Muktibodh Jayanti: मुक्तिबोध जयंती पर डॉ. वंदना चौबे ने कहा- मित्रता बड़ी चीज है, साझा संघर्ष बड़ी चीज है
Muktibodh Jayanti: गांधी पीजी कॉलेज के हिंदी विभाग और प्रगतिशील लेखक संघ की स्थानीय इकाई के तत्वाधान में आयोजित संगोष्ठी “मुक्तिबोध की रचनाधर्मिता और हमारा समय” का आयोजन किया गया।
Muktibodh Jayanti: यदि आप गजानन माधव मुक्तिबोध केप्रशंसक हैं तो ये खबर आप के लिए है। और नहीं हैं, तो पढ़ने के बाद बन जाएंगे। बुधवार को आज़मगढ़ के मालटारी में स्थित गांधी पीजी कॉलेज के हिंदी विभाग और प्रगतिशील लेखक संघ की स्थानीय इकाई के तत्वाधान में आयोजित संगोष्ठी "मुक्तिबोध की रचनाधर्मिता और हमारा समय" का आयोजन किया गया।
"मुक्तिबोध की रचनाधर्मिता और हमारा समय" में बतौर मुख्य वक्ता, प्रलेख की बनारस इकाई की सचिव और आर्य महिला पीजी कॉलेज में सहायक प्रोफेसर डॉ. वंदना चौबे ने अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि मुक्तिबोध का साहित्य बहुत बड़ा है, बहुत विस्तृत है उनका लेखन। जो कुछ मैंने महसूस किया है, देखा है सुना है जिया है। मुक्तिबोध को जाने-अनजाने में समाज से काट दिया गया है। मुक्तिबोध ने कुछ ऐसे कठिन प्रश्न समाज के सामने रखे जिसका जवाब उनके विरोधी तो क्या खुद उनके अपने शिविर के लोग नहीं दे सके। उनके जीते-जी नहीं दे सके और उनकी मृत्यु के बाद अपने-अपने ढंग से व्याख्यायित करने का बाजार बना।
तो मुक्तिबोध इस मायने में बहुत कठिन हो गए हमारे लिए। दूसरी चीज यह कि मुक्तिबोध उतने कठिन हैं नहीं जितना उन्हें बनाया गया। बेहद ही मित्र हैं। हो सकता है कि उनके साथ चलने में थोड़ी कठिनाई हो। लेकिन धीरे-धीरे वह कठिनाई मिट जाती है। और अगर ज्ञान को पाना है और अगर आपके अंदर जिज्ञासा है समाज को समझने की कि इतनी सारी चीजें जो चल रही हैं उसका क्या समाधान होगा, राजनीति कैसे समझी जाए बिना राजनीति के तो आप कविता भी नहीं समझ सकते, दुनिया भी नहीं समझ सकते। तो राजनीति कैसी देखी जाए इस समाज के ताने-बाने को कैसे समझा जाए। यह इतना आसान नहीं है जितना आसान दिखाई देता है। तो मुक्तिबोध के यहाँ जाने के लिए थोड़ी कठिनाई का सामना करना पड़ेगा। लेकिन जब आप मुक्तिबोध से मित्रता कर लेंगे तो वह खुद भी मित्रता कर लेंगे।
बीच-बीच में विद्यार्थियों की करतल ध्वनि के बीच अपनी बात रखते हुए उन्होंने कहा कि मुक्तिबोध बेहद संवादी हैं और वह एक दूसरा पात्र रचते हैं, जैसे कि विपात्र तो एक पात्र तो वह खुद थे और अपने ही भीतर ही उन्होंने एक दूसरा पात्र रच लिया। इसी तरह से किसी मित्र को अपने पात्र के रूप में रख लेंगे और उससे वह कहेंगे कि मुक्तिबोध अपने दूसरे पात्र के जरिए अपनी ही चीजों को काट-पीटकर एक दूसरा मनुष्य रचने की कोशिश करते हैं। जिसको वह आत्म-विश्लेषण कहते हैं और वह कहते हैं कि इसके बिना हमारे विचारों की दुनिया बन नहीं सकती है। दूसरे कवियों की तरह मुक्तिबोध सिर्फ यह नहीं बताते कि क्या होता है और समस्या क्या है, वह यह भी बताएंगे कि इसका समाधान क्या है, हो सकता है कि यह बहुत कठिन हो दूर हो, वह समाधान रखते हैं इसलिए इस मायने में वह ज्यादा वैचारिक कवि हैं। और बहुत ज्यादा संवेदनशील कवि हैं।
मुक्तिबोध कहते हैं कि जिसके पास यह जिज्ञासा है, जिसको समाज को बदलना है, जिसको समझना है इस समाज के गणित को, जो इस परेशानी में पड़ेगा वह पीछे नहीं लौटेगा, आगे ही जाता जाएगा। उनकी तमाम कविताएं हैं, जिसमें वह सबको मित्र के रूप में रखते हैं, सहचर के रूप में देखते हैं। हिंदी साहित्य में मित्र या सहचर का इस्तेमाल जितना मुक्तिबोध ने किया है, उतना किसी और साहित्यकार ने किया ही नहीं। और मित्रता बड़ी चीज है, साझा संघर्ष बड़ी चीज है। आप देखिए उनकी कितनी कविताओं के तो शीर्षक हैं, मेरे सहचर मित्र। उनकी एक कहानी का शीर्षक है मैत्री की मांग। जिसमें एक स्त्री है जो मित्रता मांगती है लेकिन उसे मित्रता की जगह अलग-अलग ढंग के संबंध मिलते हैं। प्रेम है, पति है, बच्चे हैं। दूसरी तरह के संबंध हैं लेकिन मित्र का संबंध नहीं था। और यह दौर है जब लोग प्रेमपत्र तो बहुत लिख रहे थे लेकिन प्रेम कैसा प्रेम था। हमारे सामंती समाज का, हमारे मिडिल क्लास समाज का प्रेम कैसा था। प्रेम के भीतर, किसी भी तरह के संबंध के भीतर सबसे पहले दोस्ती-मैत्री की मांग होती है।
उन्होंने आगे कहा कि मुक्तिबोध कहते हैं कि मुझे कदम-कदम पर चौराहे मिलते हैं और वह चौराहा क्या है हमारे मन के जंजाल हैं, उलझने हैं। मान लीजिए कि आपने एक समस्या को हल किया तो उस समस्या के भीतर से हजार समस्याएं निकल आती हैं, हजार अंतरविरोध और निकलेंगे। कोई सबसे तो नहीं गुजर सकता लेकिन जो आगे पाँव नहीं धरेगा वह तो जानेगा ही नहीं कि आगे और भी दिक्कतें हैं। मुक्तिबोध ने मध्यवर्गीयपन की आलोचना अपनी कविता में रखी है। देश को इस हाल में पहुँचाने वाली पार्टियों पर भी उन्होंने प्रश्नांकित किया है। वह मनुष्य की मनुष्यता को परखते हैं कि वह अंततः क्या है? मनुष्य की चिंता का एक केंद्र और है कि मनुष्य संपूर्ण कैसे होगा। मनुष्य जब अपने संपूर्ण रूप में व्यक्त होगा, आप जो हमारे सामने कहना चाहते हैं नहीं कह सकते। तमाम लोग सरकार के सामने जो कहना चाहते हैं नहीं कह सकते। घर-परिवार के सामने जो कहना चाहते हैं नहीं कह सकते, हम जो करना चाहते हैं नहीं कर सकते।
हम वह करते हैं जो हमसे करवाया जाता है। और धीरे-धीरे हमें लगता है कि वह तो हमारी ही मरजी की चीज है, वह तो हम ही करना चाहते हैं। इसलिए अभिव्यक्ति हमारे भीतर कहीं खो गई है, दब गई है। इसलिए मनुष्य जो और सुंदर और हीरे जैसा अगर वह बेहतर होता तो अपने समाज के लिए अपने लोगों के लिए, दुनिया के लिए ज्यादा बेहतर मनुष्य होता। लेकिन उसकी मनुष्यता को इस तरह से छाँट दिया गया है कि उसे ही नहीं पता चलता कि वह है क्या? हो है कहाँ? इसलिए मुक्तिबोध इस खोज की लड़ाई लड़ते हैं और कहते हैं कि अब अभिव्यक्ति के सारे खतरे उठाने ही होंगे और तोड़ने होंगे गढ़ और मठ कई। मुक्तिबोध कहते हैं कि हमारे भीतर जो गढ़ और मठ हैं, जो हमने नहीं बनाए हैं, दूसरों ने बनाए हैं। लगता है कि वह खुद हमारे हैं।
डॉ. वंदना चौबे ने आगे कहा कि हमारे यहाँ राजनीति को लेकर बहुत छोटी समझ है। राजनीति तो आपके कदम-कदम पर है, दो-दो मिनट में आपकी जिंदगी में शामिल है राजनीति। मुक्तिबोध बार-बार अवचेतन की यात्रा कराते हैं। और वह कहते हैं कि उस अवचेतन को कैसे पहचानें, जब हम अभिव्यक्त ही नहीं हो पा रहे हैं।
हमें पता ही नहीं कि हमारे भीतर सच में क्या है, जो हम चाहते हैं, उसे हम बोल नहीं पाते। अवचेतन के किसी तलघर में हमने अपने सच को गुहावास दे दिया है। मुक्तिबोध पूँजीवादी समाज की जड़ को पकड़ चुके थे, मुक्तिबोध यूँ ही नहीं लिखा करते थे। मुक्तिबोध जब पैदा हुए थे तो वह 1917 का जमाना था, जबकि सोवियत संघ बना था, मज़दूरों का देश बना था और सोवियत संघ का असर पूरी दुनिया पर था।
मुक्तिबोध ने भी भारत के इतिहास पर एक किताब लिखी थी जिसको बैन कर दिया गया था। इसीलिए मुक्तिबोध ने लिखा कि पूँजी से जुड़ा हुआ हृदय बदल नहीं सकता। पूँजी ने मनुष्य को मनुष्य से काट दिया है। व्यक्ति अपने को नहीं समझेगा तो बाहर की लड़ाई भी नहीं समझेगा और बाहर की राजनीति नहीं जानेगा तो खुद को भी नहीं जानेगा। इस रिलेशन को नहीं समझेंगे तो मुक्तिबोध आपसे छूट जाएंगे। चूँकि दुनिया श्रम से बनी है तो हमें जो इलाज मिलेगा, जो तरीका मिलेगा अपने को मुक्त करने का।
वह समूह में मिलेगा। मुक्ति अकेले में अकेले को नहीं मिलती। वह है तो सबके साथ है। उन्होंने जब मनुष्य के लिखा है तो उन्होंने स्त्रियों-दलितों और आदिवासियों समेत सबके लिए लिखा है। मुक्तिबोध कहते हैं कि ज्ञान पर कब्जा करके हमने किताबों को अलग और व्यवहार को अलग कर दिया है। ज्ञान मेहनतकश स्त्रियों-मज़दूरों के पास है। जबकि होना यह चाहिए कि किताब और व्यवहार के बीच एक संबंध होना चाहिए।
इस संगोष्ठी में मुख्य वक्ता के रूप में डॉ वंदना चौबे, एसोसिएट प्रोफेसर, आर्य महिला पी. जी. कालेज वाराणसी, डॉ संजय श्रीवास्तव, संपादक वर्तमान साहित्य, साहित्य भूषण सम्मान से सम्मानित एवं प्रलेस के जिलाध्यक्ष डॉ राजाराम सिंह, डॉ रवींद्रनाथ राय, डॉ. इंदु श्रीवास्तव, सचिव प्रलेस आजमगढ़, डॉ. रंजना सिंह सहित जिले के अनेक कवि कलाकार उपस्थित रहे। संगोष्ठी में उद्घाटन और स्वागत वक्तव्य प्रोफेसर शुचिता श्रीवास्तव ने किया। संगोष्ठी का संचालन प्रो.हसीन खान, अध्यक्ष हिंदी विभाग ने किया। इस संगोष्ठी और काव्य पाठ में महाविद्यालय के समस्त अध्यापकों, शोधार्थियों, छात्र-छात्राओं सहित अन्य कई महाविद्यालयों के अध्यापक उपस्थित रहे।