यादें राहत इंदौरी की: 'मैं बच भी जाता तो एक रोज मरने वाला था'
3-4 दिनों से कुछ उलझन होने के बाद डॉक्टरों की सलाह पर जब उनका एक्स-रे कराया गया तो निमोनिया की पुष्टि हुई। इसके बाद कोरोना जांच कराने पर वे पॉजिटिव निकले।
अंशुमान तिवारी
नई दिल्ली: देश-दुनिया के मुशायरों की जान राहत इंदौरी नहीं रहे। मुशायरों की न जाने कितनी महफिलों में उन्होंने अपने बेबाक अंदाज से सबका दिल जीता था। निमोनिया और कोरोना के दोहरे संक्रमण के कारण मकबूल शायर राहत इंदौरी की आवाज हमेशा के लिए खामोश हो गई। शायरी में तनिक भी दिलचस्पी रखने वालों के लिए यह खबर किसी भारी झटके से कम नहीं है। मगर राहत साहब ने तो बहुत पहले ही लिख दिया था -
ये हादसा तो किसी दिन गुजरने वाला था।
मैं बच भी जाता तो एक रोज मरने वाला था।
बेहद मुफलिसी में गुजरा बचपन
1950 में एक जनवरी को पैदा होने वाले राहत आगे चलकर हिंदुस्तान की जनता की आवाज बन गए और हर मुद्दे पर उनकी बेबाक शायरी लोगों के दिलों में उतरती रही। उनके पिता रिफअत उल्लाह 1942 में देवास जिले से इंदौर रहने के लिए आए थे। उस समय उनके पिता ने सपने में भी यह बात नहीं सोची होगी कि एक दिन उनका बेटा इस शहर की सबसे बेहतरीन पहचान बन जाएगा। बचपन में उनका नाम कामिल रखा गया था।
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लेकिन बाद में उनका नाम बदलकर राहत उल्लाह कर दिया गया। राहत का बचपन बेहद मुफलिसी में गुजरा और उनके पिता को ऑटो तक चलाना पड़ा। बाद में राहत के पिता एक मिल में नौकरी करने लगे। मगर दूसरे विश्व युद्ध के कारण मिल भी बंद हो गई। दूसरे कर्मचारियों की तरह राहत के पिता पर भी छंटनी की तलवार चल गई। हालत यह हो गई कि राहत के परिवार से छत भी छिन गई।
बचपन से ही शायरी में दिलचस्पी
बचपन से ही पढ़ने लिखने के शौकीन राहत ने छोटी उम्र से ही मुशायरा में कलाम पढ़ना शुरू कर दिया था। राहत जिस स्कूल में पढ़ाई किया करते थे, उसी स्कूल में एक मुशायरे के दौरान उस समय के प्रसिद्ध शायर जानिसार अख्तर भी आए थे। राहत ने जब उनसे शेर पढ़ने की ख्वाहिश जताई तो जानिसार अख्तर ने उन्हें पहले कम से कम पांच हजार शेर याद करने की हिदायत दी।
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राहत ने जब पांच हजार शेर याद होने की बात कही तो जानिसार अख्तर ने राहत को ऑटोग्राफ देते हुए अपने शेर का पहला मिसरा लिखा- हम से भागा ना करो दूर गजलो की तरह। फिर राहत ने दूसरा मिसरा तुरंत सुनाया- हमने चाहा है तुम्हें, चाहने वालों की तरह।
उर्दू साहित्य में पीएचडी थे राहत
इंदौर के नूतन स्कूल में प्रारंभिक पढ़ाई के बाद राहत में इस्लामिया कारीमिया कॉलेज इंदौर से अपनी स्नातक की पढ़ाई पूरी की। बाद में उन्होंने बरकतुल्लाह विश्वविद्यालय, भोपाल से उर्दू साहित्य में किया। राहत ने एमए तो 1975 में ही कर लिया था। मगर उन्होंने 1985 में मध्य प्रदेश भोज मुक्त विश्वविद्यालय से उर्दू साहित्य में पीएचडी की उपाधि हासिल की। आर्थिक दिक्कतों के कारण राहत को अपने शुरुआती दिनों में काफी मुसीबतों का सामना करना पड़ा था।
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कम ही लोगों को इस बात की जानकारी है कि चित्रकारी में राहत की काफी दिलचस्पी थी और उन्होंने इंदौर में साइन बोर्ड पेंटर के रूप में भी काम किया। उनकी प्रतिभा, डिजाइन कौशल और शानदार रंग भावना के कारण उन्होंने इस क्षेत्र में भी काफी प्रसिद्धि हासिल की थी और ग्राहकों को उनसे साइन बोर्ड रंगवाने के लिए लंबा इंतजार भी करना पड़ता था।
मुशायरों की जान थे राहत साहब
अपने बाद के दिनों में जब राहत ने मुशायरों में हिस्सा लेना शुरू किया तो वह सबके दिलों पर राज करने लगे। जिन मुशायरों में राहत साहब पहुंचते थे तो लोगों को बांधे रखने के लिए उन्हें सबसे आखिर में बुलाया जाता था। उन्हें सुनने के लिए भीड़ आखिरी तक मुशायरे में जमी रहती थी।
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राहत के शेर सुनाने का अंदाज ही सबसे अलग था और उनके जोरदार शेर और उसे सुनाने का अलग अंदाज लोगों को इतना भाता था कि लोग वाह-वाह कर उठते थे। उनके निधन पर प्रसिद्ध कवि कुमार विश्वास ने ट्वीट करते हुए कहा कि सागर इतनी खामोशी से विदा होगा कभी सोचा न था। शायरी के मेरे सफर और काव्य जीवन के ठहाकेदार किस्सों का एक बेहद जिंदादिल हमसफर हाथ छुड़ाकर चला गया।
कई फिल्मों में लिखे गीत
राहत इंदौर सिर्फ मुशायरों तक ही सीमित नहीं थे। राहत साहव ने मुशायरों के साथ ही कई फिल्मों में भी अपने गीतों से लोगों का दिल जीता। राहत ने मुन्ना भाई एमबीबीएस, मीनाक्षी, नाराज मर्डर, मिशन कश्मीर, खुद्दार, बेगम जान, करीब, घातक, इश्क, सर, मैं तेरा आशिक और आशियां जैसी अनेक फिल्मों में गीत लिखे। हिंदी शायरी की तरह ही उनके गीतों में भी उनका अलग अंदाज देखता है।
कोरोना से हो गए थे संक्रमित
राहत इंदौरी के बेटे और युवा शायर सतलज राहत ने बताया कि कोरोना संकट काल में राहत साहब काफी सतर्क थे और पिछले 4 महीने से सिर्फ नियमित जांच के लिए ही घर से बाहर निकलते थे। चार-पांच दिनों से उन्हें बेचैनी महसूस हो रही थी। डॉक्टरों की सलाह पर जब उनका एक्स-रे कराया गया तो निमोनिया की पुष्टि हुई। इसके बाद कोरोना जांच कराने पर वे पॉजिटिव निकले।
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इसके साथ ही राहत को दिल की बीमारी के साथ ही डायबिटीज भी थी। अरविंदो अस्पताल के डायरेक्टर विनोद भंडारी ने बताया कि उन्हें मंगलवार की शाम दिल का जबर्दस्त दौरा पड़ा। उसके बाद एक बार उन्होंने वापसी भी की मगर उसके बाद फिर हार्टअटैक ने उनकी जान ले ली।
राहत साहब के चर्चित शेर
राहत साहब तो चले गए मगर उनके शेर लोगों की जुबान पर हमेशा जिंदा रहेंगे। राहत साहब ने अपनी जिंदगी में इतने बेहतरीन शेर लिखे कि लोग अक्सर एक दूसरे को वे शेर सुनाया करते हैं। ऐसे में लोगों की जुबान पर राज करने वाले राहत के कुछ शेरों पर गौर फरमाना जरूरी है।
बहुत गुरूर है दरिया को अपने होने पर।
जो मेरी प्यास से उलझे तो धज्जियां उड़ जाए।
प्यास तो अपनी सात समंदर जैसी थी।
नाहक में बारिश का अहसान लिया।
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रोज तारों को नुमाइश में खलल पड़ता है।
चांद पागल है अंधेरे में निकल पड़ता है।
मैं आखिर कौन सा मौसम तुम्हारे नाम कर देता।
यहां हर एक मौसम को गुजर जाने की जल्दी थी।
दोस्ती जब किसी से की जाए।
दुश्मनों की भी राय ली जाए।
उसकी याद आई है सांसों में जरा आहिस्ता चलो।
धड़कनों से भी इबादत में खलल पड़ता है।
मेरी ख्वाहिश है कि आंगन में ना दीवार उठे।
मेरे भाई मेरे हिस्से की जमीन तू रख ले।
शाखों से टूट जाएं वह पत्ते नहीं हैं हम।
आंधी से कोई कह दे कि औकात में रहे।
हम से पहले भी मुसाफिर कई गुजरे होंगे।
कम से कम राह के पत्थर तो हटाते जाते।
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सरहदों पर तनाव है क्या।
जरा पता तो करो चुनाव है क्या।
शहरों में तो बारूदों का मौसम है।
गांव चलो अमरूदों का मौसम है।
तूफानों से आंख मिलाओ सैलाबों पे वार करो।
मल्लाहों का चक्कर छोड़ो, तैर कर दरिया पार करो।
फूलों की दुकानें खोलो, खुशबू का व्यापार करो।
इश्क खता है तो ये खता, एक बार नहीं सौ बार करो।