‘ज्योउरा’ भी बंदः पुरानी प्रथा के बंद होने से हो गए हैं रोटी के लाले

छोटी सी दुकान के बावजूद एक हजार रुपये से ज्यादा की उधारी गांव वालों पर पड़ी है। ऐसे हालात में घर और दुकान दोनों ही चलाना मुश्किल हो रहा है। मजबूरन पति को मजदूरी के लिए परदेश भेज दिया था, वह भी कोरोना संक्रमण में लाक डाउन के चलते घर वापस आ गया ।

Update:2020-05-25 18:38 IST

शरद चंद्र मिश्रा की रिपोर्ट

बांदा (उत्तर प्रदेश )- कुदरत की मार ने बुंदेलखंड के मानवीय रीत-रिवाजों को भी मारा है। खेत से फसल गई तो बिन खेत वाले भी प्रभावित हैं। गांव के पंसारी को कीमत के बदले अनाज नहीं मिल रहा। हजारों की उधारी हो गई है। लोहार, बढ़ई और कुम्हार आदि को मिलने वाला ‘ज्योउरा’ भी बंद हो गया। इनके घर भी अब रोटी के लाले हैं।

तब गांव की दुनिया ही अलग थी

अब से कुछ अरसे पहले तक गांवों की दुनियां अलग थी। किसानों के घर में नकदी से ज्यादा अनाज होता था। पंसारी की दुकान से कुछ भी लेने के लिए कीमत के बदले अनाज देते थे। इसी तरह ज्योउरा रिवाज के तहत गावं के लोहार, बढ़ई, कुम्हार, नाई, रैदास, डोमार, केवट आदि को फसल होते ही एक तयशुदा मानक के मुताबिक किसानों से अनाज दिया जाता था।

जितने हल हों उतने मन अनाज

इसका मानक यह था कि एक हल पर एक मन (40 किलो) अनाज। यानी जिस किसान के पास जितने हल हों उतने मन अनाज बांटता था। इसके एवज में लोहार, बढ़ई और कुम्हार आदि पूरे साल अपने पेशे से जुड़े किसानों के काम मुफ्त करते थे।

5 फीसद कटइया दी जाती है

हल, बख्खर आदि बढ़ई बनाता था। हंसिया, खुरपी आदि लोहार तैयार करता था। कुम्हार मिट्टी के बर्तन और नाई मुंडन आदि के काम निपटाता था।फसल की कटाई में भी गांव के खेतिहर मजदूरों को साल भर के लिए अनाज मिल जाता था। इसकी मजदूरी लगभग 5 फीसदी तय है। यानी जितनी फसल होगी उसमेें 5 फीसदी कटइया को दी जाएगी।

मौजूदा कई वर्षों में यह मानक फसल के 20 पूरा (गट्ढे) काटने पर एक पूरा कटइया मजदूर को मिलता है। खेती न होने से इन सभी के घर भी अब अनाज के लाले हैं। प्रगतिशील किसान प्रेम सिंह बताते हैं कि गांव की इस परंपराओं को वस्तु विनिमय कहा जाता था।अब तो दैवीय प्रकोपों के अलावा मशीनरी कृषि के बढावे की भी भेंट यह सारे रीति रिवाज चढ़ गये ।

अब उधारी पर चल रही पंसारी की दुकान

नरैनी के मुकेरा गांव में परचून की दुकान चलाने वाली पुष्पा सविता बताती है कि वह कई सालों से व दुकान चला रही है। जब तक खेती ठीकठाक थी तो रोजाना गांव के लोग सौदा खरीदने आते और कीमत में गेहूं, चावल, चना, सरसों आदि दे जाते थे।

पुष्पा के मुताबिक रोजाना लगभग 20 किलो अनाज आ जाता था। इसे बेंचकर दुकान के साथ घर का खर्च भी चल जाता था। अब हालात बदल गए हैं। दो किलो भी अनाज नहीं आ रहा। न ही उतनी बिक्री होती है।

छोटी सी दुकान के बावजूद एक हजार रुपये से ज्यादा की उधारी गांव वालों पर पड़ी है। ऐसे हालात में घर और दुकान दोनों ही चलाना मुश्किल हो रहा है। मजबूरन पति को मजदूरी के लिए परदेश भेज दिया था, वह भी कोरोना संक्रमण में लाक डाउन के चलते घर वापस आ गया ।

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