यादवों और मुस्लिमों का गढ़ है आजमगढ़, रामनरेश, मोहसिना और मुलायम हो चुके हैं सांसद
यूपी विधानसभा के आम चुनावों के बाद एक बार फिर भाजपा और समाजवादी पार्टी उपचुनावों में आमने सामने हैं। वहीं, यादवों के साथ ही आजमगढ़ हमेशा से सपाइयों का गढ़ माना जाता है।
Azamgarh: यूपी विधानसभा (UP Assembly) के आम चुनावों के बाद एक बार फिर भाजपा (BJP) और समाजवादी पार्टी (Samjwadi Party) उपचुनावों में आमने सामने हैं। रामपुर और आज़मगढ़ संसदीय सीटों (Rampur and Azamgarh parliamentary seats) के उपचुनावों में फिलहाल का पलड़ा भारी दिख रहा है। इन दोनों सीटों पर मुस्लिम प्रभाव अधिक है जिनमे आजमगढ़ तो मुस्लिमों के साथ यादवों का भी एक बड़ा गढ़ है। विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष और सपा के अध्यक्ष अखिलेश यादव (SP Chief Akhilesh Yadav) के इस्तीफे के बाद इस सीट पर हो रहे है उपचुनाव में सपा ने धर्मेंद्र यादव को उम्मीदवार बनाया है। जो अखिलेश यादव के चचेरे भाई हैं। 2019 में अखिलेश यादव ने सत्ता से बेदखल होने के बाद इस निर्वाचन क्षेत्र से लोकसभा का चुनाव लड़ा और संसद पहुंचे। हालांकि इससे पूर्व वे कन्नौज से भी सांसद रह चुके थे।
2014 में पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव भी निर्वाचित हुए थे
अखिलेश के यहां से निर्वाचित होने से पहले इसी निर्वाचन क्षेत्र से 2014 में सपा के संस्थापक और पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव (Former Chief Minister Mulayam Singh Yadav) भी निर्वाचित हुए थे। अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) और मुलायम सिंह यादव (Former Chief Minister Mulayam Singh Yadav) से पहले इसी निर्वाचन क्षेत्र से रामनरेश यादव (दिवंगत) निर्वाचित हुए थे। 1977 में जनता पार्टी की सरकार बनने पर उन्हे मुख्यमंत्री बनाया गया था। जिस समय उन्हे मुख्यमंत्री बनाया गया था वे आजमगढ़ से सांसद थे और मुख्यमंत्री बनने के बाद उन्होंने लोकसभा की सदस्यता से इस्तीफा दिया था उसके बाद वे एटा की निधौलीकलां से विधानसभा उपचुनाव जीतकर सीएम पद बने रहे। मुख्यमंत्री पद से हटने के बाद रामनरेश यादव इसी संसदीय क्षेत्र के विधानसभा क्षेत्र फूलपुर से कांग्रेस के टिकट पर विधायक चुने गये थे।
यादवों के साथ ही सपाइयों का गढ़ माना जाता है आजमगढ़
2014 के लोकसभा चुनाव में मुलायम के सामने शाह आलम उर्फ गुड्डू जमाली ही बसपा के उम्मीदवार थे इस बार भी बसपा ने उन्हे उम्मीदवार बनाया है। इस चुनाव में मुलायम ने भाजपा के रमाकांत यादव को पराजित किया था और बसपा के शाह आलम तीसरे स्थान पर थे। कन्नौज के बाद मुलायम ने इसी निर्वाचन क्षेत्र को अपनी कर्मभूमि बनाया था। यादवों के साथ ही आजमगढ़ हमेशा से सपाइयों का गढ़ माना जाता है। इस बार के विधानसभा चुनाव में सपा ने यहां की दसो सीटों पर अपना कब्जा जमाया है। भाजपा की आंधी का यहां कोई असर नहीं हुआ। २०१९ के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने यहां भोजपुरी गायक दिनेश लाल यादव निरहुआ को उम्मीदवार बनाया था और वे दूसरे स्थान पर थे।
भाजपा ने उपचुनाव के लिए दिनेश लाल यादव निरुहुआ को ही अपना उम्मीदवार बनाया
इस बार भी भाजपा नेतृत्व ने यहां के उपचुनाव के लिए दिनेश लाल यादव निरुहुआ (Dinesh Lal Yadav Niruhua) को ही अपना उम्मीदवार बनाया है। राजनीतिक जानकारों की माने तो भोजपुरी गायक और यादव होने के नाते इस बार यहां के चुनाव में कुछ उलटफेर हो सकता है। यहां के यादव मतदाता किसी दलित को अपना समर्थन देगे इसको लेकर स्थिति अभी कुछ स्पष्ट नहीं है। विधानसभा चुनाव से पूर्व जिस तरह बसपा से निकले और निकाले गए लोगों को सपा ने बेखटक इंट्री दी और उनमें से अधिकांश इस बार जीतकर भी आ गये है उसके बाद से मायावती कोई मौका नहीं छोड़ रही है जिसमें वे अखिलेश यादव को जमीन दिखा सके।
लोकसभा चुनाव के बाद गठबंधन टूटने पर मायावती का एक ही मिशन रहा किसी तरह 2022 के विधानसभा चुनाव में सपा सरकार न बना सके। इस दिशा में जिस तरह उन्होंने मुस्लिम उम्मीदवारों को मैंदान में उतारा उससे सपा के मुस्लिम वोट बैंक में जो सेंध लगी उसका सीधा फायदा भाजपा को हुआ। बसपा ने आजमगढ़ में मुस्लिम उम्मीदवार के रूप में शाह आलम उर्फ गुड्डू जमाली को उतार कर एक बार फिर मुस्लिम कार्ड खेला है। आजमगढ़ में बुनकरों का एक बड़ा तबका है। जो चुनाव में निर्णायक भूमिका निभाता है। शाह आलम के आने के बाद से वहां का मुस्लिम मतदाता एक मुश्त बसपा के हिस्से में आयेगा। इस संभावना से राजनीतिक प्रेक्षकों केा इंकार नहीं है। देखना यह होगा कि इस बार बसपा को अपनी रणनीति में कहां तक सफलता मिलती है।
लोकसभा की सदस्यता से उनके इस्तीफा देने के बाद इस सीट पर हुए उपचुनाव में उस समय कांग्रेस की कद्दावर नेत्री मोहसिना किदवाई निर्वाचित हुई थी। उस समय उन्होंने इस चुनाव में जनता पार्टी के रामबचन यादव को शिकस्त दी थी। कांग्रेस को मिली इस जीत से पार्टी में नई जान आ गयी थी क्योकि इससे पहले 1977 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को बुरी शिकस्त का सामना करना पड़ा था और कांग्रेस के हताश निराश कार्यकर्ता इस उपचुनाव को लडऩे के पक्ष में नहीं थे।