Samajwadi Party: मैनपुरी की जीत सपा को दे गई संजीवनी, बढ़ता कुनबा 2024 में बीजेपी के लिए बनेगी चुनौती
2024 Election: मैनपुरी उपचुनाव के नतीजों में विपक्ष के लिए उम्मीदों का नया दरवाजा खोल दिया है। इन दोनों सीटों पर सपा गठबंधन बड़े आराम से जीतने में कामयाब रही।
2024 Election: मैनपुरी और खतौली उपचुनाव के नतीजों ने उत्तर प्रदेश की राजनीति में विपक्ष के लिए उम्मीदों का नया दरवाजा खोल दिया है। सत्तारूढ़ बीजेपी द्वारा पूरी ताकत लगाए जाने के बावजूद इन दोनों सीटों पर सपा गठबंधन बड़े आराम से जीतने में कामयाब रही। उन्हें ये जीत विधानसभा चुनाव में मिली करारी शिकस्त के 8 माह बाद मिली है, जिसके बाद से उनका आत्मविश्वास बढ़ा है। समाजवादी पार्टी जीत के इस लय को आने वाले आम चुनाव तक बरकरार रखना चाहती है।
उपचुनाव के नतीजे ने सपा का बढ़ाया कद
विधानसभा चुनाव में लगातार दूसरी बार बीजेपी के हाथों पिटने के बाद सपा सुप्रीमो और नेता प्रतिपक्ष अखिलेश यादव अपने ही पार्टी के नेताओं और सहयोगी दलों के नेताओं के निशाने पर आ गए थे। उनके कार्य संस्कृति की खुलेआम आलोचना की जाने लगी। लेकिन मैनपुरी लोकसभा उपचुनाव में पत्नी डिंपल यादव की बीजेपी उम्मीदवार पर ऐतिहासिक जीत ने सारा खेल पलट दिया। इसके अलावा उनके गठबंधन सहयोगी रालोद प्रमुख जयंत चौधरी ने भी वेस्ट यूपी की खतौली विधानसभा सीट पर उपचुनाव में बीजेपी को हराकर उससे ये सीट छीन ली। इन चुनाव परिणामों ने विधानसभा चुनाव के बाद गठबंधन से छिटके छोटे दलों के बीच सपा के कद को एकबार फिर बढ़ाया है।
सबसे बड़ी सफलता परिवार की एकजुटता
उपचुनाव के नतीजों ने न केवल यूपी की राजनीति में पूर्व सीएम अखिलेश यादव की जमीन को मजबूत किया है बल्कि उनके परिवार को भी एकजूट किया है। चाचा शिवपाल यादव के साथ उनका विवाद अक्सर मीडिया में सुर्खियां पाता था। दोनों चाचा-भतीजे सार्वजनिक रूप से एक दूसरे के खिलाफ जमकर बयानबाजी किया करते थे, जिसका सपा के वोटरों में एक तरह से भ्रम की स्थिति पैदा हो गई थी। जिसका फायदा बीजेपी को मिल रहा था।
बीजेपी काफी समय से शिवपाल को अखिलेश के खिलाफ इस्तेमाल करने की कोशिश कर रही थी, जिसमें वो कुछ हद तक कामयाब भी रही। मैनपुरी में जब बीजेपी ने रघुराज शाक्य को मैदान में उतारा तब सभी को लगा कि शिवपाल डबल गेम खेल रहे हैं। क्योंकि शाक्य उन्हीं के करीबी थे। लेकिन चुनाव नतीजों ने तय कर दिया कि चाचा-भतीजे के बीच अब कोई गिला-शिकवा नहीं रह गया है। शिवपाल के सपा में वापस आ जाने से फायदा ये होगा कि जो नेता अब तक अखिलेश से मतभेद के कारण पार्टी से दूर थे, अब वे उनके जरिए फिर से पार्टी के साथ जुड़ सकते हैं। ओमप्रकाश राजभर का बयान इसका उदाहरण है।
सपा से अलग हुए दलों ने दिए नरमी के संकेत
2022 के विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी ने अपनी पिछली गलतियों से सबक लेते हुए इस बार केवल छोटी पार्टियों के साथ गठबंधन किया। इनमें वेस्ट यूपी में आरएलडी और ईस्ट यूपी में सुभासपा, महान दल और जनवादी पार्टी (सोशलिस्ट) जैसे दल शामिल हैं। चुनाव नतीजों के आने से पहले इस गठबंधन का काफी शोर था लेकिन जब नतीजे आए तो अखिलेश यादव का ये प्रयोग भी बुरी तरह असफल रहा। हालांकि, उनकी सीटें 100 का आंकड़ा जरूर पार कर गई थीं।
हार के बाद ही सहयोगी दलों के तेवर लगे बदलने
हार के बाद ही सहयोगी दलों के तेवर बदलने लगे। अखिलेश यादव के खिलाफ सुभासपा प्रमुख ओमप्रकाश राजभर खुलेआम बयानबाजी करने लगे। दोनों ओर से वाकयुद्ध छिड़ गया था। इसके अलावा सपा के सिंबल पर चुनाव लड़ने वाले चाचा शिवपाल यादव भी अखिलेश के खिलाफ हमलावर हो गए। जनवादी पार्टी (सोशलिस्ट) के नेता संजय चौहान भी विधान परिषद की सीट न मिलने को लेकर सपा सुप्रीमो से खफा हो गए। उपचुनाव के नतीजों के बाद इन सभी दलों के तेवर नरम पड़ गए हैं। सभी ने 2024 में सपा के साथ चुनाव लड़ने की बात को खारिज नहीं किया है।
लेकिन इससे पहले ये दल आगामी निकाय चुनाव में सपा के प्रदर्शन को देखना चाहते हैं। इसका आकलन करने के बाद ही वे स्पष्ट रूप से अपने निर्णय की ओर बढ़ेंगे। ऐसे में यदि एकबार फिर ये सभी छोटी पार्टियां सपा के मातहत एकजुट होती हैं तो बीजेपी के लिए 2024 की लड़ाई मुश्किल हो जाती है। यूपी में अगर सीटों की संख्या घटती है तो बीजेपी के लिए अपने बल पर फिर से बहुमत पाना मुश्किल हो सकता है। क्योंकि बिहार समेत अन्य हिंदी पट्टी के राज्यों में पार्टी अपने पीक पर पहुंच चुकी है।