कोर्ट ने किया योगी सरकार से जवाब तलब, 27 मार्च को अध्यादेश पर अगली सुनवाई

सीएए के प्रदर्शनों के दौरान सरकारी व निजी संपत्ति को होने वाले नुकसान की भरपाई के लिए लाया गया योगी सरकार का महत्वाकांक्षी अध्यादेश कानूनी दांव पेंच में फंसता नज़र आ रहा है। इस अध्यादेश को संविधान विरोधी बताकर इसे रद्द किये जाने की मांग को लेकर दाखिल अर्जियों पर इलाहाबाद हाईकोर्ट ने यूपी सरकार से जवाब तलब   किया है।

Update: 2020-03-19 05:52 GMT

इलाहाबाद: सीएए के प्रदर्शनों के दौरान सरकारी व निजी संपत्ति को होने वाले नुकसान की भरपाई के लिए लाया गया योगी सरकार का महत्वाकांक्षी अध्यादेश कानूनी दांव पेंच में फंस सकता है। इस अध्यादेश को संविधान विरोधी बताकर इसे रद्द किये जाने की मांग को गई गई । इसकेे लिए दाखिल अर्जियों पर इलाहाबाद हाईकोर्ट ने यूपी सरकार से जवाब तलब किया है। हाईकोर्ट ने योगी सरकार को जवाब दाखिल करने के लिए सिर्फ एक हफ़्ते की मोहलत दी है।

हालांकि अदालत ने अंतिम फैसला आने तक अध्यादेश पर रोक लगाने का कोई अंतरिम आदेश जारी नहीं किया है। अध्यादेश पर फौरी रोक नहीं लगने से योगी सरकार को थोड़ी राहत ज़रूर मिली है। मामले की सुनवाई आज चीफ जस्टिस गोविन्द माथुर और जस्टिस समित गोपाल की डिवीजन बेंच में हुई। अदालत इस मामले में सत्ताइस मार्च को फ़िर से सुनवाई करेगी। हाईकोर्ट के फैसले के मुताबिक़ यूपी सरकार को पचीस मार्च तक अपना जवाब दाखिल करना होगा, जबकि याचिकाकर्ता उसके अगले दो दिनों में अपना पक्ष रखेंगे।

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बता दें हाईकोर्ट के वकील शशांक श्री त्रिपाठी, महा प्रसाद और लखनऊ की सामाजिक कार्यकर्ता असमा इज़्ज़त ने योगी सरकार के अध्यादेश को संविधान की मूल भावना के खिलाफ बताते हुए इसके ख़िलाफ़ हाईकोर्ट में पीआईएल दाखिल की गई है। पीआईएल में अध्यादेश को रद्द किये जाने और अंतिम निर्णय आने तक इसके अमल पर रोक लगाए जाने की मांग की गई थी। इन अर्जियों में कहा गया था कि यूपी सरकार का यह अध्यादेश संविधान की मूल भावनाओं के खिलाफ है। यूपी सरकार को इस तरह के अध्यादेश लाने का कोई संवैधानिक अधिकार ही नहीं है। संविधान के अनुच्छेद 323 बी के अधिकारों के तहत जिन आठ बिंदुओं पर अध्यादेश लाया जा सकता है, उनमे यह विषय शामिल नहीं है। इसके अलावा क्रिमिनल मामलों पर अध्यादेश लाने का नियम ही नहीं है। सरकार ने क्रिमिनल मामले पर आर्डिनेंस बनाया, लेकिन गुमराह करने के लिए इसे सिविल नेचर का बताया है।

 

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मालूम हो कि यूपी सरकार ने लखनऊ में हिंसा के आरोपियों के पोस्टर लगवाए थे। इस पोस्टर पर हाईकोर्ट ने सुओ मोटो लेते हुए सुनवाई की थी और सरकार को इसे हटाने का आदेश दिया था। यूपी सरकार ने हाईकोर्ट के आदेश का पालन करने के बजाय फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी। सुप्रीम कोर्ट से सरकार को कोई फौरी राहत नहीं मिली और मामला लार्जर बेंच को रेफर हो गया। सरकार पोस्टर हटाने से बचने के लिए उत्तर प्रदेश लोक तथा निजी संपत्ति क्षति वसूली अधिनियम -2020 ले आई। इस अध्यादेश को राज्यपाल की भी मंजूरी मिल चुकी है। याचिकाकर्ताओं की तरफ से आज सुप्रीम कोर्ट से आए सीनियर एडवोकेट कोलिन गोंजालविस ने बहस की।

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