विश्व का सबसे उदास स्मृति स्थल है थुकला पास, चढ़ी सबसे थकान वाली चढ़ाई

Update:2016-08-06 14:03 IST

Govind Pant Raju

लखनऊ: जैसे-जैसे हम एवरेस्ट की ओर बढ़ रहे थे। हमें बस एक ही गाना याद आ रहा था ‘कदम-कदम बढ़ाए जा, ख़ुशी के गीत गाए जा’ । खैर इससे पहले की यात्रा का मजा तो आप ले ही चुके हैं और अब आपको हम दिंगबोचे के बारे में बताते हैं। दिंगबोचे की सुबह बहुत ठंडी होती हैं। दरअसल यह पूरी घाटी खुली हुई है और ऊपर हिमशिखरों से बहकर आने वाली ठंडी हवाएं इसे और भी ठंडी बना देती हैं। हमें यहां से करीब 500 मीटर एकदम ऊपर चढ़ना था। जहां से फिर लगातार हल्की चढ़ाई चढ़ते हुए हमें आगे बढ़ना था।

दिंगबोचे से ऊपर चढ़ते ही हवाएं तेज हो गई थीं और एक खड़ी चढ़ाई चढ़ कर हम जब एक सफेद स्तूप के पास पहुंचे, तो वहां कुछ देर धूप में खड़े होकर हमें बहुत अच्छा लगा। वहां से हमें उत्तर पश्चिम की ओर हल्की चढ़ाई चढ़नी थी। जबकि हमारे ठीक ऊपर बने स्तूप के ऊपर, बहुत ऊपर दो अन्य स्तूप भी हमें दिख रहे थे। हमें इस बात से बहुत राहत मिली कि हमें ऊपर सीधे नहीं चढ़ना था।

थोड़ा आगे जाकर ही पूरा दृश्य एकाएक बदल गया। हम एक बहुत बड़े पथरीले बुग्याल में आ गए थे। यहां-तहां याक बाड़े दिख रहे थे। यानी यह इलाका पशुओं के लिए अच्छे चरागाह के तौर पर काम आता होगा। इस चौड़े बुग्याली इलाके में हम कभी थोड़ा नीचे उतरते और एक धारा को पार कर फिर थोड़ा ऊपर चढ़ जाते।

यह एक बड़ा ग्लेशियर मोरेन था। मैदान के नीचे करीब डेढ़ हजार फुट गहराई पर दूधकोशी की धारा बह रही थी। उसके किनारे फेरिचे का पड़ाव और मकानों की छतें दिखाई दे रही थीं। एकाएक 4452 मीटर ऊंचा ताबूचे और 6440 मीटर ऊंचा चोलत्से शिखर अपनी पूरी भव्यता के साथ हमारे सामने प्रकट हुए।

अरूण काफी आगे चल रहा था और वो इस दृश्य से वंचित रह गया। कुछ किलोमीटर चल कर हम मोरेन के सिरे पर पहुंच गए। नदी हमारे काफी करीब हो गई थी और सामने पुल पार थुकला का पड़ाव हमें दिखने लगा था। रास्ता अब खतरनाक हो गया था और कमजोर मिट्टी के पहाड़ डराने लगे थे।

थुकला एवरेस्ट के मार्ग का एक और जरूरी पड़ाव है। यहां कोई गांव या बस्ती नहीं है, सिर्फ यात्रियों के लिए तीन टी हाऊस और भारवाहियों के लिए एक भोजनालय बना है। यहां से लोबूचे तक बीच में अन्य कोई ऐसा स्थान नहीं है। यहां पर्वतारोही कुछ खा पी सकें या ठहर सकें और यहां से ऊपर थुकला पास तक के लिए एवरेस्ट मार्ग को सबसे थका देने वाली चढ़ाइयों में से एक खड़ी चड़ाई है। इसलिए चाहे ऊपर से उतरने वाले आरोही हों या ऊपर चढ़ने वाले, सबके लिए थुकला में रूक कर तरोताजा होना जरूरी है।

हम दिंगबाचे में जिस याक लॉज में रूके थे उसी परिवार का एक टी हाऊस थुकला में भी है। हम वहीं कुछ खा-पी कर धीरे-धीरे थुकला पास की ओर बढ़ने लगे। करीब सवा घंटे बाद जब हम पास के करीब पहुंच गए। तो हमने देखा ऊपर पास के पास बने पत्थरों के मार्ग चिन्ह पर फहराती धर्म ध्वजाओं के करीब कई लोग हिल-डुल रहे हैं। वहां पहुंच कर पता लगा वे लोग ऊपर से नीचे वापस लौट रहे हैं। वे सभी बहुत प्रसन्न थे और उत्साह से भरे हुए थे। उनके साथ कुछ पल बातचीत कर हम थुकला पास पहुंच गए। मगर थुकला पास पहुंच कर हम ऐसा लगा जैसे अचानक हमें बहुत दुख में घिर गए हों।

दरअसल थुकला पास के ऊपर फैले बड़े से इलाके में सैकड़ों छोटे बड़े स्मारक बने हैं। इसे विश्व का सबसे ऊंचा स्मृति स्थल भी कहा जा सकता है। अलग-अलग आकार के और अलग-अलग तरह से बने इन स्मारकों में हर एक की अलग कहानी है। ये स्मारक उन पर्वतारोहियों के हैं, जिन्होंने इस इलाके में हिमालय की कठोर चुनौतियों का सामना करते हुए किसी एवलांच में या किसी क्रेवास का शिकार होकर अपने प्राण गवांए।

या फिर हिमालय के बेरहम मौसम अथवा ऑक्सीजन की कमी के चलते सदा के लिए यहीं सो गए। इन स्मारकों में इस इलाके के अनेक शिखरों, लोबूचे, अमा देबलम, प्यूमो री, लोत्से, नूप्त्से और एवरेस्ट में मारे गऐ पर्वतारोहियों या स्थानीय शेरपाओं की स्मृतियां छिपी हैं।

कुछ बिल्कुल नए बने स्मारक हैं जबकि कुछ में लिखी इबारतें मौसम की मार से मिट गई हैं। इनमें से अधिकांश के शवों को उन्ही इलाकों में अंतिम समाधि दे दी गई थी, जहां उनकी मृत्यु हुई थी। ये स्मारक उनकी स्मृति को अक्षुण रखने के लिए उनकी टीम के सदस्यों, परिजनों या मित्रों द्वारा बनवाए गए हैं। जिन पर यहां से गुजरने वाला हर सवंदेनशील व्यक्ति श्रद्वा और आदर से नमन करता है।

6 महीने से अधिक समय तक यह इलाका बर्फ से ढका रहता है, बाकी समय यहां चलने वाली तेज ठण्डी हवाएं इसकी नीरवता को भंग करती रहती हैं। यहां वातावरण में एक निस्तब्ध उदासी थी और इस कारण हमारी आंखें भी नम हो उठीं। हमने उन सब बहादुरों के प्रकृति प्रेम को नमन किया। बहुत देर तक आत्म चिंतन भी किया और फिर चल पड़े आपने अगले गंतव्य की ओर। चरेवति चरेवति................यही तो उन बहादुरों का भी संदेश है, जिनकी स्मृतियां इस बर्फीले बियाबान में सदा के लिए अमिट हो चुकी हैं।

गोविन्द पंत राजू

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