'प्राईवेसी रूलिंग' सुप्रीम कोर्ट ने लकीरें खींचकर कई मौजूदा कानूनों पर खड़े किए सवाल
उमाकांत लखेड़ा
नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने देश के नागरिकों की प्राईवेसी पर अपनी नजीर में जो आदेश दिए हैं, उनके विभिन्न आयामों पर देश भर में नई बहस छेड़ दी है। भारत के पूर्व अटॉर्नी जनरल मुकुल रोहतगी ने यह इशारा करके सुप्रीम कोर्ट पीठ पर सवाल उठाए हैं कि यदि आए दिन सुप्रीम कोर्ट द्वारा लोगों के बुनियादी अधिकारों पर नए नए तरीकों से रूलिंग होती रहेगी, तो इससे कानून बनाने वाली देश की सर्वोच्च संवैधानिक संस्था यानी संसद के कार्यक्षेत्र पर अतिक्रमण होगा।
उनकी तरह देश के कई और न्यायविद भी लोगों के निजता के अधिकार पर स्वतंत्र तरीके से बहस की जरूरत पर जोर दे रहे हैं। मौजूदा रूलिंग इस लिहाज से भी अहम है क्योंकि 2013 में सर्वोच्च अदालत ने समलैंगिकता के अधिकार को यह कहते हुए निरस्त कर दिया था कि इस तरह के कानूनों में बदलाव लाना संसद का काम है अदालत का नहीं। बता दें कि समलैंगिक सेक्स में लिप्त पाए गए लोगों को अधिकतम आजीवन की सजा का प्रावधान है। जबकि 2009 में दिल्ली हाईकोर्ट कोर्ट ने गे सेक्स को मौलिक अधिकार मानते हुए उसे निजता का मामला बताकर समलैंगिकता के अधिकार को सही ठहराया था।
तीन बरस पूर्व सुप्रीम कोर्ट की रूलिंग के बाद ही समलैंगिकता के पक्षधर कई लोगों ने भारत के मुख्य न्यायाधीश के समक्ष पुनरविचार याचिका पेश की थी, जिसमें अनुच्छेद 377 को यह कहते हुए चुनौती दी गई थी कि यह लोगों की प्राईवेसी के अधिकार का उल्लंघन है। हालांकि यह याचिका अभी भी लंबित है लेकिन सुप्रीम कोर्ट के आज के फैसले से समलैंगिकता के पक्ष में दलीलें पेश करने वालों का पक्ष मजबूत होता दिख रहा है।
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विशेषज्ञों की नजर में आज के फैसले में दूसरा अहम पक्ष जस्टिस जे चमलेश्वर का है, जो उन्होंने गर्भपात के अधिकार को मौलिक और निजता का अधिकार माना है। उन्होंने यह कहते हुए गर्भधारण कर चुके अविवाहित व विवाहित लोगों के मन में उम्मीदें जगा दी हैं, जो अनचाहा गर्भधारण समय से पहले गिराना चाहते हैं। ज्ञात रहे कि हाल में ऐेसे कई मामले आए जब बलात्कार की शिकार किशोरियों को गर्भपात की आज्ञा नहीं दी गई और उन्हें न चाहते हुए भी अपने गर्भ में पल रहे भ्रूण को सुप्रीम कोर्ट के कड़े आदेश के बाद जन्म देने को विवश होना पड़ा है। चंडीगढ़ की एक 10 वर्षीय अबोध बच्ची के मां बनने का हाल का प्रकरण इस मामले में ताजा उदाहरण है।
कानूनविदों का मानना है कि आज की रूलिंग के बाद अब गेंद एक तरह से संसद के पाले में चल गई है क्योंकि प्राईवेसी के अधिकार को जिंदा रहने के अधिकार से जोड़कर सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने कई तरह के कानूनी अंतर्विरोधों को जन्म दे दिया है।
सबसे अहम मामला आज के आदेश में यह भी उभरकर सामने आया है कि कोर्ट ने 2013 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा समलैंगिकता की बाबत निजता के अधिकार को निरस्त करने के कदम को गलत फैसला करार दे दिया। जस्टिस चंद्रचूर्ण की इस टिप्पणी पर पर नई बहस छिड़ चुकी है कि प्राइवेसी का अधिकार किसी भी नागरिक को प्रचार से दूर रखता है क्योंकि निजता के इस मौलिक अधिकार से किसी को वंचित नहीं रखा जा सकता।