एक अफसर जिसने उत्तराखंड पुलिस को बनाया ‘मित्र पुलिस’

Update:2018-01-05 15:23 IST

ब्यूरो

देहरादून : उत्तराखंड के डीजीपी अनिल रतूड़ी अपनी सादगी के लिए जाने जाते हैं। 1978 बैच के आईपीएस रतूड़ी के पास आज भी छोटी कारों में गिनी जाने वाली हुंडई की आई 10 है। उल्लेखनीय है कि उनकी पत्नी राधा रतूड़ी उत्तराखंड में प्रमुख सचिव के पद पर तैनात हैं। पिछले महीने डीजीपी इसलिए सुर्खियों में थे क्योंकि उनकी गाड़ी के जेब्रा क्रासिंग पार कर लेने की वजह से उनका चालान कट गया था। चालान काटने वाला सिपाही तो कार में सिविलियन ड्रेस में बैठे राज्य पुलिस के मुखिया को नहीं पहचान पाया था लेकिन ट्रैफिक पुलिस इंस्पेक्टर पहचान गया था। लेकिन डीजीपी के आदेश पर उन्होंने चालान काटकर रसीद उन्हें पकड़ा दी।

डीजीपी कहते हैं कि उनका चालान पहली बार नहीं कटा है। उनसे गलती हो जाती है, चालान आता है और

वह उसका भुगतान कर देते हैं। वह कहते हैं कि जब भी उन्हें छुट्टी मिलती है या रविवार को वह अपने परिवार के साथ शहर के आसपास घूमने निकल जाते हैं। चार साल पहले तक वह मारुति 800 में ही घूमते थे और तब एक बार राजपुर रोड में एक एटीएम से पैसे निकालने के लिए उन्होंने गाड़ी एक कोने में लगाई और मियां-बीवी एटीएम की तरफ बढ़े। गाड़ी में पिछली सीट पर उनकी दोनों बेटियां बैठी हुई थीं। एक पुलिस कांस्टेबल आया और गाड़ी पर चालान की पर्ची काटकर लगा गया। रतूड़ी कहते हैं कि अगले दिन उन्होंने किसी को भेजकर चालान जमा करवाया और साफ हिदायत दे दी कि यह पता न चले कि चालान किसी वरिष्ठ पुलिस अधिकारी का कटा है।

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दिल्ली के किरोड़ीमल कॉलेज से अंग्रेज़ी साहित्य में एमए करने वाले अनिल रतूड़ी का चयन विदेश सेवा के लिए हो गया था लेकिन फिल्म अर्धसत्य ने उनकी जिंदगी की दिशा बदल दी। डीजीपी ने बताया कि साहित्य के छात्र होने की वजह से भी उन्हें इस फि़ल्म ने बहुत प्रभावित किया। अनिल रतूड़ी को आज भी दिलीप चित्रे की लिखी यह पूरी कविता याद है। वह कहते हैं कि दिल्ली के चाणक्य सिनेमा में यह फि़ल्म देखने के बाद उन्होंने तय कर लिया था कि पुलिस में ही जाना है और सिस्टम के अंदर रहकर इसे बदलने की कोशिश करनी है।

लेकिन पुलिस में रहकर ईमानदार बने रहना क्या वाकई मुश्किल काम है?

डीजीपी कहते हैं पुलिस ही क्यों कहीं भी। दरअसल सिस्टम आपको अपने ढंग से ढालने की कोशिश करता है और आपको रोज इससे लडऩा होता है। जब आप पहली बार किसी कमरे में जाते हैं तो वहां लगा जाला आपकी आंखों में चुभता है। आप अगर तभी उसे नहीं हटा देते हैं तो अगली बार वह थोड़ा कम चुभता है, अगली बार थोड़ा और कम और धीरे-धीरे इसकी आदत हो जाती है। भ्रष्टाचार भी इसी जाल की तरह हमारे अंदर जगह बनाता है और खुद को साफ़ रखने के लिए रोज अपने कान्शस को झाडऩा होता है, जिस दिन आप इसमें आलस कर जाते हैं उसी दिन से आप भ्रष्टाचार के जाल में फंसने लगते हैं।

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इसी साल उत्तराखंड के 10वें डीजीपी बने अनिल रतूड़ी राज्य में पुलिस सेवा की नींव रखने वाले अधिकारी हैं। उत्तराखंड पुलिस में अनिल रतूड़ी की भूमिका इससे समझी जा सकती है कि राज्य में आने वाले वह पहले आईपीएस अधिकारी थे। बतौर ओएसडी उत्तरांचल (तब यही नाम तय हुआ था) में अगस्त 2000 में देहरादून आए रतूड़ी ने यहां पुलिस हेडक्वार्टर स्थापित करने से लेकर प्रदेश पुलिस का ढांचा तैयार करने तक का काम किया। दिल्ली, यूपी, हरियाणा के मुकाबले अगर उत्तराखंड पुलिस ज़्यादा मानवीय नजर आती है तो इसका श्रेय रतूड़ी को भी जाता है।

वह कहते हैं कि हालांकि यह काम आसान नहीं था। रतूड़ी कहते हैं कि 2000 में जब वह यहां आए थे तो पुलिस का कोई ढांचा तैयार नहीं था और अधिकारी यहां आने को तैयार भी नहीं थे। इस तरह से यह बड़ी चुनौती थी लेकिन इसका दूसरा पहलू यह था कि उन्हें ‘क्लीन स्लेट’ मिली थी। अपने पूरे करियर के दौरान उत्तर प्रदेश में काम करते रहे 1978 बैच के आईपीएस अधिकारी रतूड़ी ने तय किया कि वह उत्तराखंड की पुलिस को सक्षम और विनम्र या ज़्यादा मानवीय पुलिस बनाने की कोशिश करेंगे।

वह बताते हैं कि सुनने में यह जितना अच्छा लगता है उतना आसान भी नहीं रहा। जब सिपाही जाकर आदर से कहता था कि शर्मा जी आपको कल थाने में आना है, तो लोग कहते थे कि यह पुलिसवाले ढीले हैं। इनसे पुलिसिंग का काम नहीं हो पाएगा (हरिशंकर परसाई की कहानी- रामसिंह की ट्रेनिंग की तर्ज पर)। लेकिन उत्तराखंड की पुलिस आज तुलनात्मक रूप से ज़्यादा मानवीय पुलिस नजऱ आती है तो इसका श्रेय शुरुआत को जाता ही है।

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चक्रव्यूह में घुसने से पहले,

कौन था मैं और कैसा था,

ये मुझे याद ही न रहेगा।

चक्रव्यूह में घुसने के बाद

मेरे और चक्रव्यूह के बीच,

सिर्फ़ एक जानलेवा निकटता थी,

इसका मुझे पता ही न चलेगा।

चक्रव्यूह से बाहर निकलने पर,

मैं मुक्त हो जाऊं भले ही,

फिर भी चक्रव्यूह की

रचना में कोई फर्क़ न पड़ेगा.

मरूं या मारूं - मारा जाऊं

या जान से मार दूं

इसका फ़ैसला कभी न हो पाएगा।

सोया हुआ आदमी जब नींद से उठकर

चलना शुरू करता है,

तब सपनों का संसार,

दोबारा उसे देख ही न पाएगा।

उस रौशनी में- जो निर्णय की रौशनी है

सब कुछ समान होगा क्या?

एक पलड़े में नपुंसकता- दूसरे में पौरुष

और ठीक तराज़ू के कांटे पर

अर्धसत्य

(दिलीप चित्रे)

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