कुसुम कांगरू में थी बर्फ की तीन देवियां, चढ़ाई में आई थी कई चुनौतियां

Update: 2016-07-18 09:47 GMT

Govind Pant Raju

लखनऊ: दोस्तों, आशा करता हूं कि मेरी यात्रा की अब तक की कहानी आप लोगों को जरूर पसंद आई होगी फिर वह चाहे दूधकोसी के दर्शन हों या फिर लुकला एअरपोर्ट के ऊपर हवाई यात्रा का रोमांचक सफर खैर बताते हैं आपको आगे की यात्रा के बारे में लुकला से फाकडिंग तक की यात्रा बेहद आनन्द दायक है। इस पूरी यात्रा में हम लगभग दूधकोशी नदी के आसपास ही रहे।

( राइटर दुनिया के पहले जर्नलिस्ट हैं, जो अंटार्कटिका मिशन में शामिल हुए थे और उन्होंने वहां से रिपोर्टिंग की थी।)

मार्ग में कभी दूधकोशी का लयबद्ध गर्जन अपना संगीत सुनाता था तो कभी नजदीक के पेड़ों पर चहचहाते पक्षियों का पुलकित कर देने वाला कलरव। पूरी सोलखुम्भू घाटी में सर्वाधिक आबाद गांव इसी इलाके में हैं, इसलिए थोड़ी-थोड़ी दूरी पर मिलने वाले गांव, उनमें बने टी हाउस और बौद्ध प्रतीक यात्रा की थकान को एकदम मिटा देते हैं।

प्रायः हर गांव में प्रवेश करने से पूर्व या गांव के भीतर एक या दो जगहों पर मार्ग के बीचों बीच एक बड़े शिलाखण्ड या एक टीलेनुमा स्थान पर रखे गऐ पत्थरों के चैकोर टुकड़ों के ढेर पर तिब्बती भाषा में कलात्मक ढंग से उकेरे गए मंत्रों और स्मृति वाक्यों से बने हुए स्मारक मिलते हैं। इन्हें बहुत पवित्र माना जाता है और इनसे आगे जाने का भी एक नियम है।

इनसे हमेशा ‘क्लॉक वाइज’ यानी घड़ी की सुईयों के घूमने की दिशा में ही आगे जाया जाता है। यानी अगर जाते समय आप इनके दाई ओेर से निकलते हैं तो वापस आते समय बाई ओर से निकलना होता है। ऐसा माना जाता है कि इन स्मारकों की पवित्रता का सम्मान करने वाले के मार्ग में बाधाएं नहीं आतीं। इस इलाके में एक दो छोटे मठ भी हैं। हालांकि इलाके के ज्यादातर मठ ऊपरी सोलखुम्भू में ही हैं।

यात्रा का पहला दिन हम लोगों के लिए कई तरह से महत्वपूर्ण था। सबसे पहले तो आज हमारे जूतों और हमारे पैरों के बीच तालमेल की परीक्षा होनी थी। पहाड़ों में यात्राओं के लिए अच्छा जूता जितनी जरूरी चीज है, आपके पांव से उसका तालमेल भी उतना ही जरूरी है। हम लोग अपने अपने जूतों को पहले कुछ दिन पहन चुके थे, लेकिन पहाड़ों में चलते समय पैरों पर पड़ने वाला दबाव कहां-कहां छाले पैदा करने वाला है इसका पता हमें आज ही चलने वाला था।

हालांकि आज हमें लुकला से लगभग 300 मीटर कम ऊंचाई वाले फाकडिंग तक पहुंचना था मगर इसके लिए मार्ग में हमें 3800 मीटर की ऊंचाई तक चढ़ना उतरना था। इसलिए आज हमें अपने फेफड़ों की मजबूती का भी अहसास होना था। इसलिए पहले दिन की 14 किलोमीटर की यात्रा हमारे लिए खास मायने रखती थी। राजेन्द्र के लिए यह अपने मोबाइल और सोनी कैमरा के साथ साथ पहली बार इस्तेमाल में आ रहे गो प्रो कैमरा के साथ हाथ आजमाने का मौका था तो अरूण अपने निकॉन कैमरा के साथ मोबाइल कैमरा इस्तेमाल में व्यस्त था।

हालांकि उसका मोबाइल अभी भी फोन मोड में ही अधिक काम आ रहा था। ताशी भी अपने मोबाइल कैमरे के साथ खूब तस्वीरें खींचता जा रहा था। मगर पहले दिन की यह मस्ती उसे काफी भारी पड़ी क्योंकि एक बार हाथ से गिर जाने के बाद उसका मोबाइल जो खराब हुआ तो फिर ठीक नहीं हो पाया।

इस मार्ग में हमें एवरेस्ट क्षेत्र की पहचान माने जाने वाले लोहे के कई झूला पुलों से गुजरने का अवसर मिलने वाला था। हालांकि ऐसा पहला मौका हमें दूध कोशी पर नहीं उसकी एक छोटी सहायक नदी पर मिला। लोहे के यह झूला पुत्र अर्ध चन्द्रकार से होते हैं। पहले थोड़ा ढलान और फिर बीच में पहुंच कर हल्की चढ़ाई। प्रायः हर झूला पुल पर अनेक तिब्बती झण्डियां और शुभांकर पताकाएं बंधी होती हैं जो इन पुलों से सकुशल पार कर लेने की कामना के लिए बांधी जाती हैं।

सुरक्षा के लिहाज से ये पुल बहुत ही सुरक्षित होते हैं क्योंकि इन से होकर भार से लदी याक और खच्चर भी गुजरते हैं इसलिए ये दोनों तरफ से लोहे की रस्सियों से घिरे होते हैं। इन पुलों पर से गुजरना बेहद रोमांचक अनुभव होता है, जिसे पुल के बीच के हिस्से में चलने वाली तेज हवाएं और भी रोमांचक बना देती हैं। 1953 में अपने एवरेस्ट अभियान के लिए हिलेरी के साथियों को ऐसे पुल नहीं मिले थे और उनके लिए यह यात्रा भी एक बड़ी चुनौती थी। बहरहाल रास्ते में हर ढंग से प्रकृति के विभिन्न रूपों को आत्मसात करते हुए जब हम दोपहर करीब डेढ़ बजे फाकडिंग पहुंचे तो हमें इस बात का संतोष था कि पहले दिन की परीक्षा में हम सफल हो गए हैं। आज के दिन की एक और उपलब्धि थी।

‘कुसुम कांगरू’ पर्वतशिखर के दर्शन। लुकला से एवरेस्ट की ओर जाने के मार्ग में दिखाई पड़ने वाला कुसुम कांगरू पहला हिम शिखर है। 6,367 मीटर मीटर ऊंचे इस हिम शिखर को इसके तीन शिखरों के कारण स्थानीय लोग ’बर्फ की तीन देवियां’ भी कहते हैं। इस पर्वत शिखर को बहुत दुर्गम माना जाता है। इस पर पहला सफल आरोहण अक्टूबर 1981 में हुआ था। इसे ट्रैकिंग पीक माना जाता है लेकिन इसका आरोहण काफी कठिन है हालांकि यह बहुत आकर्षक पर्वत षिखर है। कुसुम कांगरू से हमारा रिश्ता अब आगे लम्बे समय तक होना था और इसकी भव्य सुन्दरता हमें चकित कर गई थी।

गोविन्द पंत राजू

 

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