सबसे अधिक ग्लेशियर वाला राज्य उत्तराखण्ड, हमेशा बना रहता है खतरा
ग्लेशियर को हिंदी में हिमनद कहते हैं, यह जब धूप निकलने के साथ टूटते हैं तो यह बर्फ पिघलकर पानी बनती है और आसपास के क्षेत्रों में तेजी से फैलती हैं।
रिपोर्ट- श्रीधर अग्निहोत्री
लखनऊ: प्राकृतिक संपदा से भरपूर उत्तराखण्ड पूरा हिमालय पर्वल श्रंखलाओं से जुड़ा हैं जहां से देश की अधिकतर नदियों का निकास होता है। इनमें भागीरथी, अलकनंदा, विष्णुगंगा, भ्युंदर, पिंडर, धौलीगंगा, अमृत गंगा, दूधगंगा, मंदाकिनी, बिंदाल, यमुना, टोंस, सोंग, काली, गोला, रामगंगा, कोसी, जाह्नवी, नंदाकिनी प्रमुख हैं। उत्तराखण्ड में ग्लेषियर टूटने की त्रासदी धौलीगंगा नदीं में हुई जो अलकनंदा की सहायक नदी है। यहीं से कई छोटी नदियां भी निकलती है जिनमें पर्ला, कामत, जैंती, अमृतगंगा और गिर्थी आदि है।
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ग्लेशियर को हिंदी में हिमनद कहते हैं
ग्लेशियर को हिंदी में हिमनद कहते हैं, यह जब धूप निकलने के साथ टूटते हैं तो यह बर्फ पिघलकर पानी बनती है और आसपास के क्षेत्रों में तेजी से फैलती हैं। इससे नदी का जलस्तर अचानक काफी ज्यादा बढ़ जाता है। यह पूरा क्षेत्र पहाड़ी होने के कारण पानी का बहाव बेहद तेजी से होता होता है। हिमस्खलन में बहुत अधिक मात्रा में बर्फ पहाड़ों से फिसलकर घाटी में गिरने लगती है। इस दौरान काफी विशाल मात्रा में बर्फ पहाड़ी की ढलानों से तेज गति से घाटियों में गिरने लगती है। इसके रास्ते में जो कुछ आता है सब तबाह होता है जैसे पेड़, घर, जंगल, बांध, बिजली प्रोजेक्ट या किसी भी तरह का कंस्ट्रक्शन हो।
वैज्ञानिकों के अनुसार ग्लेशियर दो तरह के होते हैं एक अल्पाइन ग्लेशियर दूसरा आइस शीट्स। पहाड़ों के ग्लेशियर अल्पाइन कैटेगरी में आते हैं। पहाड़ों पर ग्लेशियर टूटने की कई वजहें हो सकती हैं। एक तो गुरुत्वाकर्षण की वजह से और दूसरा ग्लेशियर के किनारों पर टेंशन बढ़ने की वजह से। ग्लोबल वार्मिंग के चलते बर्फ पिघलने से भी ग्लेशियर का एक हिस्सा टूटकर अलग हो सकता है। जब ग्लेशियर से बर्फ का कोई टुकड़ा अलग होता है तो उसे काल्विंग कहते हैं।
हिमालय में हजारों छोटे-बड़े ग्लेशियर हैं
हिमालय में हजारों छोटे-बड़े ग्लेशियर हैं जिनमें गंगोत्री, यह २६ किलोमीटर लम्बा तथा ४ किलोमीटर चैड़ा हिमखण्ड उत्तरकाशी के उत्तर में स्थित है। इसके अलावा पिण्डारी यह गढ़वाल कुमाऊँ सीमा के उत्तरी भाग पर स्थित है। इसी तरह रूपल काश्मीर में बियाफो, हिस्पर, बातुरा, सियाचिन, सासाइनी के अलावा जेमू नेपाल २६ किलोमीटर लम्बा, कंचनजंगा नेपाल में १६ किलोमीटर लम्बा है। जबकि सोनापानी काश्मीर, केदारनाथ उत्तराखंड कुमायूँ, कोसा उत्तराखंड कुमायूँ,तथा रिमो- काश्मीर, ४० किलोमीटर लम्बा है।
हल्के क्रिस्टल ठोस बर्फ के गोले यानी ग्लेशियर में बदलने लगते हैं
कुछ ग्लेशियर हर साल टूटते हैं, कुछ दो या तीन साल के अंतर पर टूटते हैं। हल्के क्रिस्टल ठोस बर्फ के गोले यानी ग्लेशियर में बदलने लगते हैं। नई बर्फबारी होने से ग्लेशियर नीचे दबाने लगते हैं और कठोर हो जाते हैं, घनत्व काफी बढ़ जाता है। इसे फर्न कहते हैं। ग्लेशियर का पानी के साथ मिलना इसे और ज्यादा विनाशक बना देता है। पानी का साथ मिलते ही ग्लेशियर टाइडवॉटर ग्लेशियर बन जाते हैं। बर्फ के विशाल टुकड़े पानी में तैरने लगते हैं। इसी प्रक्रिया को काल्विंग कहते हैं।
पृथ्वी पर पानी का सबसे बड़ा सोर्स हैं
ग्लेशियर पृथ्वी पर पानी का सबसे बड़ा सोर्स हैं। इनकी उपयोगिता नदियों के स्रोत के तौर पर होती है। जो नदियां पूरे साल पानी से लबालब रहती हैं वे ग्लेशियर से ही निकलती हैं। गंगा नदी का प्रमुख स्रोत गंगोत्री हिमनद ही है। यमुना नदी का स्रोत यमुनोत्री भी ग्लेशियर ही है। ग्लेशियर का टूटना या पिघलना ऐसी दुर्घटनाएं हैं, जो बड़ूी आबादी पर असर डालती हैं। कई बार पहाड़ों पर घूमने गए सैलानी, माउंटेनियर ग्लेशियर की चोटियों पर पहुंचने की कोशिश करते हैं। ये बर्फीली चोटियां काफी खतरनाक होती हैं। कभी भी गिर सकती हैं।ग्लेशियर हमेशा अस्थिर होते हैं और धीरे-धीरे नीचे की ओर सरकते हैं।
ग्लेशियर में कई बार बड़ी-बड़ी दरारें होती हैं
यह प्रक्रिया इतनी धीमी गति से भी होती है कि आंखों से दिखाई नहीं पड़ती। ग्लेशियर में कई बार बड़ी-बड़ी दरारें होती हैं, जो ऊपर से बर्फ की पतली परत से ढंकी होती हैं। ये जमी हुई मजबूत बर्फ की चट्टान की तरह ही दिखती हैं। ऐसी चट्टान के पास जाने पर वजन पड़ते ही ग्लेशियर में मौजूद बर्फ की पतली परत टूट जाती। इसी तरह यदि भूकंप आता है तब भी चोटियों पर जमी बर्फ खिसककर नीचे आने लगती है, जिसे एवलॉन्च कहते हैं।
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ग्लेशियर के पिघलने का कारण दुनिया में कार्बन डाई ऑक्साइड और ग्रीनहाउस गैसों के काफी ज्यादा मात्रा में उत्सर्जन है। कल, कारखाने, व्हीकल, एसी इत्यादि इन गैसों का उत्सर्जन करते हैं। इससे धरती का तापमान बढ़ता है और ग्लेशियर पिघल रहे हैं।
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