कभी समाज ने अछूत मान कर दुत्कारा, अब हर कोई करता है इनके साहस को सलाम

7 साल की उम्र में मैला उठाने वाली ऊषा की उनके घर वालों ने 10 वर्ष की उम्र में शादी कर दी। लेकिन ससुराल में भी वो यही काम करती रहीं।

Update: 2020-05-14 11:35 GMT

कोई भी काम बड़ा या छोटा नहीं होता। लेकिन समाज और उसके लोग कामों को बड़ा छोटा बनाते हैं। हम खुद ही तय कर लेते हैं कि ये कम बड़ा है और ये काम छोटा है। कई बार लोग समाज के इन तानों से और बातों से तंग आ जाते हैं लेकिन जो लोग अपने दृढ निश्चय के साथ समाज की परवाह किए बिना अपना काम करते रहते हैं। वो ही लोग आगे चल कर कुछ बड़ा करते हैं और अपना और देश दोनों का नाम ऊंचा करते हैं। ऐसी ही है एक दलित महिला उषा चौमार की कहानी। जिन्हें मोदी सरकार द्वारा पद्मश्री भी मिल चुका है। ऊषा 7 साल की उम्र से मैला यानी की गंदगी ढोतीं थीं। लेकिन सुलभ इंटरनेशनल के एनजीओ 'नई दिशा' ने उन्हें इस जिंदगी से आजादी दिलाई।

7 साल से ढोती मैला, समाज ने अछूत मान कर लिया था किनारा

सरकार द्वारा पद्म्श्री से सम्मानित राजस्थान के अलवर की रहनेवाली ऊषा चौमार। 7 वर्ष की आयु से मैला ढोतीं थीं। लेकिन आज वो देश में समाज में जातिवाद और भेदभाव के खिलाफ लड़ाई लड़ रहीं हैं। और जो उनके साथ हुआ वो आगे किसी और के साथ न हो सके इसके लिए एक जंग लड़ रहीं हैं। 7 साल की उम्र में मैला उठाने वाली ऊषा की उनके घर वालों ने 10 वर्ष की उम्र में शादी कर दी। लेकिन ससुराल में भी वो यही काम करती रहीं। उषा खुद बताती हैं कि ऐसा करने के बाद घर आकर न तो खाना बनाने की इक्षा होती थी और न ही खाने की। ऊषा ने कई सालों तक मैला उठाने की कुप्रथा के साथ अपना जीवन गुजारा।

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कुप्रथा ने ना सिर्फ उन्हें एक अछूत की जिंदगी काटने पर मजबूर कर दिया, बल्कि उनकी पूरी जिंदगी पर बुरा प्रभाव भी डाला। अपने इस काम को लेकर उन्हें इतना बुरा महसूस होता था कि कई बार वह काम से लौटने के बाद खाना तक नहीं खा पाती थी। लोग उन्हें छूते नहीं थे, ना ही दुकान से सामान खरीदने देते थे। मंदिर और घरों तक में घुसने की इजाजात नहीं थी। उषा कहती है कि इंसान के मैले को हर सुबह उठाकर फेंकने के काम को कौन करना चाहेगा, वो भी खुद अपने हाथों से। ये सिर्फ काम नहीं हमारी जिंदगी बन गया था। लोग हमें भी कचरे की तरह समझने लगे थे।"

'नई दिशा' से मिली नई दिशा

ऊषा की ही तरह कई लोग ऐसे ही अपना पूरा जीवन इसी तरह बिता देते है। लेकिन वह उन लोगों में से नहीं थीं, वो एक मौके की तलाश में थी, जो उन्हें सुलभ इंटरनेशनल के एनजीओ नई दिशा ने दिया। इस संस्था ने उन्हें एक सम्मानपूर्ण जिंदगी जीने का अवसर दिया, जिसके बाद उषा ने कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा। संस्था से जुड़ने के बाद उन्होंने सिलाई, मेंहदी तैयार करने जैसे काम सीखे।

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इस संस्था से जुड़ने के बाद ही ऊषा ने अंग्रेजी भी सीखी अब ऊषा शानदार तरीके से अंग्रेजी में भी बात कर लेती हैं। अब उषा ना केवल एक प्रभावशाली वक्ता बन गईं, बल्कि उन्होंने मैला ढोने जैसी कुप्रथा के खिलाफ अपनी आवाज भी उठाई। दुनिया भर में घूम-घूमकर महिलाओं को प्रेरित भी किया। आज वह सुलभ इंटरनेशनल संस्था की अध्यक्ष भी हैं।

समाज से ख़त्म करना चाहती हैं ये कुप्रथा

सुलभ इंटरनेशनल से जुड़ने के बाद जो ऊषा कभी अपने शहर के बाहर नहीं गईं थीं अब वो अमेरिका अफ्रिका जैसे कई देशों में घूम चुकी हैं। पद्मश्री ऊषा का कहना है कि अब वो समाज से इस कुप्रथा को ख़त्म करना चाहती हैं। ताकि जो व्यवहार उनके साथ हुआ वो किसी और के साथ न हो सके। जो कष्ट उन्होंने सहे वो कोई और न सहे। एक महिला जो कभी खुद के अधिकार के लिए खड़े नहीं हो पाती थी,आज वो देश के सैकड़ों मैला ढोने वाले लोगों की आवाज बन गई है।

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एक कमजोर और अछूत महिला से आत्मविश्वासी और सम्मानजनक जीवन जी रहीं उषा महिला सशक्तिकरण का एक उदाहरण बन के उभरी हैं। उनकी इच्छा है इस कुप्रथा को समाज से जड़ से उखाड़ फेंकने की। यह आसान काम तो नहीं। उनके इसी जज्बे और साहस को सलाम करते हुए भारत सरकार ने 2020 के पद्म पुरुस्कारों की घोषणा में ऊषा को पद्मश्री से नवाजा है।

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