मुश्किल होती जा रही चुनावी भविष्यवाणी, अंतिम क्षण पर तय करने वाले वोटरों की संख्या बढ़ी
वर्ष 2000 से अब तक 130 विधानसभा चुनाव हो चुके हैं । लेकिन कई चुनावों से देखा ये गया है कि चुनाव पूर्व सर्वे और अंतिम रिजल्ट में काफी अंतर आता जा रहा है।
Lucknow : अगले तीन महीनों में यूपी समेत कई राज्यों में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं और चुनाव-पूर्व सर्वे आना शुरू हो चुके हैं। वर्ष 2000 से अब तक 130 विधानसभा चुनाव हो चुके हैं । लेकिन कई चुनावों से देखा ये गया है कि चुनाव पूर्व सर्वे और अंतिम रिजल्ट में काफी अंतर आता जा रहा है। इसके लिए सर्वे की क्वालिटी भी एक वजह है और एक बड़ी वजह अंतिम क्षणों में निर्णय लेने वाले मतदाताओं की बढ़ती संख्या है।
'लोकनीति' द्वारा पिछले बीस साल में हुए विधानसभा चुनावों में से 78 में चुनाव पूर्व सर्वे या एग्जिट पोल कराये गए हैं। इनमें मतदाताओं से एक सवाल यह भी पूछा गया कि वे किसको वोट देंगे, इस बारे में क्या उन्होंने मन बना लिया है?
अपना वोट तय करने वालों की तादाद काफी बढ़ी
मतदाताओं के जवाबों के विश्लेषण से पता चलता है कि अधिकंध मतदाता चुनाव प्रचार के दौरान या उसके ख़त्म होने के बाद अपना मन बनाते हैं। वे बहुत पहले से निर्णय नहीं लेते। ये मानसिकता विधानसभा चुनावों में हमेशा से ज्यादा रही है लेकिन पिछले दशक में यह बढ़ गयी है। 78 में से 46 चुनावों में आधे मतदाताओं ने चुनाव प्रचार के दौरान या अंतिम क्षणों में अपना मन बनाया था।
इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट के अनुसार, लोकनीति ने वर्ष 2000 के बाद से 17 राज्यों में दो बार चुनाव पूर्व सर्वे किया था। इनमें से आठ राज्यों में 2010 के बाद से देखा गया कि मतदाता वोट देने के बारे में चुनाव प्रचार के दौरान या प्रचार खत्म होने के तुरंत बाद अपना मन बनाते हैं। ये राज्य थे असम, बिहार, गुजरात, झारखण्ड, पंजाबा, तमिलनाडु, उत्तराखंड और पश्चिम बंगाल।
दस राज्यों में हुए पिछले विधानसभा चुनावों में अंतिम क्षण पर अपना वोट तय करने वालों की तादाद काफी बढ़ी है। असम, तमिलनाडु और केरल में हुए इस साल के विधानसभा चुनावों में देखा गया कि ऐसे मतदाता असम में 65 फीसदी, तमिलनाडु में 68 फीसदी और केरल में 39 फीसदी थे।
अंतिम क्षणों में मन बनाने वालों की ये संख्या पिछले दो दशक में सर्वाधिक रही है। इसके अलावा 2019 में झारखण्ड, 2018 में छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, कर्नाटक और त्रिपुरा तथा 2017 में गुजरात और हिमाचल प्रदेश में ऐसे मतदाताओं की संख्या पहले से कहीं ज्यादा देखी गयी।
कई बार मतदाताओं का निर्णय एकदम अलग
सर्वे के विश्लेषणों के अनुसार, 2000 से 2009 के बीच 53 फीसदी मतदाताओं ने अपनी पसंद के कैंडिडेट के बारे में निर्णय चुनाव प्रचार के दौरान या उसके खत्म होने पर कर लिया था। 2010-13 में ऐसे मतदाताओं की संख्या बढ़ कर 57 फीसदी हो गयी थी और 2014-21 में यह 63 फीसदी हो गयी। ऐसे मतदाताओं में सबसे ज्यादा वे रहे हैं जो चुनाव प्रचार के दौरान अपना मन बनाते हैं। अंतिम क्षणों में निर्णय लेने वाले मतदाता कमोबेश वही एक तिहाई बने हुए हैं।
2019 के लोकसभा चुनावों में 62 फीसदी मतदता ऐसे रहे जिन्होंने प्रचार के दौरान या अंतिम क्षण में अपना मन बनाया। ये एकदम अलग ट्रेंड रहा क्योंकि 1999 से 2014 के बीच हुए लोकसभा चुनावों में अधिकांश मतदाता ऐसे थे जिन्हों बहुत पहले से ही मन बना रखा था।
ये समझना जरूरी है कि देर से निर्णय लेने वाले मतदाताओं की वजह से चुनाव प्रेडिक्शन हमेशा उलट नहीं जाते हैं और न ऐसे मतदाता हमेशा बाकी लोगों से बहुत अलग फैसला लेते हैं। लेकिन कई बार ऐसे मतदाताओं का निर्णय एकदम अलग भी रहा है।
मिसाल के तौर पर 2021 में पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव में अधिकाँश चुनाव पूर्व सर्वे में बताया गया था कि राज्य में बहुत करीबी मुकाबला रहेगा। लेकिन रिजल्ट कुछ और ही रहा और तृणमूल कांग्रेस से असं जीत दर्ज की। लोकनीति के चुनाव उपरान्त डेटा से पता चला कि ये उन लोगों की वजह से रहा जिन्होंने चुनाव प्रचार के दौरान अपना मन बनाया था।
ऐसे लोग करीब 16 फीसदी थे। 2020 में बिहार में भी सर्वे बता रहे थे कि एनडीए की आसान जीत होने वाली है लेकिन अंतिम समय में महागठबंधन की तरफ वोट शिफ्ट हो जाने से रिजल्ट काफी करीबी रहा। सो कुल मिला कर यही कहा जा सकता है कि चुनाव रिजल्ट की भविष्यवाणी बहुत पहले से कर देना काफी जोखिम भरा काम हो सकता है क्योंकि मतदाता कब अपना मन बदल देंगे, कोई कुछ नहीं कह सकता।