जनकवि गोरख पांडे: 'कुर्सी ही है जो घूस और प्रजातंत्र का हिसाब रखती है’
गोरख के परिवार के लोगों की मानें तो वह शुरू से विद्रोही स्वभाव के थे। एक बार तो ऐसा हुआ कि गोरख गुस्से में जनेऊ तोड़ कर सीधे जेएनयू से अपने घर लौट आए थे।
लखनऊ: जनकवि गोरख पांडे का जन्म 1945 में यूपी के देवरिया ज़िले के मुड़ेरवा गांव में हुआ था। वह पढ़ाई के सिलसिले में बनारस आए थे।
यहां से पढ़ाई पूरी करने के बाद फिर उच्च शिक्षा हासिल करने के लिए वह जेएनयू आ गए थे। बाद में 29 जनवरी 1989 को यूनिवर्सिटी के एक कमरे में उन्होंने फांसी लगाकर अपनी जीवन लीला ही समाप्त कर ली थी।
बताया जाता है कि गोरख सिजोफ्रेनिया से पीड़ित थे। अपनी बीमारी से परेशान होकर ही उन्होंने सुसाइड कर लिया था। आज भी आपको जेएनयू के अंदर उनकी लिखीं कविताएं गुनगुनाते हुए छात्र मिल जाएंगे।
1.चैन की बांसुरी बजाइये आप
शहर जलता है और गाइये आप
हैं तटस्थ या कि आप नीरो हैं
असली सूरत ज़रा दिखाइये आप
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मृत्यु के बाद प्रकाशित हुए थे ये तीन संग्रह
गोरख की मृत्यु के बाद उनके तीन संग्रह प्रकाशित हुए। साल 1989 में 'स्वर्ग से विदाई'।1990 में 'लोहा गरम हो गया है' और साल 2004 में 'समय का पहिया'।
उन्होंने कभी उदासी-मायूसी के गीत नहीं गुनगुनाए। न ही शब्दों में उकेरे।उनके शब्द स्वाभिमान को झकझोरने वाले रहते। कविता संग्रहों के सफ़ा पलटते जाइए, आपको उम्मीद मिलेगी।
2.राजा बोला रात है,
रानी बोला रात है,
मंत्री बोला रात है,
संतरी बोला रात है,
सब बोलो रात है,
यह सुबह सुबह की बात है।
जब जनेऊ तोड़कर जेएनयू से घर आए थे गोरख
गोरख के परिवार के लोगों की मानें तो वह शुरू से विद्रोही स्वभाव के थे। एक बार तो ऐसा हुआ कि गोरख गुस्से में जनेऊ तोड़ कर सीधे जेएनयू से अपने घर लौट आए थे।
उस वक्त उनके पिताजी बहुत नाराज़ हुए थे। इस पर गोरख ने अपने पिता से कहा था यह धागा बांध कर दिन भर झूठ बोलता रहूं, ऐसे मेरे संस्कार नहीं हैं।
उन्होंने गुस्से में अपने मझले भाई के उपनयन संस्कार के बीच में सबके सामने उनका भी जनेऊ तोड़ दिया था। उस वक्त उनके पिताजी बहुत दुखी हुए थे।
3.आएंगे, अच्छे दिन आएंगे
गर्दिश के दिन ये कट जाएंगे
सूरज झोपड़ियों में चमकेगा
बच्चे सब दूध में नहाएंगे
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4.समाजवाद
समाजवाद बबुआ, धीरे-धीरे आई
समाजवाद उनके धीरे-धीरे आई
हाथी से आई, घोड़ा से आई
अंग्रेजी बाजा बजाई, समाजवाद...
देश के जागरूक छात्रों और युवाओं में सबसे अधिक लोकप्रिय रहे जनकवि गोरख पांडेय हिंदी काव्य-साहित्य में अपने क्रांतिधर्मी सृजन के लिए विख्यात रहे हैं। उनके समकालीन हिंदी साहित्य के शायद ही किसी कवि को उतनी लोकप्रियता मिल पाई हो।
5. कुर्सीनामा
जब तक वह ज़मीन पर था
कुर्सी बुरी थी
जा बैठा जब कुर्सी पर वह
ज़मीन बुरी हो गई।
उसकी नज़र कुर्सी पर लगी थी
कुर्सी लग गयी थी
उसकी नज़र को
उसको नज़रबन्द करती है कुर्सी
जो औरों को
नज़रबन्द करता है.
महज ढांचा नहीं है
लोहे या काठ का
कद है कुर्सी
कुर्सी के मुताबिक़ वह
बड़ा है छोटा है
स्वाधीन है या अधीन है
ख़ुश है या ग़मगीन है
कुर्सी में जज्ब होता जाता है
एक अदद आदमी।
फ़ाइलें दबी रहती हैं
न्याय टाला जाता है
भूखों तक रोटी नहीं पहुंच पाती
नहीं मरीज़ों तक दवा
जिसने कोई ज़ुर्म नहीं किया
उसे फांसी दे दी जाती है
इस बीच
कुर्सी ही है
जो घूस और प्रजातन्त्र का
हिसाब रखती है।
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