अस्सी घाट पर सजी बुढ़वा मंगल की महफिल, सुरमई संगीत से रंगीन हुई शाम

Update: 2016-04-05 14:53 GMT

वाराणसीः संस्कृति और तहजीब के शहर बनारस की एक पूरानी परंपरा है, जिस पर वक्त की धूल का असर तो हुआ लेकिन समय के साथ ये और भी निखरती गयी। इसे लोग बुढ़वा मंगल के नाम से जानते हैं। हिन्दू पंचांग के आखिरी मंगलवार को बुजुर्गों को समर्पित किया जाता है। ये दिन होली के बाद आता है, इसलिए बुजुर्ग भी इस दिन संगीत की मस्ती में सराबोर नजर आते हैं।

अस्सी घाट पर शुरू हुई महफिल की शुरुआत पं.चंद्रकांत और दिलीप शंकर की शहनाई से हुई। बनारस की युवा जोड़ी राहुल-रोहित मिश्र और मुंबई की सुंनदा शर्मा उपशास्त्री घायल से विभोर कीं।

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होली के बाद से ही रहता है इंतजार

बनारसियों के मन में तो होली के बाद के इस मंगल को लेकर मस्ती का आलम छा जाता है। इसकी वजह भी है, फागुन महीने की समाप्ति और चैत महीने की शुरुआत में हल्की ठंड के बीच खुले आकाश के नीचे इस सुरमई शाम का अपना ही आनंद होता है।

काशी में ज़हां एक ओर अल्ल्हड़पन की होली मशहूर है तो वहीं दूसरी ओर अपनी शालीनता के लिए बुढ़वा मंगल महोत्सव भी दूर दूर तक जाना जाता है। सदियों पुरानी इस परंपरा को बनारस आज भी संजोये हुए है। वाराणसी में इस त्यौहार को लोग होली के समापन के रूप में मनाते हैं। लोग होली की मस्ती के बाद नए जोश के साथ अपने कामों में जुट जाते हैं।

गंगा संस्कृति की हैं परिचायक

गंगा की लहरों पर संगीत और मस्ती के इस संगम को देखने के लिए दूर दूर से लोग वाराणसी आते हैं। गंगा की गोद में सजी संगीत की ये विरासत यही बताती है कि गंगा हमारी आस्था का ही केंद्र नहीं बल्कि हमारी संस्कृति और कला की भी परिचायक हैं।

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बुजुर्गों को किया जाता हैं समर्पित

डॉक्टर राजेश्वर आचार्य ने कहा कि हिन्दू पंचांग के आखिरी मंगलवार को बुजुर्गों को समर्पित किया जाता है और ये दिन होली के बाद आता है, इसलिए बुजुर्ग भी इस दिन संगीत की मस्ती में सराबोर नज़र आते हैं


अस्सी घाट का नजारा

 

कलाकारों के लिए खास है यहां की प्रस्तुति

-बुढवा मंगल की शुरुआत शहनाई की मधुर धुन के साथ हुई।

-रेवती सकलकर के भजनों के संगीत की तान गंगा की लहरों के साथ देर रात्रि तक अठखेलियां करती रहीं।

-उसी परंपरा का निर्वहन आज भी बनारस के लोग करते आ रहे हैं।

-यहां प्रस्तुति हर कलाकार के लिए बेहद ख़ास होती है।

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300 साल पुरानी है परंपरा

-संगीत की इस महफिल की परंपरा 300 साल से भी ज्यादा पुरानी है।

-पुराने जमाने में इसका लुत्फ राजे-रजवाड़े उठाया करते थे।

-सदियों पुरानी इस परंपरा को बनारस ने आज भी संजोए रखा है।

-वाराणसी में इस त्योहार को लोग होली के समापन के रूप में भी मनाते हैं।

-जहां होली की मस्ती के बाद नए जोश और तन्मयता के साथ बनारसी अपने कामों में जुट जाते हैं।

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