पाकिस्तान की वो लड़की जिसको 'मिर्ज़ा ग़ालिब' की बेटी कहा गया...

साल 1952 में 24 नवंबर को पाकिस्तान के कराची में पैदा हुई परवीन बचपन से ही लिखने का शौक़ रखती थी। इनके पिता सैयद साक़िब हुसैन भी शायर थे।

Update: 2020-06-13 08:53 GMT

 

 

शाश्वत मिश्रा

हिंदुस्तान में कई तरक्कीपसंद शायरों ने जन्म लिया। उन्हें काफ़ी शोहरत मिली। उनके कलाम आज भी लोग पढ़ते हैं। लेकिन किसी ने कभी ऐसा न सुना होगा कि पाकिस्तानी शायर की ग़ज़लों, नज़्मों और शे'रों के चर्चे इतने ज़्यादा हो गए कि कहा गया- "अग़र मिर्ज़ा ग़ालिब की कोई बेटी होती तो परवीन शाकिर जैसी होती।"

दो घड़ी की चाहत में लड़कियां नहीं खुलती

हुस्न के समझने को उम्र चाहिए जानाँ

दो घड़ी की चाहत में लड़कियाँ नहीं खुलतीं।

वो तो ख़ुश-बू है हवाओं में बिखर जाएगा

मसअला फूल का है फूल किधर जाएगा।

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इससे बड़ी तारीफ़ किसी लिखने वाले के लिए नहीं हो सकती थी। इसको कहने का माद्दा रखा; अपने ज़माने के मशहूर शायर डॉ. बशीर बद्र ने। दरअसल, उस समय हिंदुस्तान में परवीन शाकिर की नज़्मों और ग़ज़लों को काफ़ी मकबूलियत मिल रही थी। बड़े शायरों से लेकर ग़ज़लों-नज़्मों को पढ़ने व लिखने वाले परवीन शाकिर की तारीफ़ों के पुल बाँधने से पीछे नहीं हटते थे।

मैं सच कहूँगी मगर फिर भी हार जाऊँगी

वो झूट बोलेगा और ला-जवाब कर देगा।

कैसे कह दूँ कि मुझे छोड़ दिया है उस ने

बात तो सच है मगर बात है रुस्वाई की।

बचपन से ही था लिखने का शौक

परवीन शाकिर की लिखावट में वो जादू है जिसको पढ़कर कोई भी उनका दीवाना हो चले। परवीन की शायरियों, नज़्मों और ग़ज़लों में उनके दोशीज़ा से लेकर माँ बनने तक की कहानी का हाल-ए-ज़िक्र मिलता है। इनकी नज़्मों में विरह भी दबी आवाज़ में सांसें भरता है। इन्होंने ताउम्र लड़कियों का प्रतिनिधित्व किया और उनकी बातें रवां रखी।

अब तो इस राह से वो शख़्स गुज़रता भी नहीं

अब किस उम्मीद पे दरवाज़े से झाँके कोई।

इक नाम क्या लिखा तिरा साहिल की रेत पर

फिर उम्र भर हवा से मेरी दुश्मनी रही।

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साल 1952 में 24 नवंबर को पाकिस्तान के कराची में पैदा हुई परवीन बचपन से ही लिखने का शौक़ रखती थी। इनके पिता सैयद साक़िब हुसैन भी शायर थे। उनका उपनाम शाकिर था, इसी निस्बत से परवीन भी शाकिर लगाती थीं। इनके पूर्वज चंदन पट्टी,लहेरिया सराय, जिला दरभंगा (बिहार) भारत के रहने वाले थे। विभाजन के बाद उनके माता पिता पाकिस्तान चले गये।

हम तो समझे थे कि इक ज़ख़्म है भर जाएगा

क्या ख़बर थी कि रग-ए-जाँ में उतर जाएगा।

बस ये हुआ कि उस ने तकल्लुफ़ से बात की

और हम ने रोते रोते दुपट्टे भिगो लिए।

1982 में बनीं कस्टम कलेक्टर

परवीन की पहली नज़्म पंद्रह साल की उम्र में दैनिक जंग में प्रकाशित हुई। उस वक़्त वो मीना के उपनाम से लिखती थीं। जिसके बाद 1968 में जामिया कराची से अंग्रेजी साहित्य और लिंग्विस्टिक्स अर्थात भाषा-विज्ञान में एम.ए. किया। 1971 में परवीन ने जंग में ज़रा-ए-इबलाग़ के किरदार (युद्ध में मीडिया की भूमिका) के विषय पर डॉक्टर की उपाधि ली। उसके बाद अमेरिका जाकर हार्वर्ड विश्वविद्यालय बैंक एड्मिनिसट्रेशन में एम.ए. किया। लौटकर आने पर अब्दुल्लाह गर्ल्स कॉलेज में अंग्रेजी की व्याख्याता हुईं।

कमाल-ए-ज़ब्त को ख़ुद भी तो आज़माऊँगी

मैं अपने हाथ से उस की दुल्हन सजाऊँगी।

बहुत से लोग थे मेहमान मेरे घर लेकिन

वो जानता था कि है एहतिमाम किस के लिए।

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फिर साल 1982 में सिविल सेवा परीक्षा में सफल होकर कस्टम कलेक्टर बनीं। इसकी प्रवेश परीक्षा में एक ऐसा सवाल आया था जिसका जवाब उनका ही नाम था। ये परवीन शाकिर के लिए काफ़ी गौरव भरा क्षण था।

लड़कियों के दुख अजब होते हैं सुख उस से अजीब

हँस रही हैं और काजल भीगता है साथ साथ।

काँप उठती हूँ मैं ये सोच के तन्हाई में

मेरे चेहरे पे तिरा नाम न पढ़ ले कोई।

1994 में सड़क दुर्घटना में हुई मौत

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उनकी शादी उनके मौसी के बेटे डॉ. नसीर अली से हुई, लेकिन 1989 में वो अलग हो गईं। इन्होंने अपने बेटे का नाम सैयद मुराद अली रखा, जिसे गितु भी बुलाते थे। परवीन, अहमद नदीम कासमी से बेहद प्रभावित थीं और उन्हें अम्मू जान कहा करती थीं। पहली किताब खुशबू उन्हीं के नाम पर है।

उस के यूँ तर्क-ए-मोहब्बत का सबब होगा कोई

जी नहीं ये मानता वो बेवफ़ा पहले से था।

राय पहले से बना ली तू ने

दिल में अब हम तिरे घर क्या करते।

26 दिसंबर 1994 को इस्लामाबाद के निकट फैसल चौक पर एक बस की टक्कर से उनकी सड़क दुर्घटना में मृत्यु हो गयी। बाद में पाकिस्तान की सरकार ने उस सड़क का नाम परवीन शाकिर रोड कर दिया। उन्हें पाकिस्तान के सर्वोच्च सम्मानों में से एक 'प्राइड ऑफ़ परफ़ोर्मेंस' से सम्मानित किया गया। इन्होंने ख़ुशबू, ख़ुदकलामी, इंक़ार, सदबर्ग जैसे संग्रह लिखे।

मुमकिना फ़ैसलों में एक हिज्र का फ़ैसला भी था

हम ने तो एक बात की उस ने कमाल कर दिया।

उस ने मुझे दर-अस्ल कभी चाहा ही नहीं था

ख़ुद को दे कर ये भी धोका, देख लिया है।

मैं उस की दस्तरस में हूँ मगर वो

मुझे मेरी रज़ा से माँगता है।

देने वाले की मशिय्यत पे है सब कुछ मौक़ूफ़

माँगने वाले की हाजत नहीं देखी जाती।

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गवाही कैसे टूटती मुआमला ख़ुदा का था

मिरा और उस का राब्ता तो हाथ और दुआ का था।

मसअला जब भी चराग़ों का उठा

फ़ैसला सिर्फ़ हवा करती है।

सिर्फ़ इस तकब्बुर में उस ने मुझ को जीता था

ज़िक्र हो न उस का भी कल को ना-रसाओं में।

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