मरने वाली ये लड़की फिल्म 'कबीर सिंह' की प्रीति ही तो हैं...
बढ़ती तकनीक और सोच के बाद भी आज हमारे समाज में संस्कारों का स्तर अभी भी एक ही जगह तक सीमित हैं। बेटियों को मां-बाप बचपन से सीख सिखाने लगते हैं कि बिटिया ऐसे काम न करों, वैसे काम न करों। तुम्हें दूसरें घर जाना हैं क्या ऐसे ही वहाँ जाकर नाक कटाओगीं।
लखनऊ : बढ़ती तकनीक और सोच के बाद भी आज हमारे समाज में संस्कारों का स्तर अभी भी एक ही जगह तक सीमित हैं। बेटियों को मां-बाप बचपन से सीख सिखाने लगते हैं कि बिटिया ऐसे काम न करों, वैसे काम न करों। तुम्हें दूसरें घर जाना हैं क्या ऐसे ही वहाँ जाकर नाक कटाओगीं। बेटी को मां-बाप इतने लाड-प्यार से पालते हैं, किसी चीज की कमी नहीं होने देते। उन्हे लड़कों की तरह पालते हैं। तो फिर ऐसी बातें क्यों करते हैं? क्योंकि आखिर लड़कियां रहेंगी तो लड़कियां ही। कितना भी पढ़ी-लिखी हों, लेकिन अपने जोड़ीदार से हमेशा कम ही भापी जाती हैं। ये हैं आज के जमाने, समाज की सोच?
लाडली बिटिया
बेटी के पढ़-लिख जाने के बाद मां-बाप गर्व से कहते हैं मेरी बेटी इतनी पढ़ी-लिखी... फक्र महसूस करते हैं अपनी बेटी पर। लेकिन एक दिन जब लड़की पराई हो जाती हैं तो एक बार मां दुनिया भर की पढ़ाई के बाद एक और पाठ सुनाती हैं और कहती हैं कि बेटी मेरी माँ ने मेरी शादी में मुझें ये बात बताई थी, आज मैं तुम्हें बताने जा रही हूँ-
मायके से बेटी की डोली उठती हैं और ससुराल से उसकी अरथी
सुसुराल में बाते को सुनना सीखना, सबका ध्यान रखना और हां शादी में मायके से बेटी की डोली उठती हैं और ससुराल से उसकी अरथी। बेटी मतलब तो तुम समझ ही गयी होगीं। इस बात से भले ही माँ और बेटी दोनों की आँखों में भले ही अपार आंसू क्यों न भर जाते हो, लेकिन फिर भी अपनी बात पर द्दढ़ रहने को कहती है।
आखिर ये कैसी परम्परा हैं... जो पैदा करने वाली माँ ही अरथी की बात करती हैं।
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हाल ही की कहानी...
उत्तर प्रदेश के कानपुर शहर में एक उच्च मध्यम वर्गीय परिवार में जन्मी हर्षिता। मां-बाप ने बचपन से खुब लाड-प्यार से पाला। कभी लड़का-लड़की में कोई फर्क नहीं किया। कॉन्वेंट स्कूल, कॉलेज में भेजा। हर तरह की छूट दी, साथ ही समाज के हिसाब से समझदार भी बनाया।
फिर एक दिन अच्छा लड़का देखकर शादी भी कर दी। अपनी अच्छी बेटी को दूसरों के हाथों सौंप दिया और वहीं संस्कारी वाली सीख सुना दी उसकी माँ ने भी। बेटी ससुराल में खुश होगी, यह सोचकर मां-बाप निश्चित रहते थे। लेकिन हर बार सोच सही नही होती न! और खबर मिली कि दामाद और सास-ससुर ने मिलकर 7वीं मजिंल से लड़की कों धक्का दे दिया।
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अब लड़की मर तो गई, मां-बाप रो रहे हैं। पुलिस, थाना, कोर्ट-कचहरी करेंगे, पति को जेल भिजवाएंगे, सास-सुसर को सलाखों के पीछे सड़वाएंगे ये उद्देश्य रह गया प्यारी बिटिया के मां-बाप का। ये तो ठीक-ठाक परिवार की लड़की थी, तो मां-बाप इतना कर भी रहें हैं अगर कहीं कमजोर तबके की लड़की होती तब तो मां-बाप चाह कर भी कुछ नहीं कर सकतें और लड़की को आखिरी बार अरथी में देखकर ही आंसू बहा लेते।
हर्षिता के ससुराल वालों की इस हरकत से पूरा कानुपर शहर हैरान है। दुखी है। समाचार पत्रों में हर रोज हर्षिता के लिए इंसाफ की गुहार लगा रहे हैं। कार्यकर्ताओं ने जुलूस निकाले हैं। महिला-अधिकार वाले कचहरी में सभा कर रहे हैं। पूरा शहर सड़कों पर उतर आया है। पर क्या बिटिया वापस आ पाएगीं।
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आँखों देखा-हाल
मैं जब छोटी थी, क्लास 5वीं में पढ़ती थी, तब एकदिन मोहल्लें में बहुत शोर था, पुलिस आई हुई थी, मैं घर में पूछा कि ये सब क्या हो रहा हैं पुलिस क्यों आई हैं? तब मैनें बात करते हुए सुना कि दहेज की वजह से ससुराल में रह रही लड़की पर मिट्टी का तेल डालकर जला दिया गया।
मैं तो डर ही गई उस पल जिस समय ये मेरें कानों में सुनाई दिया।
पूरा मामला ये था कि ससुराल वालों ने अपनी बहू को दहेज के लिए जलाकर मार डाला था। लड़की मर गई तो मां-बाप और भाई की आंख खुली। जिन मां-बाप ने बेटी को दबकर रहना सिखाया था, आज मिल ही गया उस सीख का सबक।
भाई को हुआ एहसास
हर्षिता के लिए विमेन एक्टिविस्टों ने कचहरी में धरना दिया। सभा की। सबने कहा कि दहेज के हत्यारों को फांसी हो। लड़की का भाई जब बोलने खड़ा हुआ तो बहुत कुछ बोला। लड़की के पति और ससुराल वालों को सौ-सौ बातें बोली।
भाई ने बहुत कुछ बोला, बस एक बात नही बोली, कि जब मेरी बहन ससुराल में पिट रही थी, तब हम भी उसकी मदद के लिए नही आए। जब वो उस घर को छोड़कर हमारे पास उम्मीद और मदद मांगने आई थी, तब भी हमने “अब पति का घर ही तुम्हारा घर है,” कहकर उसे वापस भेज दिया।
उठ गई ससुराल से अरथी
दीदी ने अपनी तकलीफ बताने की कोशिश भी की, तो हमने उसे सहने और एडजस्ट करने का पाठ पढ़ाया। मेरी मां ने विदा करते हुए उससे वही कहा था, जो उनकी मां ने उनसे कहा था, कि “पिता के घर से डोली और पति के घर से अरथी उठती है औरत की।” तो वही तो हुआ जो आपने चाहा था ना माँ।
उठ गई अरथी दीदी की। बिना मरे छोड़ा नहीं उसने पति का घर। न आपने छुड़वाया। मर गयी वहीं ससुराल में। अगर हमने मदद कर दी होती, तो आज मेरी दीदी मेरें साथ होती। काश बचपन की तरह एक बार भी पापा ने गिरते हुए उसे सम्भाल लिया होता। एक बार भरोसा दे दिया होता, हिम्मत से उसे बांधा होता।
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इतने नाजों से पली मेरी बहन उसे जीते-जागते आग में जला दिया, और उन्हें मरने से पहले भनक भी नहीं लगती कि ऐसा भी कुछ उनके साथ होने वाला है।
मैं आपसे ये सवाल पूछती हूँ, कि कानपुर वाली हर्षिता के केस में उसका क्या कसूर था? मां-बाप ही तो अपनी बेटियों को सहना और चुप रहना सिखाते हैं। अगर एक बार भी लड़की बोले कि उसके पति ने या दुनिया में किसी ने भी उस पर हाथ उठाया तो उन्हें क्या करना चाहिए था। या तो आपने ये सिखाया होता कि अपने ऊपर उठा हुआ हाथ तोड़ देना या फिर ये भरोसा ही दिया होता कि कोई तुम्हें छूकर देखे, हम तोड़ देंगे या तुम्हारें माँ-बाप हर पल तुम्हारे साथ हैं...
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नहीं, आपने उसे अच्छी लड़की बनना सिखाया और अच्छी लड़की कैसी होती है ये भी बताया। अच्छी लड़की सहनशील होती है, घर की इज्जत बचाने वाली होती है, पति की बुराई नहीं करती, उसे प्यार से ठीक करती है, अच्छी लड़की सहकर भी चुप रहती है। पलटकर जवाब नहीं देती। अच्छी लड़की की अच्छाई के गुण उसके जलने और सातवीं मंजिल से धकेल दिए जाने के बाद भी गाए जाते हैं। सब दोषी होते हैं इस हादसे के, सिवा मर गई लड़की के मां-बाप, परिवार, समाज और हमारे देश के महान संस्कारों के।
फिल्म कबीर सिंह बन रही नसीहत
इसमें कोई बड़ी बात नहीं जो फिल्म कबीर सिंह के चाहनेवालों की कमी नहीं हैं और इसी के चलते हिट भी गई। जिसमें बचपन से ही प्रीति सिक्का को उसके पिता ने दबा-धमकाकर रखते थें और अब वही उसने अपनी आदत में भी शामिल कर लिया। आगे चलकर कबीर सिंह के अजीब-गरीब व्यवहार करने पर भी प्रीति सब कुछ सहन करती थी। कबीर उस पर डॉमिनेट करे, उसे थप्पड़ मारे, उस पर हक जमाए, उसे अपनी प्रॉपर्टी समझे तो प्रीती को ये बातें भी न बुरी लगती हैं, क्योंकि प्रीती सिक्का के बाप ने पूरी जिंदगी अपनी पत्नी और बेटी के साथ ऐसा ही व्यवहार जो किया था।
जिस लड़की ने जिंदगी में सिर्फ आदेश देने और शासन करने वाला बाप देखा हो, मां को सिर झुकाकर पति की बात मानते देखा हो, बाप को मां पर हाथ उठाते देखा हो, उसका बॉयफ्रेंड उसके साथ ये सब करे तो उसे क्यों अजीब या बुरा लगेगा। वो यही देखकर बड़ी हुई है। उसे यही सिखाया गया है।
प्रीति बनी नाचती गुड़िया
अगर कॉलेज का बॉयफ्रेंड नहीं होता, बाप की मर्जी का लड़का होता तो भी प्रीती पर राज ही करता। प्रीती सिक्का उसके थप्पड़ का जवाब थप्पड़ से नहीं देने वाली थी।
ये प्रीती सिक्का जैसी लड़कियां ही हैं, जिनकी मर्जी के खिलाफ लड़का भरे कॉलेज में उन्हें चूम लेता है और वो सिर झुकाकर खड़ी रहती हैं। जिनका पति जब जी में आए दो तमाचे जड़ देता है और वो रसोई में छिपकर आंसू बहा लेती हैं।
जो सारी दुनिया में मुंह मारकर आए आदमी को सुबक-सुबककर सफाई देती हैं अपनी पवित्रता की। जिसने एक तक किसी और मर्द को अपनी उंगली का पोर तक भी नहीं छूने दिया। ये वही प्रीती सिक्का हैं, जिनका पति उन्हें सातवीं मंजिल से धक्का दे देता है और वो मर जाती हैं। लेकिन कुछ कर न पाती हैं।
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लोग कबीर सिंह के नाम को रो रहे हैं, जबकि प्रॉब्लम प्रीती है। कानुपर वाले एक्टिविस्ट हर्षिता के ससुराल वालों के नाम को रो रहे हैं, जबकि प्रॉब्लम हैं हर्षिता के मां-बाप, पूरा समाज, देश और यहाँ के संस्कार।
संस्कारों का समाज
ऐसे ही संस्कारों का सिलसिला चलता रहा तो लड़कियां मरती रहेंगी क्योंकि जिस समाज में वो रह रही हैं वही समाज उन्हें मरना सिखा रहा हैं।
अगर बेटी को अंग्रेजी स्कूल में पढ़ाना, जींस पहनाना, घूंघट न करवाना, पैर न दबवाना ही आधुनिक होने की निशानी है, तो आप नकली मॉडर्न हैं। जिसने बेटी को शौक के लिए पढ़ाया, आत्मनिर्भर होने के लिए नहीं। आप वही हैं, जिन्होंने बेटी के जन्म लेते ही दहेज बटोरना शुरु कर दिया और बेटे के लिए संपत्ति।
जिन्होंने ससुराल में लात खा रही बेटी को समझा-बुझाकर वापस लात खाने भेज दिया, नरक में मरने के लिए ढकेल दिया, तो आप वही हैं, जो फिल्म में कबीर सिंह को देखकर ताली बजा रहे थे और प्रीती सिक्का को देखकर आंसू बहा रहे थे। क्या मार्डन है ये समाज और यहाँ के संस्कार?
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हमारा समाज ही है लड़कियों की दुर्गति के लिए जिम्मेदार। बेटी के मां-बाप चाह लें तो किसी पति में इतना दम नहीं जो हाथ भी उठा सकें। सातवीं मंजिल से फेकना तो बहुत बड़ी बात हो गई।