उपचुनाव के नतीजेः विपक्ष की फ्लॉप रणनीति, वोटर का तमाचा
उत्तर प्रदेश में सन 2014 से जिस तरह की राजनीतिक बयार चल रही है, उसमें सांप्रदायिकता का डरावना चेहरा दिखाने वालों, जातीय समूहों की ताकत दिखाने वालों, परिवारवाद को बढ़ावा देने वालों, भ्रष्टाचार करने वालों को जनता लगातार खारिज कर रही है।
रतिभान त्रिपाठी
बिहार के चुनाव परिणाम की खुशी मनाते समय दिल्ली में जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब यह कह रहे थे कि परिवारवादी पार्टियां लोकतंत्र के लिए खतरा हैं, अब देश के लिए काम करने वालों को ही जनता चुन रही है, तब उनका इशारा सिर्फ बिहार ही नहीं, उसी समय उपचुनाव का परिणाम घोषित हुए उत्तर प्रदेश की ओर भी था। उत्तर प्रदेश में सात विधानसभा क्षेत्रों में हुए उपचुनाव में छह सीटों पर भारतीय जनता पार्टी का परचम लहराया है। उसी दरम्यान उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ राजधानी लखनऊ में विजय समारोह में पूरे उत्साह के साथ भाजपा के प्रदेश महामंत्री संगठन सुनील बंसल को मिठाई खिलाकर पार्टी नेतृत्व की तारीफ के पुल बांध रहे थे।
सरकार के अच्छे काम का संगठन को मिला लाभ
संकेत यह कि सरकार ने अच्छा काम किया तभी तो संगठन ने चुनाव में उसका लाभ उठाया। उपचुनाव से पहले जिस तरह से विपक्षी दलों ने सरकार को बदनाम करने की कोशिश की थी, उससे लग रहा था कि भारतीय जनता पार्टी को नुकसान हो सकता है लेकिन नतीजों से लगता है कि जनता ने परिवारवादी और जातिवादी मानसिकता की पार्टियों को सबक सिखाकर भविष्य की राजनीति का संदेश भी दे दिया है।
उत्तर प्रदेश में सन 2014 से जिस तरह की राजनीतिक बयार चल रही है, उसमें सांप्रदायिकता का डरावना चेहरा दिखाने वालों, जातीय समूहों की ताकत दिखाने वालों, परिवारवाद को बढ़ावा देने वालों, भ्रष्टाचार करने वालों को जनता लगातार खारिज कर रही है। बीते छह सालों में अपवादों को छोड़कर प्रदेश में लंबे अरसे से बारी बारी से शासन करने वाली समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी को हर चुनाव में मुंह की खानी पड़ी है। अपनी विरासत बचाए रखने को इन दोनों पार्टियों ने कोई जतन, कोई राजनीतिक प्रयोग और रणनीति नहीं छोड़ी।
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परिणाम आते ही यह गठबंधन टूट गया
2017 के विधानसभा चुनाव में सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी ने ऐन मौके पर कांग्रेस से समझौता किया लेकिन यह बुरी तरह विफल रहा। सवा दो सौ सीटें जीतकर सत्ता में आए अखिलेश यादव की पार्टी महज 47 सीटों पर सिमटकर रह गई। परिणाम आते ही यह गठबंधन टूट गया। इसके बाद 2019 के लोकसभा चुनाव इसी समाजवादी पार्टी ने अपनी प्रतिद्वंद्वी बहुजन समाज पार्टी के साथ समझौता किया। कांग्रेस से भी मिलीभगत रही लेकिन तीनों पार्टियां नरेंद्र मोदी की आंधी में उड़ गईं। बहुजन समाज पार्टी शून्य पर पहुंच गई।
समाजवादी पार्टी में सिर्फ यादव परिवार के पांच लोग जीते और कांग्रेस के अध्यक्ष राहुल गांधी खुद अपनी परंपरागत सीट अमेठी तक हार गए। सिर्फ सोनिया गांधी किसी तरह अपनी रायबरेली सीट बचाने में ही कामयाब हो पाईं। उत्तर प्रदेश में विपक्ष का राजनीतिक पराभव इससे पहले ऐसा कभी नहीं देखा गया। सपा का बसपा से गठबंधन महज कुछ ही दिनों में टूट गया। बसपा सुप्रीमो मायावती ने यह कहते हुए सपा मुखिया अखिलेश यादव को झटक दिया कि वह अपनी जाति के वोट बसपा उम्मीदवारों को ट्रांसफर नहीं करा पाए। ऐसे बयानों से संदेश साफ है कि दोनों पार्टियां जातिवादी आधार पर राजनीति कर रही हैं, जिन्हें जनता खारिज करती जा रही है।
उपचुनाव, सरकार के भविष्य का संकेत
राजनीति में एक मान्यता है कि किसी सरकार के आखिरी दिनों में यदि उपचुनाव हुआ करता है तो उसका परिणाम उस पार्टी या सरकार के भविष्य का संकेत होता है कि आगे इस पार्टी या सरकार के साथ क्या होने वाला है। उपचुनाव भी हाल में हुए। वह भी एक दो नहीं, सात सीटों पर। विशाल उत्तर प्रदेश की लगभग चारों दिशाओं की सीटों पर। उपचुनाव के परिणामों पर भारतीय जनता पार्टी का दबदबा कायम रहा। समाजवादी पार्टी अपनी एक सीट बचाने में कामयाब हो गई। सात में से छह सीटें भाजपा की झोली में गईं। वह भी उस माहौल में जब विपक्ष सरकार पर कानून व्यवस्था, विकास और जातीयता के आरोप लगा रहा था।
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विपक्ष भाजपा के वोट घटा नहीं पाया
कांग्रेस महासचिव और उत्तर प्रदेश की प्रभारी प्रियंका गांधी वाड्रा, सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव और बसपा अध्यक्ष मायावती ने सरकार पर हर मोर्चे पर विफल होने के आरोप लगाए लेकिन जनता ने आरोपों को खारिज करते हुए भाजपा को जिता दिया। हर दांव आजमा कर भी विपक्ष भाजपा के वोट घटा नहीं पाया। तो क्या यह नहीं मान लिया जाना चाहिए कि योगी सरकार के कामकाज से जनता खुश है? तो क्या राजनीति की उस मान्य परंपरा को यह संकेत माना जाना चाहिए कि अब से सवा साल बाद फरवरी 2022 में होने वाले विधानसभा चुनाव में विपक्ष कोई कमाल दिखा पाएगा? विपक्ष जब चार साल में कोई तैयारी नहीं कर पाया तो आखिरी साल में सत्ताधारी पार्टी की मुखालिफत की कितनी तैयारी कर पाएगा? ये सारे सवाल तो सबके सामने हैं।
जातीय और अल्पसंख्यकों की गोलबंदी
विधानसभा के पिछले कुछ चुनावों से सपा बसपा के बीच संघर्ष दिखता था, उसमें दोनों पार्टियां एक दूसरे की विफलताओं का इंतजार करते हुए उसी आधार पर एक दूसरे को पराजित करती रहीं हैं। यानी एक पार्टी की सरकार की विफलता दूसरी की जीत का आधार बनती रही है। 2007 और 2012 के चुनाव कुछ इसी आधार पर जीते हारे गए। इनकी इसी रणनीतिक कमजोरी का फायदा उठाकर 2017 में भाजपा ने अपने संघर्ष और नरेंद्र मोदी के करिश्माई व्यक्तित्व के आधार पर चुनाव जीत लिया।
2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव भी इन्हीं वजहों से भाजपा के पक्ष में गए लेकिन सपा-बसपा और कांग्रेस अपने ढर्रे पर ही चलती रहीं। वह जातीय और अल्पसंख्यकों की गोलबंदी के आधार पर चुनाव जीतने की फिराक में लगी रहीं। इन्हें यह समझ में ही नहीं आया कि जनता उनके पुराने हथकंडों को भांपकर उन्हें खारिज कर चुकी है।
कोरोना काल में योगी सरकार की अनेक योजनाएं बनी मिसाल
पिछले नौ महीने के कोरोना काल के दौरान योगी सरकार की अनेक योजनाएं राष्ट्रीय स्तर पर मिसाल के तौर पर मान्य हुईं। चाहे दूसरे राज्यों में काम करने वाले उत्तर प्रदेश के निवासियों को उनके घर तक सुरक्षित पहुंचाने की व्यवस्था हो या फिर घर पहुंचने पर उनको रोजगार से जोड़ने की योजना, एमएसएमई के जरिए लघु उद्योगों को शुरू करने और उन्हें गति देने के लिए वित्तीय इंतजाम करने की योजना हो या फिर हर गरीब के घर तक मुफ्त राशन पहुंचाने की मुकम्मल व्यवस्था हो, हर मोर्चे पर उत्तर प्रदेश सरकार की प्रशंसा हुई।
अपराधी और माफियाओं के खिलाफ सरकार की धरातल पर हुई कार्रवाई जनविश्वास जगाने में कामयाब होती दिखी है। भ्रष्टाचार पर अंकुश के लिए भी कार्रवाइयां हुईं। विपक्ष आरोप लगाने और सरकार पर विफलता के टैग लगाने में पीछे नहीं रहा लेकिन जनता ने उसके आरोपों को स्वीकार नहीं किया। उप चुनाव के परिणामों से तो यही जाहिर होता है।
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सपा-बसपा अपने ही मकड़जालों में उलझी
अब देखने वाली बात यह है कि अगले एक साल में विपक्ष ऐसे ही आरोप चस्पा करता रहेगा या जमीन पर उतरकर जनहित के मुद्दों के लिए संघर्ष भी करेगा। यदि वह सरकार की कमजोरियों को आधार बनाकर अपनी सफलता की उम्मीद लगाए बैठा रहेगा तो शायद यह उसका मुगालता ही होगा। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता पी.चिदंबरम के उस बयान को ही यदि आधार माना जाए कि उनकी पार्टी का संगठन मजबूत नहीं है।
प्रियंका गांधी वाड्रा या उत्तर प्रदेश के कांग्रेसी जब पिछले चार साल में संगठन मजबूत नहीं कर पाए तो अगले एक साल में कितना कर पाएंगे, सोचने वाली बात है। रही बात सपा-बसपा की तो दोनों पार्टियां अपने ही मकड़जालों में ऐसे उलझी हुई हैं कि संघर्ष की दिशा ही नहीं तय कर पा रही हैं।
बसपा का भाजपा के प्रति रवैया बहुत स्पष्ट नहीं
सपा का बसपा के प्रति रुख कभी लचीला दिखता है तो कभी कठोर और बसपा का भाजपा के प्रति रवैया बहुत स्पष्ट नहीं है। मायावती भाजपा के लिए नरम रवैया अख्तियार करते हुए कभी उपदेशात्मक बयान जारी करती हैं तो कभी समर्थन देने की बात करने लगती हैं। पिछले दिनों राज्यसभा के चुनाव में ऐसा ही सीन दिखा। ऐसे में यह तय करना कठिन है कि आखिर विपक्ष की रणनीति क्या होगी? कुल मिलाकर विपक्ष जिस तरह का कमजोर रवैया अख्तियार किए हुए है, ऐसे में अगले चुनाव में कितना संघर्ष या चमत्कार कर पाएगा, इसका जवाब वक्त के हाथों में है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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