लोबूचे में ठहरे 5 हजार मीटर की ऊंचाई पर बने होटल में, देखा सौर ऊर्जा चालित पिरामिड
लखनऊ: प्यारे दोस्तों, इससे पहले वाली कॉपी में आप दिंगबोचे के बारे में पढ़ ही चुके हैं कि यह काफी ठंडी जगह है। अब हम बताते हैं आपको लोबूचे के बारे में। लोबूचे एक अलसाया सा पड़ाव है। एवरेस्ट मार्ग में लगभग सोलह हजार फुट की ऊंचाई पर पहुंच कर दिंगबोचे या फेरिचे या थुकला से किसी सामान्य अरोही के लिए सीधे गोरखशेप तक पहुंचना संभव नहीं होता।
इसलिए सबको लोबूचे में ही रूकना पड़ता है। यहां कोई स्थाई गांव या याक बाडे़ नहीं है। सिर्फ तीन चार टी हाऊस या होटल हैं। पानी के लिए भी ऊपर किसी जलधारा से एक प्लास्टिक की पाइप लाइन बिछाई गई है, जिसे हर वर्ष नए सिरे से तैयार करना होता होगा क्योंकि जाड़ों भर यह इलाका बर्फ में दबा रहता है।
एक पहाड़ी के ढलान पर छोटे से इलाके में बने इस पड़ाव में एक कमरे की सगरमाथा नेशनल पार्क की चौकी भी है, जिसमें कोई रहता नहीं। 2015 के भूकंप से यहां भी इमारतों को नुकसान पहुंचा था। पुराने ग्लेशियर के इस बियाबान में ग्लेशियर पर एक लम्बी चढ़ाई चढ़कर पहुंचा जाता है और ऐसा ही रास्ता आगे गोरखशेप के लिए भी है। लगभग 200-250 लोगों के रहने की कुल व्यवस्था वाला लोबूचे इसी नाम की चोटी के लिए भी जाना जाता है।
4940 मीटर ऊंचाई पर स्थित लोबूचे से लोबूचे शिखर दिखते हैं। मुख्य शिखर लोबूचे ईस्ट कहलाता है जो 6119 मीटर ऊंचा है। इसी के साथ दूसरा शिखर लो बूचे फार ईस्ट या लोबूचे है। एक अन्य शिखर लोबूचे वेस्ट भी थोड़ी दूरी पर है। ये सभी टेकिंग पीक कही जाती हैं हालांकि इनमें आरोहण करना बहुत आसान नहीं है। एवरेस्ट आरोहण करने वाले आरोहियों के कई दल इनमें ही आरम्भिक अभ्यास करते हैं।
लोबूचे ईस्ट पर पहला सफल आरोहण 25 अप्रैल 1984 में हुआ था। लोबूचे ईस्ट के आरोहण के लिए पर्वता रोही प्रायः फेरिचे से होकर जाते हैं। मगर कुछ दल लोबूचे को भी अपना आधार केन्द्र बनाते हैं। लोबूचे नाम से एक और पर्वत शिखर भी इस इलाके में है। इसे लोबूचे कांग या लाबूचे कांग कहा जाता है। लेकिन यह शिखर समूह तिब्बत में है और इसका लोबूचे से कोई संबंध नहीं है। लोबूचे हमारे अब तक के पड़ावों में सबसे ठण्डा पड़ाव था। हम जहां रूके थे उसका नाम पीक ग्ट (पीक फिफ्टीन) था। इसका प्रबन्धक एक नाटे कद का क्रूर विदूषकनुमा व्यक्ति था, जो अपना धंधा बेहद चतुराई से संचालित कर रहा था।
2015 में भूकंप के कारण सारे एवरेस्ट अभियान रद्द होने का प्रभाव लोबूचे में 2016 में भी साफ-साफ देखा जा सकता था। दरअसल लोबूचे का अस्तित्व ही एवरेस्ट अभियानों की वजह से है। इसलिए एवरेस्ट में जितनी चहल-पहल होती है। उतनी ही मुस्कान लोबूचे में रह रहे लोगों के चेहरों पर दिखती है। अप्रैल आरंभ से ही यहां एवरेस्ट अभियान से जुड़े लोगों का आना शुरू हो जाता है।
प्रारंभिक तैयारियों से जुड़े लोग और सामान लेकर आने वाले भारवाही यहां सबसे पहले पहुंचते हैं। और फिर तो सिलसिला ही चल पड़ता है। लोबूचे को बहुत सुविधाजनक पड़ाव नहीं माना जाता हालांकि यहां पर 'मदर अर्थ हाउस’ नाम एक लॉज भी है, जिसे 5000 मीटर से अधिक उंचाई पर बना विश्व का सबसे बड़ा होटल कह कर भी प्रचारित किया जाता है। 2015 के भूकंप में इसका भी एक बड़ा हिस्सा टूट गया था।
लोबूचे से एक किलोमीटर उत्तर में पुमोरी शिखर के नीचे पिरामिड इंटरनेशनल आब्जवेटरी है। इसे इटली के वैज्ञानिकों ने यहां स्थापित किया था पर अब यह अनेक देशों के वैज्ञानिकों के उपयोग में आ रही है। यह एक पिरामिड के आकार की छोटी सी इमारत है, जिसे 1987 में स्थापित किया गया था। पहले इसका प्रयोग एवरेस्ट और के-2 की ऊंचाई के परीक्षण के लिए किया गया था। लेकिन अब इसका इस्तेमाल मौसम विज्ञान से लेकर औषधि विज्ञान तक और जलवायु परिवर्तन से लेकर पर्यावरण तथा मानव मनोविज्ञान के अध्ययन तक विभिन्न प्रकार के अनुसंधान कार्यों में किया जाता है।
एल्यूमिनियम और कांच से बना यह पिरामिड पूर्णतः सौर ऊर्जा से संचालित होता है तथा पूरी तरह स्वचालित है। यहां से जलवायु परिवर्तन और पर्यावरण सम्बन्धी आंकड़े साल भर एकत्र किए जाते हैं । इस तरह एवरेस्ट के एकांत में यह अपनी तरह का एकमात्र वैज्ञानिक केन्द्र बन गया है। यह एसोसिएशन आज अपनी तरह की इकलौती संस्था बन गई है, जो पर्वतों के पर्यावरण विज्ञान, अर्थ साइंस, फिजियोलॉजी, मानव शास्त्र, औषधि विज्ञान और नई तकनीकी के विकास के लिए काम कर रही है।
लोबूचे की ऊंचाई के कारण राजेन्द्र की सांसें अभी भी नियमित नहीं हुई थीं। अरूण सिंघल पर भी ऊंचाई का असर साफ दिख रहा था। इसलिए हम जल्द ही खाना खा कर स्लीपिंग बैगों में घुस गए, हालांकि नींद बहुत जल्दी आई नहीं। इसलिए नवांग से अगले दिन के कार्यक्रम के बारे में चर्चा की और तय किया कि सुबह आठ बजे तक हम ऊपर के लिए निकल जाएंगे।
लोबूचे में हमें नार्वे की एक महिला पर्वतारोही मिली, जो अपने कंधे पर लटके एक सैक में रास्ते से बटोरा हुआ कूड़ा, पन्नियां और प्लास्टिक की बोतल आदि लेकर आई थी। उसका प्रयास वाकई प्रशंसनीय था। वैसे सामान्यतः इस इलाके में जितने पर्वतारोही, ट्रैक्टर और भारवाही आदि आते हैं। उनकी संख्या देखते हुए यह ताज्जुब होता है कि मार्ग में कहीं भी गंदगी या कूड़ा कचरा देखने को नहीं मिलता। विदेशी पर्वतारोही तो कूड़े के प्रति संवेदनशील होते ही हैं, स्थानीय भारवाही व अन्य लोग भी इस बात का बहुत ध्यान रखते हैं। सगरमाथा नेशनल पार्क के प्रबन्धन की ओर से लगातार किए गऐ प्रयास भी इसकी एक वजह हैं।
भारतीय हिमालयी क्षेत्रों में हमें यह बात देखने को नहीं मिलती। चाहे बद्रीनाथ, केदारनाथ जैसी जगहें हों या फिर कश्मीर अथवा हिमाचल प्रदेश के हिमालयी पर्यटन स्थल और ट्रैकिंग मार्ग। हर जगह गंदगी का अम्बार दिखता है, प्लास्टिक और पन्नियां के ढेर दिखते हैं। लेकिन एवरेस्ट मार्ग में हमें ऐसा नहीं दिखा। क्लीन एवरेस्ट अभियान ने भी इस चेतना को बढ़ाने में बड़ी भूमिका निभाई है। इसी कारण पूरे एवरेस्ट मार्ग में प्रकृति को उसके स्वाभाविक रूप में देखा जा सकता है।
इस इलाके में हमें कई पक्षी भी दिखे। अलग-अलग प्रजातियों के इन पक्षियों में हमारी गौरेया जैसा एक पक्षी भी था। इस इलाके में हमें पक्षियों की जितनी भी प्रजातियां मिलीं। सभी के पंख खूब घने थे। शायद यहां की कड़ी ठंड से बचने के लिए प्रकृति ने उन्हें यह अतिरिक्त साधन दिया हो। इस इलाके के कौवे अन्य हिमालयी कौओं से आकार में कुछ बड़े होते हैं, मगर उनकी उपस्थिति हर जगह दिख जाती है। सुबह हम काफी देर तक असमंजस में रहे क्योंकि अरोरा की तबियत बहुत ठीक नहीं थी। सांस की समस्या तो थी ही।
अब पुरानी पाइल्स ने भी उसे परेशान कर दिया था। इसलिए हमने एक दिन वहीं पर रूकने का विचार किया। लेकिन बाद में अरोरा ने अपने आत्मविश्वास को समेटा और हम फिर चल पड़े गोरखशेप की ओर, जो एवरेस्ट बेस से पहले का अंतिम पड़ाव था। एक और कठिनाई भरा दिन शुरू हो रहा था मगर हमारे हौसलों के आगे सारी कठिनाईयां बौनी होती जा रही थीं।
गोविन्द पंत राजू