कोरोना मरीजों में पूरी होगी ऑक्सीजन की कमी, वैज्ञानिकों ने ढूंढा इलाज का नया तरीका
सुअरों पर एक परीक्षण किया गया है, जिसमें सामने आया कि वो अपने मलद्वार से भी ऑक्सीजन यानी भी सांस ले सकते हैं।
नई दिल्ली: कोरोना वायरस (Corona Virus) की दूसरी लहर की दस्तक होने के बाद से अस्पतालों में संक्रमित मरीजों की संख्या तेजी से बढ़ रही है, जिससे हॉस्पिटल्स में बेड से लेकर ऑक्सीजन की कमी (Oxygen Shortage) होने लगी है। महामारी की दूसरी लहर में सबसे ज्यादा ऑक्सीजन की मांग बढ़ी है। इस बीच साइंटिस्ट ने एक ऐसा ट्रीटमेंट खोजा है, जिससे कोरोना मरीजों के इलाज में काफी ज्यादा सुविधा मिल सकती है।
दरअसल, सुअरों (Pigs) पर एक परीक्षण किया गया है, जिसमें सामने आया है कि सूअर अपने मलद्वार (Anus) से भी ऑक्सीजन खींचते हैं यानी वो अपने गुदा द्वार से भी सांस लेते हैं। उनके गुदा द्वार से लगातार ऑक्सीजन से भरपूर तरल पदार्थ (Fluid) निकलता है। सुअरों पर किया गया परीक्षण बिल्कुल सफल रहा है। इसमें फेफड़ों के बजाय Anus से सांस लेने की मेथेड बनाया गया है। यह स्टडी Cell जर्नल में प्रकाशित हुई है।
तो चलिए जानते हैं कि क्या इंसान भी सुअरों की तरह गुदा द्वार से सांस ले सकते हैं। क्या ऑक्सीजन की परेशानी से जूझ रहे लोगों को इस पद्धति से मदद मिलेगी।
जानें क्या कहते हैं वैज्ञानिक?
इस बारे में टोक्यो मेडिकल एंड डेंटल यूनिवर्सिटी के साइंटिस्ट ताकानोरी ताकेबे बताते हैं कि ऐसे कोरोना संक्रमित लोग जिनके खून में ऑक्सीजन लेवल कम है या फिर जिन्हें वेंटिलेटर्स पर रखा गया है, उनके साथ दिक्कत ये है कि उन लोगों के फेफड़ों के नाजुक Tissues पर दबाव के साथ ऑक्सीजन जाने पर उन्हें नुकसान पहुंचता है। ऐसे में अच्छा होता अगर इंसान भी अपने गुदा द्वार और आंतों के जरिए सांस ले पाते।
ऐसा ही कुछ साफ पानी की मछलियां भी करती हैं। ताकानोरी ताकेबे कहते हैं कि स्तरधारी जीवों के Anus के चारों ओर एक पतली झिल्ली होती है, जो कुछ विशेष प्रकार के कंपाउंड्स को सोखकर खून के प्रवाह में डालते हैं। पहले भी डॉक्टर्स ने इस तरह का उपयोग किया है। ताकानोरी के मुताबिक, ऐसे में हमने सुअरों पर यह परीक्षण करने की सोची।
उन्होंने बताया कि हमने सुअरों के गुदा द्वार में एनिमा के माध्यम से परफ्लोरोकार्बन (Perfluorocarbon) डाला, जो एक खास तरह का तरल पदार्थ होता है। यह एक गैर-विषैला तरल पदार्थ है। जो हाई लेवल पर ऑक्सीजन को पकड़ कर रखता है। इसे सांस लेने लायक कहा जा सकता है। इसका इस्तेमाल प्री-मैच्योर बच्चों के फेफड़ों को बचाने के लिए भी किया जाता है।
ताकानोरी और उनकी टीम ने पहले चार सुअरों को बेहोश किया और फिर उन्हें वेंटिलेटर पर रखा। टीम ने इन सुअरों को सामान्य से कम ऑक्सीजन लेवल पर रखा, जिससे उनके खून में ऑक्सीजन की कमी हो जाए। इसके बाद टीम ने दो सुअरों को एनिमा के जरिए परफ्लोरोकार्बन दिया, जिसके थोड़ी देर बाद ही सुअरों के खून में ऑक्सीजन लेवल को बढ़ता हुआ दर्ज किया गया।
वहीं, इसके बाद अन्य दो सुअरों के मलद्वार में ट्यूब डाल रखा था, जिससे उनके शरीर में परफ्लोरोकार्बन डाला गया। फिर उनके खून में भी ऑक्सीजन की मात्रा बढ़ते देखी गई। ताकानोरी ने कहा कि कोरोना संक्रमित लोगों को भी इसी तरह गुदा द्वार के जरिए ऑक्सीजेनेटेड तरल पदार्थ परफ्लोरोकार्बन (Perfluorocarbon) दिया जा सकता है। जिससे उनके शरीर में खून में ऑक्सीजन की कमी को पूरा किया जा सकेगा।
ताकानोरी ने कहा कि इस तरह से लोगों की जान बचाने में मदद मिलेगी और ये तरीका गरीब और कम आय वाले देशों में मददगार साबित हो सकता है। हालांकि उन्होंने बताया कि इस प्रोसेस के साथ एक समस्या भी आ सकती है कि कोरोना से संक्रमित होने वाले मरीजों को डायरिया हो जाता है। ऐसे में उसके शरीर की आंतें कमजोर हो जाती हैं। इसलिए मलद्वार से परफ्लोरोकार्बन देने में परेशानी आ सकती है।
दूसरे वैज्ञानिकों की ये है राय
हालांकि ताकानोरी के इस प्रोसेस के बारे में इंपीरियल कॉलेज लंदन के साइंटिस्ट स्टीफन ब्रेट ने कहा कि ताकनोरी और उनकी टीम की स्टडी अभी प्राइमरी लेवल पर है और इतनी जल्दी कुछ कहना सही नहीं है। जबकि दूसरी ओर येल स्कूल ऑफ मेडिसिन में कालेब केली ने कातानोरी के आइडिया को आंदोलनकारी बताया है। हालांकि केली का कहना है कि फीकल ट्रांसप्लांट कराने के लिए लोगों को पहले आंतों में संक्रमण होना जरूरी है। ऐसे में फिलहाल ताकानोरी का आइडिया स्वीकृत नहीं किया जा सकता।