अमित शाह ने अखिलेश के ‘मिशन कांशीराम‘ की ऐसे निकाली काट...भाजपा के सबसे कमजोर दुर्ग में चल दिया सबसे बड़ा दलित कार्ड

UP Politics: यूपी के कौशांबी में दलित सम्मेलन को अमित शाह ने संबोधित कर अखिलेश को मात देने की चली चाल, कौशांबी को दलित राजनीति का केंद्र माना जाता है, जहां 2022 में बीजेपी अपना खाता भी नहीं खोल सकी थी।

Update:2023-04-07 21:08 IST
Amit Shah and Akhilesh yadav (Photo: Social Media)

Up Politics: लोकसभा चुनाव होने में अभी भले ही एक साल का समय है, लेकिन राजनीतिक दलों ने अभी से अपनी शतरंजी चालें चलनी शुरू कर दी हैं। राजनीति में एक-दूसरे की विरोधी पार्टियां एक-दूसरे को शह और मात देने के लिए चालें चलती रहती हैं। सोमवार को अखिलेश यादव ने रायबरेली में कांशीराम की मूर्ति का अनावरण कर दलित वोटों को अपने पक्ष में लाने के लिए दांव चला ही था कि भाजपा के चाणक्य कहे जाने वाले केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने उसको मात देने की चाल चल दी।

अमित शाह ने कौशांबी में शुक्रवार को दलित सम्मेलन का उद्घाटन किया और अखिलेश पर जमकर निशाना साधा। लोकसभा चुनाव 2024 से ठीक पहले कौशांबी महोत्सव और दलित सम्मेलन को यूपी के दलित वोट बैंक को लुभाने की कवायद के तौर पर देखा जा रहा है। यहां समझने की बात यह है कि दलित वोटों के लिए सियायत इतनी तेज क्यों हो गई है। यूपी में दलित वोट लगभग 22 प्रतिशत है। यह वोट हर पार्टियों के लिए काफी महत्वपूर्ण है। कभी मायावती का परंपरागत वोट रहा दलित आज उनसे खिसकता जा रहा है। अब यह वोट काफी हद तक भाजपा के पाले में आ चुका है। इसका कारण है मायावती का यूपी में जनाधार का कम होना। वहीं अब इन वोटों पर अखिलेश की भी नजरें टिकी हैं और इसकी काट के लिए भाजपा ने अपना प्लान भी तैयार कर लिया।

शाह ने संभाला मोर्चा

सपा ‘मिशन कांशीराम‘ के जरिए दलितों के साधने में जुटी है तो बीजेपी भी दलितों को अपने पाले में मजबूती के साथ बनाए रखना चाहती है। अमित शाह ने शुक्रवार को कौशांबी में दलित सम्मेलन को संबोधित करने के साथ ही यूपी में बीजेपी के दलित मिशन को धार देने के लिए मोर्चा संभाल लिया है। उन्होंने शुक्रवार दो दिवसीय कौशांबी महोत्सव का उद्घाटन किया और दलित सम्मेलन को संबोधित किया। यह आयोजन बीजेपी के स्थानीय सांसद विनोद सोनकर ने करवाया था। खास बात यह रही कि इसमें मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के साथ ही उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य, उपमुख्यमंत्री ब्रजेश पाठक, कैबिनेट मंत्री नंद गोपाल गुप्ता नंदी, प्रभारी मंत्री सुरेश राही और सहकारिता मंत्री जेपीएस राठौर, प्रदेश अध्यक्ष भूपेंद्र सिंह चैधरी भी मौजूद रहे। अमित शाह ने कौशांबी में करीब 612 करोड़ के विकास की सौगात दिया, जिनमें ज्यादातर योजनाएं दलित उत्थान और दलित बस्तियों के लिए समर्पित बताई जा रही हैं।

बीजेपी का सबसे कमजोर दुर्ग!

कौशांबी में दलित सम्मेलन ऐसे समय में हो रहा है, जब यूपी विधानसभा चुनाव के बाद से बसपा की स्थिति बेहद कमजोर और हताशा की है तो वहीं अखिलेश यादव दलित मतदाताओं को साधने में लगे हैं। अब देखा जाए तो दलित वोटों को लेकर सपा और बीजेपी के बीच शह-मात का खेल शुरू हो चुका है। कौशांबी दलित बहुल इलाका है, यहां पासी समुदाय बड़ी संख्या में हैं। 2022 के यूपी विधानसभा चुनाव में बीजेपी कौशांबी की सभी सीटें हारी थी और सपा सभी सीटें जीतने में कामयाब रही थी। यही नहीं बीजेपी के ओबीसी चेहरा माने जाने वाले उप मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य भी अपनी सीट नहीं बचा पाए थे। सपा के जीत में सबसे अहम भूमिका इंद्रजीत सरोज ने निभाई थी, जो बसपा से आए हैं और अखिलेश यादव ने उन पर भरोसा जताते हुए उन्हें सपा का राष्ट्रीय महासचिव बना रखा है।

...तो बीजेपी से सपा का मुकाबला हो जाएगा आसान

सपा सुप्रीमो अखिलेश यादव ने सोमवार को रायबरेली में कांशीराम की मूर्ति का अनावरण किया। इसके साथ ही उन्होंने ‘मिशन कांशीराम‘ को लेकर माहौल बनाने की जिम्मेदारी स्वामी प्रसाद मौर्य के साथ-साथ दलित नेता इंद्रजीत सरोज को दे रखी है। दलित नेता अवधेश प्रसाद को भी अखिलेश ने जिम्मेदारी दे रखी है। सपा की कोशिश है कि वह अपने कोर वोट बैंक यादव-मुस्लिम को साधे रखते हुए दलितों को अपने साथ जोड़ने की है। जानकारों का मनना है कि सपा को 2022 के विधानसभा चुनाव में मिले करीब 36 फीसदी वोटबैंक में पांच से सात फीसदी अतिरिक्त वोट जुड़ जाए तो उसका बीजेपी से मुकाबला आसान हो जाएगा। अखिलेश का रायबरेली से शुरू हुआ ‘मिशन कांशीराम‘ इसी रणनीति का हिस्सा माना जा रहा है।

और बीजेपी ने भी शुरू कर दिया काम

यूपी में अखिलेश की दलित राजनीति को देखते हुए बीजेपी केवल सतर्क ही नहीं है दलित वोटों को सपा की ओर जाने से रोकने की रणनीति पर काम भी शुरू कर दिया है। 14 अप्रैल अंबेडकर जयंती से बीजेपी अनुसूचित जाति मोर्चा के लोग दलितों के घर-घर जाकर गेस्ट हाउस कांड की याद दिलाएगी और उन्हें बताएगी कि मायावती की जान बीजेपी के लोगों ने उस समय बचाई थी। इस तरह बीजेपी ने अखिलेश की दलित राजनीति को मात देने और 2024 लोकसभा चुनाव में दलित वोटों को अपने साथ हर हाल में जोड़े रखने की रणनीति बनाई है।

किसी भी दल का खेल बना व बिगाड़ सकते हैं

यूपी में सबसे अधिक दलित मतदाता हैं। सूबे में 22 फीसदी दलित मतदाता हैं, जो यूपी की राजनीति में किसी भी दल का खेल बनाने और बिगाड़ने में सक्षम हैं। दलित सूबे में दो हिस्सों में बंटा है। एक जाटव है जिनकी आबादी 55 फीसदी है तो दूसरा गैर-जाटव जिसकी आबादी 45 फीसदी है। गैर-जाटव दलित करीब 50-60 जातियां और उप-जातियां शामिल हैं। बतादें कि मायावती दलितों की सबसे बड़ी आबादी वाले जाटव समुदाय से आती हैं और कांशीराम भी इसी जाति से थे। जाटवों के बाद पासी और धोबी सबसे आबादी वाली जाति हैं। पासी, धोबी, कोरी, खटिक, धानुक, खरवार, वाल्मिकी सहित अन्य दलित जातियों को गैर-जाटव कहा जाता है। एक समय था जब दलित वोट कांग्रेस के साथ था, लेकिन राजनीति में कांशीराम के आने के बाद यह वोट बसपा का परंपरागत वोट बन गया था। लेकिन यूपी में मायावती के लगातार चुनाव हारने से उनकी पकड़ दलित वोटों पर अब कमजोर हुई और वहीं बीएसपी से दलितों का मोहभंग होता दिखा है। अब गैर-जाटव दलित मायावती का साथ छोड़ चुका है। लोकसभा और विधानसभा के चुनाव में गैर-जाटव वोट बीजेपी के पाले में खड़ा दिखा है और इसका बीजेपी को लाभ भी दिखा।

बसपा का गिरते ग्राफ से दलित बेचैन

2022 के विधानसभा चुनाव में बसपा को कुल 12.88 फीसदी वोट और एक विधानसभा सीट मिली थी। बसपा की इतनी बुरी पराजय हुई और चुनाव के एक साल बाद भी मायावती उस तरह से सक्रिय नहीं हो सकीं जैसा की उन्हें होना चाहिए था। इसी के चलते विपक्षी दलों की नजर उनके परंपराग वोटबैंक पर टिक गई है। यही नहीं मायावती की 2022 के विधानसभा चुनाव में जाटव वोटों पर भी पकड़ कमजोर हुई है। दलित के जाटव और गैर-जाटव होने पर ही वोटों पर बीजेपी ने पकड़ बनाई तो सपा का भी ग्राफ पहले से बढ़ा है।

...तो इसलिए बीजेपी ने उठाया यह कदम

बीजेपी की दलित वोटों पर नजर यूं ही नहीं है। बीजेपी ने रणनीति इसीलिए शुरू की है कि 2022 के चुनाव में कुछ पासी बहुल जिलों में सपा ने बहुत अच्छा प्रदर्शन किया था, जिसमें कौशांबी, रायबरेली, अमेठी, अंबेडकरनगर, आजमगढ़, जौनपुर और प्रतापगढ़ शामिल थे। इतना ही नहीं सपा ने 2022 के यूपी विधानसभा चुनाव में जिन 111 सीटों पर जीत दर्ज किया था, उसे अगर लोकसभा सीटों के लिहाज से देखा जाए तो 27 सीटों पर भाजपा से आगे सपा खड़ी दिख रही है। ऐसे में बीजेपी की नजरें इन वोटों पर होना स्वभावित है।

इन सीटों पर किसकी पकड़?

उत्तर प्रदेश में विधानसभा की कुल 403 सीटें हैं जिसमें 86 सीट और लोकसभा की कुल 80 सीटों में से 17 सीट अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित है। इन सीटों के नतीजे तय करते हैं कि उत्तर प्रदेश में किस पार्टी का दबदबा होगा। 2022 के विधानसभा चुनाव में सुरक्षित सीटों के परिणाम देखें तो बीजेपी गठबंधन ने 67 सीटें जीती थीं तो सपा को 20 सीटें मिली थी। वहीं, 2007 में बसपा ने 61 सीटें तो 2012 में सपा को 58 सीटें मिलीं, जबकि 2017 में बीजेपी गठबंधन ने 72 सीटें जीती थीं। 2019 लोकसभा चुनाव में 17 सुरक्षित सीट के नतीजे देखें तो बीजेपी गठबंधन 15 और बसपा दो सीटें जीतने में सफल रही थी। हालांकि, बीजेपी से जीते 14 सांसदों में से 9 बसपा या सपा से आए हुए नेता थे।

दलित वोटों का झुकाव किस तरफ?

दलितों के लिए आरक्षित सीटों पर सभी पार्टियां दलित उम्मीदवारों को मैदान में उतारती हैं। ऐसे में वहां गैर-दलित मतदाता निर्णायक भूमिका में हो जाते हैं, क्योंकि दलित वोट विभाजित हो जाते हैं। यही कारण है कि बसपा उम्मीदवार इन सीटों पर बहुत बेहतर प्रदर्शन नहीं कर पाते हैं, लेकिन पिछले कुछ चुनाव से गैर-जाटव दलितों के साथ जाटव दलित भी मायावती से खिसका है। इनका झुकाव सपा की तुलना में बीजेपी की ओर ज्यादा रहा है। सपा भी अब इसी वोटबैंक को अपने पाले में लाने की कसरत शुरू की है तो बीजेपी भी पूरी तरह से एक्टिव मोड में उतर चुकी है। इसकी शुरुआत भी केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने शुक्रवार को कौंशाबी में दलित सम्मेलन के उद्घाटन के साथ कर दी है। देखना यह होगा कि यह दलित वोट सपा के साथ आता है या मायावती या बीजेपी के साथ। लेकिन इतना तो तय है जो भी इन्हें अपने पाले में लाने में सफल रहे उनकी यूपी में जीत आसान हो जाएगी।

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