीसी ने संसद को रिपोर्ट सौंप दी।
लेकिन नवंबर, 1989 को देश में हुए आम चुनाव में राजीव गांधी को इस बोफोर्स विवाद का बड़ा खामियाजा भुगतना पड़ा जब कांग्रेस की जबर्दस्त हार हुई। विश्वनाथ प्रताप सिंह प्रधानमंत्री बने और 26 दिसंबर, 1989 को वी.पी.सिंह के नेतृत्व वाली सरकार ने बोफोर्स पर पाबंदी लगा दी।
कानूनी जंग की शुरुआत
इस बीच 22 जनवरी, 1990 को बोफोर्स मामले में सीबीआई ने आपराधिक षडयंत्र, धोखाधड़ी और जालसाजी का मामला दर्ज किया। ये मामला एबी बोफोर्स के तत्कालीन अध्यक्ष मार्टिन आर्डबो, कथित बिचौलिये विन चड्ढा और हिंदुजा बंधुओं के खिलाफ दर्ज हुआ। इसके बाद फरवरी 1990 में स्विस सरकार को न्यायिक सहायता के लिए पहला आग्रह पत्र भेजा गया।
उधर दिसंबर 1992 में बोफोर्स मामले में शिकायत को सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दिया और दिल्ली हाई कोर्ट के फैसले को पलट दिया। जुलाई 1993 में स्विटजरलैंड के सुप्रीम कोर्ट ने ओत्तावियो क्वात्रोकी और अन्य आरोपियों की अपील को खारिज कर दिया। इसी महीने क्वात्रोकी भारत छोड़कर भाग गया और फिर वापस नहीं लौटा।
क्वात्रोकी के खिलाफ एनबीडब्ल्यू
फरवरी 1997 में तकरीबन चार साल बाद क्वात्रोकी के खिलाफ गैर जमानती वॉरंट (एनबीडब्ल्यू) और रेड कॉर्नर नोटिस जारी की गई। उधर मार्च-अगस्त 1998 में क्वात्रोकी ने एक याचिका दाखिल की जिसे सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दिया क्योंकि उसने भारत के कोर्ट में हाजिर होने से इनकार कर दिया था।
स्विस सरकार को आरोपों की जांच के लिए दिसंबर 1998 में दूसरा रोगैटरी लेटर भेजा गया। यह जांच का एक औपचारिक आग्रह था। 22 अक्टूबर, 1999 को एबी बोफोर्स के एजेंट विन चड्ढा, क्वात्रोकी, तत्कालीन रक्षा सचिव एस.के.भटनागर और बोफोर्स कंपनी के प्रेजिडेंट मार्टिन कार्ल आर्डबो के खिलाफ पहला आरोपपत्र दाखिल किया गया।
मार्च-सितंबर 2000 को सुनवाई के लिए चड्ढा भारत आया। उसने चिकित्सा उपचार के लिए दुबाई जाने की अनुमति मांगी थी लेकिन उसकी मांग खारिज कर दी गई।
हिंदुजा बंधुओं का मामले में प्रवेश
इस मामले में नया मोड़ तब आया जब हिंदुजा बंधुओं ने सितंबर-अक्टूबर 2000 में लंदन में एक बयान जारी करके कहा कि उनके द्वारा जो फंड आवंटित किया गया, उसका बोफोर्स डील से कोई लेना-देना नहीं था। लेकिन इसी बीच दिसंबर 2000 को क्वात्रोकी को मलयेशिया में गिरफ्तार कर लिया गया लेकिन बाद में जमानत दे दी गई। जमानत इस शर्त पर दी गई थी कि वह शहर नहीं छोड़ेगा।
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अत्यंत उलझे हुए इस मामले में अगस्त 2001 को तत्कालीन रक्षा सचिव एस के भटनागर की कैंसर से मौत हो गई। दिसंबर 2002 में भारत ने क्वात्रोकी के प्रत्यर्पण की मांग की लेकिन मलयेशिया के हाई कोर्ट ने आग्रह को खारिज कर दिया। इसके बाद जुलाई 2003 को भारत ने यूके को लेटर ऑफ रोगैटरी भेजा और क्वात्रोकी के बैंक खाते को जब्त करने की मांग की।
राजीव-भटनागर बरी
लेकिन इस मामले में बड़ा बड़ा मोड़ 2004 में तब आया जब कोर्ट ने स्वर्गीय राजीव गांधी और भटनागर को मामले से बरी कर दिया। मलयेशिया के सुप्रीम कोर्ट ने भी क्वात्रोकी के प्रत्यर्पण की भारत की मांग को खारिज कर दिया।
इसके बाद मई-अक्टूबर 2005 को दिल्ली हाई कोर्ट ने हिंदुजा बंधु और एबी बोफोर्स के खिलाफ आरोपों को खारिज कर दिया क्योंकि 90 दिनों की अनिवार्य अवधि में सीबीआई ने कोई अपील दाखिल नहीं की थी।
जनवरी 2006 को सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार और सीबीआई को निर्देश दिया कि क्वात्रोकी के खातों के जब्त करने पर यथा स्थिति बनाए रखी जाए लेकिन उसी दिन पैसा निकाल लिया गया। इसके बाद 2007 में इंटरपोल ने अर्जेंटीना में क्वात्रोकी को गिरफ्तार कर लिया लेकिन तीन महीने बाद अर्जेंटीना के कोर्ट ने प्रत्यर्पण के भारत के आग्रह को खारिज कर दिया।
बाद में सीबीआई ने 2009 में क्वात्रोकी के खिलाफ जारी रेड कॉर्नर नोटिस को वापस ले लिया चूंकि प्रत्यर्पण का बार-बार का प्रयास विफल हो गया था इसलिए मामले को बंद करने की सुप्रीम कोर्ट से अनुमति मांगी।
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लेकिन दिसंबर 2010 में कोर्ट ने क्वात्रोकी को बरी करने की सीबीआई की याचिका पर फैसले को पलट दिया। इनकम टैक्स ट्राइब्यूनल ने क्वात्रोकी और चड्ढा के बेटे से उन पर बकाया टैक्स वसूलने का इनकम टैक्स डिपार्टमेंट को निर्देश दिया।
अमिताभ के खिलाफ भी साक्ष्य नहीं
स्वीडन पुलिस ने अप्रैल 2012 में कहा कि राजीव गांधी और अमिताभ बच्चन द्वारा रिश्वतखोरी का कोई साक्ष्य नहीं है। गौरतलब है कि अमिताभ बच्चन पर भी रिश्वतखोरी में शामिल होने के मीडिया रिपोर्ट्स में आरोप लगाये गये थे। इसके बाद उनके खिलाफ भी मामला दर्ज कर लिया गया था लेकिन बाद में उनको भी निर्दोष करार दे दिया गया।
1993 में भारत से फरार क्वात्रोकी की भी मौत हो गई। तब तक अन्य आरोपी जैसे भटनागर, चड्ढा और आर्डबो की भी मौत हो चुकी थी।
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