सहारनपुर: विश्व विख्यात इस्लामिक संस्था दारूल उलूम देवबंद के साथ-साथ फतवों के शहर देवबंद के अंदर यूं तो बहुत सी ऐतिहासिक इमारते हैं। इसमें मंदिर मस्जिद और निवास स्थान भी शामिल हैं, लेकिन देवबंद में मौजूद करीब 300 से अधिक मस्जिदों में कुछ मस्जिदे ऐसी हैं, जिनका अपना अलग ही ऐतिहासिक महत्व है। यहां कि ये ऐतिहासिक मस्जिदें बरबस ही अपनी ओर हर किसी का ध्यान खींचती हैं।
मर्कजी जामा मस्जिद
इन्हीं में से एक है, यहां की मर्कजी जामा मस्जिद। दारुल उलूम से कुछ दूरी पर आबादी के बीचों-बीच आसमां छूते मीनारों और खूबसूरत गुम्बों से सजी हुई जामा मस्जिद की बुनियाद 1866 में रखी गई थी, जिसके निर्माण काम में करीब 4 साल का समय लगा था। दारुल उलूम की स्थापना भी इसी बीच हुई थी।
आसमां को छूते मीनारों पर चढ़कर पूरे नगर और आसपास का नजारा किया जा सकता है। इस मस्जिद के 3 हिस्से में 7 दर और 3-3 गुम्बद है। मस्जिद की दालानों में लगभग 1200 नमाजियों की जगह है। आरंभिक दौर में दारुल उलूम वक्फ यहीं पर था। बाद में जगह की कमी के चलते इसको दूसरे स्थान स्थानांतरित कर दिया गया था।
छत्ता मस्जिद
देवबंद की दूसरी ऐतिहासिक मस्जिद है छत्ता मस्जिद सन् 1866 में दारुल उलूम का आरंभ इसी मस्जिद से हुआ था। ये लखैरी ईटों के बगैर चूने और प्लास्टर की इमारत है इस मस्जिद के हुजरों में सैंकड़ों बुजुर्गो और आलिमों ने अपना समय बिताया है। उलेमा-ए-देवबंद के सरों के ताज मशहूर बुजुर्ग हाजी मोहम्मद आबिद हुसैन, हजरत मौलाना मोहम्मद कासिम नानौतवी और हजरत मौलाना मोहम्मद याकूब नानौतवी (दारूल उलूम के सर्व प्रथम मोहतमिम) ने इस मस्जिद में लम्बे समय तक कायम किया है। मस्जिद के सहन में अनार का ऐतिहासिक पेड़ था जिसके नीचे बैठकर दारुल उलूम देवबंद के पहले उस्ताद मुल्ला महमूद देवंबदी ने पहले छात्र महमूद हसन देवबंदी को सबक पढ़ाया था।
दारुल उलूम के पहले छात्र बनने का गौरव प्राप्त करने वाले महमूद हसन देवबंदी अपने इलमी कारनामों की बदौलत बाद में दुनियाभर में शेखुल हिंद के नाम से जाने गए। दारुल उलूम देवबंद में इस्लामी तालीमात की शुरुआत का साक्षी बना छत्ता मस्जिद के सहन में लगा अनार का पेड़ करीब सौ सालों से भी अधिक समय तक हराभरा और फलदार है, जिसे देखकर लोग अचंभित होते थे, लेकिन करीब दो साल पहले इस पेड़ को कटवा दिया।
देवबंद की तीसरी ऐतिहासिक मस्जिद है मोहल्ला किला स्थित मस्जिद किला। बादशाह सिकंदर शाह लौधी ने 1488 से 1517 ईसवीं तक अपने शासन काल में बहुत सी मस्जिदें, मदरसे और सराये बनवाए यह बड़ा इल्मी दोस्त बादशाह था। बादशाह सिकंदर शाह लौधी के कार्यकाल में ही सर्वप्रथम हिंदुओं ने फारसी पढ़ना शुरू किया था।
देवबंद की चौथी विश्व प्रसिद्ध मस्जिद रशीद है। जिसकी आधारशिला सन 1988 में आधारशिला रखी गई। करीब 65 लाख रुपये की लागत से उस वक्त इस मस्जिद का निर्माण कराया गया था। आधुनिक तकनीक से बनाए गए, इन मीनारों के बीच में खूबसूरत अंदाज की सीढ़ियां बनाई गई है जो कि मीनार के अंत तक पहुंचती है। मस्जिद के नीचे नमाजियों की सुविधा के लिए एक तहखाना बनाया गया है , चांदनी रात में ये मस्जिद अपनी खूबसूरती की अलग ही दास्तां बयान करती है। इसके अलावा ये मस्जिद विख्यात दारुल उलूम देवबंद के दामन में बनी होने के कारण हर समय हजारों नमाजियों से आबाद रहती है।
मस्जिद को खूबसूरत बनाने के लिए हर मुमकिन कोशिश की गई है। मस्जिद के निर्माण में मजबूती के साथ-साथ बारीक से बारीक खूबसूरती को ध्यान में रखा गया है। आजादी के बाद हिंदुस्तान में बनाई गई सभी मस्जिदों में सबसे मजबूत और खूबसूरत है जिसकी न सिर्फ देश बल्कि विदेशों में भी आकर्षण का केंद्र है।