चिता भस्म की होली: खेली जाती है महादेव की नगरी काशी में, जानिए इसके बारे में...
दुनिया का इकलौता शहर जहां अबीर, गुलाल के अलावा धधकती चिताओं के बीच चिता भस्म की होली होती है। घाट से लेकर गलियों तक होली के हुड़दंग का हर रंग निराला होता है।
वाराणसी: जैसे बाबा की ये नगरी काशी अलबेली है वैसे ही यहाँ की होली भी बनारस के मिजाज के अनुसार ही अड़भंगी है। दुनिया का इकलौता शहर जहां अबीर, गुलाल के अलावा धधकती चिताओं के बीच चिता भस्म की होली होती है। घाट से लेकर गलियों तक होली के हुड़दंग का हर रंग निराला होता है। पद्मविभूषण पं. छन्नूलाल मिश्र का कहना है कि महादेव की नगरी काशी की होली भी अड़भंगी शिव की तरह ही होती है। वह गुनगुनाते हैं कि खेले मसाने में होरी दिगंबर, खेले मसाने में होरी, भूत पिशाच बटोरी दिगंबर खेले मसाने में होरी...।
महाश्मशान में होली खेलते हैं महादेव
महाश्मशान मणिकर्णिका पर स्वयं भूतभावन अपने गणों के साथ होली खेलने आते हैं। वह आगे कहते हैं कि लखि सुंदर फागुनी छटा के, मन से रंग-गुलाल हटा के चिता भस्म भर झोरी..दिगंबर खेले मसाने में होरी..। ऐसा दृश्य कहां देखने को मिलेगा कि भगवान शिव के गण अपने झोली में चिता भस्म की राख भरकर मन भर होली खेलकर तृप्त हो जाते हैं। काशी की होली में राग और विराग दोनों नजर आते हैं। पं. मिश्र गुनगुनाते हैं कि गोप न गोपी श्याम न राधा, ना कोई रोक ना कवनो बाधा, ना साजन ना गोरी दिगंबर खेले मसाने में होरी...। शिव की नगरी काशी की होली की बात ही निराली होती है। जब महादेव महाश्मशान में उतरते हैं तो भूतनाथ की मंगल-होरी, देखि सिहाएं बिरिज के गोरी, धन-धन नाथ अघोरी.. दिगंबर खेलैं मसाने में होरी...।
ये भी पढ़ें: कुत्ते खा गए आधा शवः BRD अस्पताल फिर चर्चा में, दूसरी मंजिल से गिरा था मरीज
सबसे पहले होली बाबा विश्वनाथ के दरबार में
बाबा विश्वनाथ के बिना काशी अधूरी है। भोले की नगरी में होली की शुरूआत भी बाबा से ही होती है। रंगभरी एकादशी को बाबा के साथ अबीर-गुलाल खेलकर होली की शुरूआत होती है।
होली है... हुड़दंग है... पर अब प्यार और उल्लास नहीं
सत्तर के दशक में डेढ़सी के पुल दशाश्वमेध पर महिलाओं की भी अच्छी खासी भागीदारी होती थी। बंगाली टोला में भी महिलाएं दर्शन-पूजन को निकलती थीं। तब होली पर ठिठोली को कोई बुरा नहीं मानता था, क्योंकि मन में गंदगी नहीं होती थी। होली में बारातें भी निकलती थीं। फाल्गुनी गीत गाए जाते थे। ये कहना है बिपिन बिहारी चक्रवर्ती कन्या इंटर कालेज की पूर्व प्रधानाचार्य डॉ. निर्मला सिंह का। बचपन की स्मृतियों को खंगालते हुए वो कहती है कि तब वास्तव में रंगों का मौसम था, उत्साह था। अब खतरनाक रसायनिक रंगों का डर रहता है। होली में मेल-मिलाप का रंग नदारद है।
ये भी पढ़ें: शामली: पत्नी को हुई उम्र कैद की सजा, तो पति हुआ खुश, जानिए क्या है मामला
धीरे-धीरे सिमटने लगा है दायरा
पहले पड़ोस का घर भी अपना हो जाता था, अब पड़ोसी से दूरियां बढ़ी है और घर में भी खाने हो गए है। इससे होली भी प्रभावित हुई है। समय के साथ भाव और भावनाएं भी बदल गई है। पहले मुहब्बत थी, हफ्तों पहले होली की मस्ती धूम-धड़ाका शुरू हो जाता था। होलिका दहन पर हिंदु-मुस्लिम साथ जुटते थे। आज तो काम के दबाव में और अर्थ की गिरफ्त में हम खुश रहना और त्योहार मनाना ही भुल गए है। गांव के दलानों में महीनों पहले से फाग गीतों की मीठी धुन कानों में पड़ते ही मन उल्लास ओर उमंग से भर जाता था। घर के बच्चे, बूढ़े और जवान पलाश व टेसू के फूल इक्ट्ठा कर उससे रंग बनाते थे।
रिपोर्ट: आशुतोष सिंह