सरकार ही कठघरे में, बिजली विभाग का यह गोलमाल करता है कई सवाल खड़े

Update:2019-11-08 12:19 IST
सरकार ही कठघरे में, बिजली विभाग का यह गोलमाल करता है कई सवाल खड़े

मनीष श्रीवास्तव

लखनऊ: बिजली कर्मचारियों की जीपीएफ की धनराशि को लेकर हुए गोलमाल में सरकारी कोशिशें खुद उसे ही कठघरे में खड़ा करती दिख रही हैं। भले ही ईओडब्ल्यू की जांच रोज नए खुलासे कर रही हो। तीन बड़े अधिकारियों को गिरफ्तार कर चुकी हो। सरकार ने इस मामले की सीबीआई जांच कराने का एलान किया हो परंतु शीर्ष नौकरशाही के प्रति सरकारी रवैया नाराज बिजली कर्मचारियों को राहत पहुंचाने वाला नहीं दिख रहा है। राज्य सरकार अफसरों को बचाने में जुटी नजर आ रही है। संजय अग्रवाल जो डीएचएफएल जैसी कंपनियों को पैसा देने की बोर्ड की बैठक में न केवल शामिल थे, बल्कि उसके एजेंडे पर दस्तखत भी उन्होंने किए, सरकार उन्हें क्लीनचिट दे रही है। गौरतलब है कि संजय अग्रवाल यूपी के मुख्य सचिव की रेस में शामिल हैं। यहीं नहीं, तकरीबन 41 अरब रुपए का भुगतान जिस आईएएस अफसर आलोक कुमार के कार्यकाल में हुआ, राज्य सरकार उसके खिलाफ भी कार्रवाई से बचती नजर आ रही है। आलोक कुमार अपने पद पर काबिज हैं। बिजली विभाग की दूसरी अफसर अपर्णा यू का तबादला कर उन्हें मलाईदार तैनाती दी गयी है।

बीते दो नवम्बर को सरकार की ओर से जारी प्रेस विज्ञप्ति में दूसरे पेज पर सरकारी प्रवक्ता की ओर से यह दावा किया गया कि 2017 में जब यह फैसला लिया गया था, तब तत्कालीन प्रबंध निदेशक से अनुमति नहीं ली गयी थी। गौरतलब है कि उस समय आईएएस अफसर संजय अग्रवाल पावर कार्पोरेशन के प्रबंध निदेशक व चेयरमैन दोनों थे। अभी वह केंद्र सरकार में कृषि महकमे के सचिव हैं। 'अपना भारत-न्यूजट्रैक' के हाथ लगे दस्तावेज सरकार के इस दावे को सिरे से खारिज करते हैं। सरकार भले ही यह दावा कर रही हो कि तत्कालीन प्रबंध निदेशक संजय अग्रवाल से अनुमति नहीं ली गयी परन्तु जिस बैठक में डीएचएफएल जैसी कंपनियों में निवेश का प्रस्ताव पास हुआ उसके एजेंडे पर संजय अग्रवाल के दस्तखत हैं। निसंदेह, कर्मचारियों की गाढ़ी कमाई गैर बैंकिग संस्थानों में जमा करने का फैसला अखिलेश सरकार में लिया गया था। 17 मार्च 2017 को डीएचएफएल को पहली किश्त 21 करोड़ रुपए की दी गयी थी। एक हफ्ते बाद दूसरी किश्त 33 करोड़ रुपए की दी गयी थी। इसके बाद 03 अप्रैल को 215 करोड़ रुपए, 15 अप्रैल को 96 करोड़ रुपए, 01 मई को 220 करोड़ रुपए और 19 मई को 169 करोड़ रुपए दिए गए। इस प्रकार डीएचएफएल को रुपए देने का क्रम दिसम्बर 2018 तक जारी रहा और ट्रस्ट के 65 प्रतिशत से अधिक 4122.70 करोड़ रुपए मौजूदा सरकार के समय में डीएचएफएल को दिए गए। उक्त घोटाले को छुपाने के लिए ट्रस्ट की हर तिमाही होने वाली बैठक 30 महीने तक नहीं की गयी। गौरतलब है कि योगी आदित्यनाथ ने 19 मार्च को शपथ ग्रहण किया था। अखिलेश यादव ने 11 मार्च को इस्तीफा दे दिया था। पर सवाल यह उठता है कि 4101करोड़ रुपए 31 दिसम्बर 2018 तक डीएचएफएल को दे दिया गया। यही नहीं इस धनराशि में से 2268 करोड़ रुपए डीएचएफएल में डूब गए।

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दिलचस्प यह है कि इस मामले का खुलासा सरकार की अपनी किसी कारगुजारी से नहीं हुआ बल्कि बीते 10 जुलाई को एक अनाम शिकायती पत्र पर जांच करायी गयी। 29 अगस्त को इस जांच की रिपोर्ट भी आ गयी। सूत्रों की मानें तो ऊर्जा मंत्री श्रीकांत शर्मा को छोड़कर इस शिकायती पत्र और उसकी जांच रिपोर्ट के बारे में पता था। नौकरशाही ने मिल कर इस जांच रिपोर्ट को ठंडे बस्ते में डालने की कोशिश शुरू की। इसी बीच डीएचएफएल के दिवालिया होने और इस कंपनी के मालिकों के दाउद इब्राहिम व इकबाल मिर्ची से रिश्तों के तार सामने आने लगे। पानी सिर के ऊपर आता देख अफसरों ने मंत्री को इस मामले से अवगत कराया। लेकिन यह भी इत्तला दी कि यह मामला अखिलेश यादव सरकार का है। शायद यही वजह रही कि शुरुआती एक-दो दिनों में इस पूरे गोलमाल का ठीकरा अखिलेश सरकार पर फोडऩे की कोशिश की गयी। लेकिन मामले की गंभीरता को देखते हुए श्रीकांत शर्मा ने इसकी जांच कराने के लिए मुख्यमंत्री से आग्रह किया। तब तक राज्य के बिजली कर्मचारियों का गुस्सा सामने आना शुरू हो गया था। बिजली कर्मचारियों के नेता शैलेन्द्र दुबे कहते हैं कि डीएचएफएल ही क्यों, पीएनबी और एलआईसी हाउसिंग में भी जो पैसा लगा है वह भी नियम विरुद्ध है। अगर सरकार डूबे हुए 2268 करोड़ रुपए की जिम्मेदारी नहीं लेती है तो हमारा आंदोलन यूपी तक ही सीमित नहीं रहेगा।

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बिजली विभाग का यह गोलमाल कई सवाल खड़े करता है। पहला, तीन साल से ट्रस्ट की कोई मीटिंग क्यों नहीं की गई, बिना मीटिंग के निवेश कैसे होते रहे। दूसरा, पावर कार्पोरेशन के चेयरमैन ट्रस्ट के अध्यक्ष हैं और एम्डी ट्रस्टी है तो कौन जिम्मेदार है। तीसरा, पावर कार्पोरेशन की जांच समिति की रिपोर्ट में साफ लिखा है कि निवेश में अनियमितता की गई है और 99 प्रतिशत निवेश तीन कंपनियों में किया गया है जिसमें 85 प्रतिशत निवेश डीएचएफएल में किया गया है। चौथा, 25 जनवरी 2000 के मुख्यमंत्री के साथ हुए समझौते के अनुसार ट्रस्ट में कर्मचारियों का कोई प्रतिनिधि क्यों नहीं रखा गया।

पुलिस ने ट्रस्ट के सचिव रहे पीके गुप्ता, वित निदेशक रहे सुधांशु द्विवेदी और पावर कार्पोरेशन के पूर्व एमडी एपी मिश्रा को रिमांड पर लिया है और आमने सामने पूछताछ करायी जा रही है। गौरतलब है कि फैसले के दस्तावेज पर इनके अलावा प्रबंध निदेशक संजय अग्रवाल और निदेशक कार्मिक सत्यप्रकाश पांडे के भी दस्तखत हैं। जांच में अभिलेखों में छेड़छाड़ के सबूत मिले हैं। इस मामले में भाजपा और सपा एक-दूसरे के आमने सामने आ गए हंै, आरोप-प्रत्यारोप का दौर चल रहा है। बिजली कर्मचारी विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं। एपी मिश्रा के बहाने अखिलेश यादव के कार्यकाल में हुई अनियमितताओं की ओर जांच एजेंसी कदम बढ़ा रही है। क्योंकि आमतौर पर आईएएस संवर्ग को दिए जाने वाले पद पर अखिलेश यादव की मेहरबानी इतनी बरसी कि उन्होंने अभियंता संवर्ग के एपी मिश्रा को एमडी पावर कार्पोरेशन के पद पर बैठा दिया। यही नहीं एपी मिश्रा को तीन बार सेवा विस्तार भी दिया गया। उन्होंने अपने कार्यकाल में कई ब्लैकलिस्टेड कंपनियों को पावर कार्पोरेशन में ठेका देने का न केवल नायाब करिश्मा किया बल्कि फर्जी बैंक गांरटी जमा करने वाली कंपनियों को भी बड़े-बड़े ठेके हासिल हो गए।

घोटालेबाज कंपनी

दीवान हाउसिंग फाइसेंस एंड लीजिंग कंपनी 11अप्रैल 1984 को महाराष्ट्र में इनकार्पोरेट हुई और 26 अप्रैल 1984 को इसे कमेन्समेंट आफ बिजनेस का सर्टिफिकेट हासिल हुआ। इसके साथ ही इसका नाम बदल कर दीवान हाउसिंग डेवलेपमेंट फाइनेंस लिमिटेड (डीएचएफएल) हो गया, जिसका सर्टिफिकेट कंपनी को 26 सितम्बर 1984 को हासिल हुआ। डीएचएफएल वही कंपनी है जिसके बारे में कोबरा-पोस्ट ने इस साल जनवरी में एक स्टिंग के जरिए दावा किया था कि डीएचएफएल ने 31000 करोड़ रुपये का घोटाला किया है। कोबरा-पोस्ट का मानना था कि यह भारतीय इतिहास का सबसे बड़ा गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनी क्षेत्र का घोटाला है। स्टिंग के मुताबिक हाउसिंग लोन देने वाली कंपनी डीएचएफएल ने कई सेल कंपनियों को करोड़ों रुपये का लोन दिया और फिर वही रुपया वापस उन्हीं कंपनियों के पास आ गया, जिनके मालिक डीएचएफएल के प्रमोटर हैं। यह घोटाला न केवल एनबीएफसी के नकारा कॉरपोरेट गवर्नेंस पर उंगली उठाता है बल्कि ये सार्वजनिक निकायों की लापरवाही को लेकर भी गंभीर सवाल खड़े कर देता। यह साफ तौर पर सरकारी यानी जनता के पैसे का प्राइवेट लोगों द्वारा दुरुपयोग और गैरकानूनी रूप से इस्तेमाल करने का मामला है।

 

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