आशुतोष सिंह
वाराणसी : धर्मनगरी काशी को सात वार और नौ त्योहार वाला शहर कहा जाता है। मतलब हफ्ते में जितने दिन नहीं, उससे ज्यादा तो यहां पर पर्व और त्योहार मनाए जाते हैं। इन्हीं में शुमार है काशी का प्रसिद्ध लक्खा मेला भरत मिलाप। विजयदशमी के दूसरे दिन होने वाले इस खास मेले के लिए वाराणसी का नाटी इमली मैदान खचाखच भरा था। लाखों की संख्या में श्रद्धालु भगवान राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न के मिलन के लिए टकटकी लगाए थे। सूर्य धीरे-धीरे अस्ताचल की ओर जा रहे थे, लेकिन तभी हाथों में तख्ती और पोस्टर लिए कुछ लोगों की भीड़ ने नारेबाजी शुरू कर दी। भक्ति का माहौल देखते ही देखते सियासी शोर में तब्दील हो गया।
476 साल के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ जब परंपरा पर सियासत की साया दिखी। दरअसल यदुवंश समाज के लोग झांसी में पुष्पेंद्र यादव एनकाउंटर को लेकर योगी सरकार से खफा थे। अपने विरोध का प्रदर्शन करने के लिए उन्होंने भरत मिलाप मेले को चुना। यदुवंशियों के एक गुट ने आस्था के इस मेले के बीच सियासी नारे लगाए। पोस्टर लहरा रहे थे। यकीनन जिस तरह से विरोध हुआ, उसने हर किसी को हैरान कर दिया।
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योगी सरकार से नाराज यदुवंश समाज
झांसी में अवैध खनन को लेकर पुष्पेंद्र यादव एनकाउंटर को लेकर पूरा प्रदेश उबल रहा है। नौ अक्टूबर को खुद सपा सुप्रीमो अखिलेश यादव झांसी में पुष्पेंद्र यादव के घर पहुंचे थे। इसके अलावा प्रदेश के अलग-अलग शहरों में एनकाउंटर को लेकर सवाल उठाए जा रहे हैं। सोशल मीडिया पर भी लोग योगी सरकार के खिलाफ अपनी भड़ास निकाल रहे हैं। विरोध की तस्वीर वाराणसी में भी दिखी। इस घटना ने समाज के एक बड़े वर्ग को आहत कर दिया है। मेले के दौरान यदुवंशी समाज से जुड़े लोगों ने प्रदेश सरकार के खिलाफ मोर्चा खोलते हुए सरकार विरोधी नारेबाजी की। हाथों में पोस्टर लिए ये लोग योगी सरकार पर दमनकारी होने का आरोप लगा रहे थे। यदुवंशियों ने अपना विरोध जताया तो हड़कंप मच गया। चंद्रवंशी गोपसेवा समिति के प्रदेश अध्यक्ष की ओर से अपील की गयी थी कि नाटी इमली के विश्वप्रसिद्ध भरत मिलाप में पुष्पक विमान को इस बार कंधे पर न उठाया जाए। पुष्पेंद्र यादव एनकाउंटर के विरोध में तख्तियां प्रदर्शित की गयीं, साथ ही अपने वस्त्रों पर भी स्लोगन लिखकर प्रदर्शित किया गया।
476 साल पुरानी है परंपरा
पिछले 476 सालों से नाटी इमली मैदान में भरत मिलाप मेले की परंपरा चलती आई है। यदुवंश समाज के लोग भगवान श्रीराम के पुष्पक विमान को अपने कंधों पर उठाते हैं। इस खास मौके के लिए यदुवंश समाज को सालभर का इंतजार रहता है। यदुवंशी खास पहनावे में दिखते हैं। सफेद धोती, कुर्ता पहने, सिर पर लाल रंग का साफा बांधे और आंखों में काजल लगाए यदुवंशियों की रौनक देखते ही बनती है। सैकड़ों साल से चली आ रही इस लीला के दौरान बनारस के यदुवंशी भगवान श्रीराम का पुष्पक विमान अपने कंधे पर उठाकर मेला स्थल में बने लीलास्थल अयोध्या तक लाते हैं। भगवान श्रीराम के विमान को उठाना हर यदुवंशी सबसे बड़ा पुण्य मानता है, लेकिन ऐसा पहली बार हुआ जब भरत मिलाप मेले में आस्था पर सियासत भारी दिखी। चित्रकूट रामलीला समिति की ओर से आयोजित होने वाले भरत मिलाप मेले में पहली बार राजनैतिक रंग देखने को मिला।
चंद्रवंशी गोप सेवा समिति के अध्यक्ष द्वारा सोशल मीडिया पर श्रीराम का पुष्पक विमान उठाने का बहिष्कार करने के एलान से हड़कंप मच गया था। हालांकि शाम तक काफी मानमनौव्वल का दौर चला। इसके बाद भरत मिलाप में यदुवंशियों ने पुष्पक विमान को कंधा तो दिया पर विरोध स्वरुप अपने कपड़ों में पुष्पेंद्र को न्याय की अपील की। मेले में विरोध करने पहुंचे राहुल यादव कहते हैं कि भगवान के सामने इस तरह का विरोध कतई जायज नहीं है, लेकिन अब हमारे सामने इसके अलावा कोई और दूसरा चारा नहीं था। हम भगवान का विमान जरुर उठाया, लेकिन विरोध जारी रहेगा। इस सरकार में जिस तरह से यादवों पर अत्याचार हो रहा है, उसे अब बर्दाश्त नहीं किया जा सकता है।
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पांच साल की लीला देखने पहुंचते हैं लाखों
दुनिया का सबसे पुराना विश्वप्रसिद्ध नाटी इमली का भरत मिलाप हर्ष-उल्लास के साथ संपन्न हो गया। यदुकुल के कंधे पर रघुकुल को पुष्पक विमान से अयोध्या के लिए रवाना किया गया। भरत मिलाप के अद्भुत दृश्य को लोगों ने अपनी आंखों मे कैद किया और भींगी आंखों से लीला स्थल से विदाई ली। मान्यता है कि इस दिन भगवान श्रीराम स्वयं लीला के लिए पधारते हैं। शाम को लगभग चार बजकर चालीस मिनट पर जैसे ही अस्ताचल गामी सूर्य की किरणें भरत मिलाप मैदान के एक निश्चित स्थान पर पड़ी तो माहौल थम सा गया और दौड़ पड़े राम और लक्ष्मण, भरत शत्रुघ्न से मिलने के लिए। जैसे ही चारों भाई गले लगे तो पूरा लीला स्थल हर-हर महादेव के जयघोष से गूंज उठा।
ये भी है मान्यता
लगभग पांच सौ वर्ष पहले संत तुलसीदास जी के शरीर त्यागने के बाद उनके समकालीन संत मेधा भगत काफी विचलित हो उठे। मान्यता है कि उन्हें स्वप्न में तुलसीदास जी के दर्शन हुए और उसके बाद उन्हीं की प्रेरणा से उन्होंने इस रामलीला की शुरुआत की। दशहरे के दूसरे दिन एकादशी को काशी के नाटी इमली के मैदान में भरतमिलाप का आयोजन होता है। मान्यता है कि 476 वर्ष पुरानी काशी की इस लीला में भगवान राम स्वयं धरती पर अवतरित होते हैं। कहा ये भी जाता है कि तुलसीदास जी ने रामचरित मानस को काशी के घाटों पर लिखने के बाद कलाकारों को इकठ्ठा कर लीला शुरू कराई थी मगर उसे परम्परा के रूप में मेधा भगत जी ने ढाला। कहते हैं कि मेधा भगत को इसी चबूतरे पर भगवान राम ने दर्शन दिया था। तभी से काशी में इस स्थान पर भरत मिलाप शुरू हुआ।
काशी नरेश भी पहुंचते हैं दर्शन करने
इस मेले को लक्खी मेला भी कहा जाता है। काशी की इस परम्परा में लाखों का हुजूम उमड़ता है। भगवान राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न और माता सीता के दर्शन के लिए शहर ही नहीं बल्कि आसपास के इलाकों के लोग भी उमड़ पड़ते हैं। वही परंपरा का निर्वाह काशी नरेश भी सदियों से करते चले आ रहे हैं। बिना काशी नरेश के लीला स्थल पर पहुंचे, लीला शुरू नहीं होती। सबसे पहले महाराज बनारस लीला स्थल पर पहुंचते हैं। हाथी पर सवार काशीनरेश के लीला स्थल पर पहुंचते ही चारों ओर हर-हर महादेव का उद्घोष होता है। चारों भाइयों के मिलन के बाद जय जयकार शुरू हो जाती है। परंपरा के अनुसार फिर चारो भाई रथ पर सवार होते हैं। यदुवंशी समुदाय के लोग रथ को उठाकर चारों और घुमाते हैं। सबके मन में भगवान के दर्शन की अभिलाषा होती है। काशी की यह लीला लोग साल भर अपनी आंखों में संजोकर रखते हैं। भगवान स्वरूप पात्रों के बीच वे अपने आपको पाकर धन्य महसूस करते हैं।