Haqqani Network : हत्या और हमलों का दूसरा नाम है हक्कानी नेटवर्क

Haqqani Network : तालिबान के भीतर हक्कानी नेटवर्क सबसे ज्यादा आजाद होकर काम करता है, यानी हक्कानी नेटवर्क पर तालिबान की टॉप लीडरशिप का पूर्ण कंट्रोल नहीं है।

Written By :  Neel Mani Lal
Published By :  Vidushi Mishra
Update:2021-08-20 21:13 IST

Haqqani Network : तालिबान के एक मजबूत धड़े का नाम है हक्कानी नेटवर्क (Haqqani Network), जो अपनी हिंसक और बर्बर गतिविधियों के लिए कुख्यात है। तालिबान के भीतर हक्कानी नेटवर्क सबसे ज्यादा आजाद होकर काम करता है, यानी हक्कानी नेटवर्क पर तालिबान की टॉप लीडरशिप का पूर्ण कंट्रोल नहीं है। अब हक्कानी नेटवर्क को तालिबान ने काबुल की सिक्यूरिटी की जिम्मेदारी दी है।

एक्सपर्ट्स को आशंका है कि इससे सक्नेट मिलता है कि चरमपंथी तत्वों, खासकर अल कायदा के मजबूत होने और उनकी हरकतें बढ़ने की आशंका बहुत बढ़ गयी है। हक्कानी नेटवर्क का नेता सिराजुद्दीन हक्कानी तालिबान के डिप्टी कमांडरों में से एक है। और उसी के करीबी रिश्तेदार खलील अल रहमानी हक्कानी को काबुल का सुरक्षा इंचार्ज बनाया गया है।

हक्कानी नेटवर्क को तालिबान का सबसे हिंसक और दुर्दांत गुट माना जाता है। आत्मघाती हमले, अपहरण, सर कलम करना, हत्याएं, हाथ-पैर काट देना ये सब कारनामे हक्कानी गुट की ही देन हैं।

अफगानिस्तान में हुए सबसे भीषण हमलों के पीछे हक्कानी नेटवर्क ही रहा है। काबुल के फाइव स्टार सेरेना होटल पर हमला, 2012 में एक दर्जन आत्मघाती लड़ाकों द्वारा खोस्त में अमेरिकी ठिकाने पर हमला, 2017 में काबुल में जर्मन दूतावास के पास ट्रक बम हमला – ये सब हक्कानी नेटवर्क ने अंजाम दिए थे।

हक्कानी नेटवर्क (फोटो- सोशल मीडिया)

80 के दशक में हुई थी स्थापना

हक्कानी नेटवर्क की स्थापना 80 के दशक में सोवियत संघ के खिलाफ एक विद्रोही गुट के रूप में हुई थी और तब उसे अमेरिका और पाकिस्तान का समर्थन मिला हुआ था। इस गुट की स्थापना जलालुद्दीन हक्कानी ने की थी। जलालुद्दीन हक्कानी पश्तून है और वह अफगानिस्तान - पाकिस्तान सीमावर्ती क्षेत्र का रहने वाला था।

दारुल उलूम्म हक्कानिया मदरसे से धार्मिक शिक्षा प्राप्त करने के बाद वह मौलवी बन गया था। अफगानिस्तान में दुर्रानी साम्राज्य के अंतिम शासक रजा ज़ाहिर शाह के खिलाफ विद्रोह और 1973 में उनके देश छोड़ने के बाद दाउद खान अफगानिस्तान के प्रेसिडेंट बने लेकिन सत्ता पर काबिज होने की होड़ कई दलों और गुटों में मच गयी। जिसमें जलालुद्दीन हक्कानी भी शामिल था। सरकार के खिलाफ षड्यंत्र का पर्दाफाश होने पर हक्कानी पाकिस्तान भाग गया और वहां से विद्रोही गतिविधियाँ संचालित करने लगा।

1978 में सोवियत संघ द्वारा समर्थित पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी ऑफ़ अफगानिस्तान (पीडीपीए) द्वारा दाउद खान सरकार के तख्ता पलट के बाद हक्कानी ने मोहम्मद युनुस खान के हिज्ब ए इस्लामी को ज्वाइन कर लिया। चूँकि हक्कानी कम्यूनिस्ट विद्रोह के खिलाफ था सो अमेरिका की उसपर नजर पड़ी और उसका इस्तेमाल अमेरिका अपने हितों के लिए करने लगा।

80 के दशक में जलालुद्दीन हक्कानी की गिनती सीआईए के ख़ास मोहरे के रूप में होती थी। अफगानिस्तान में सोवियत समर्थित अफगान सेना से लड़ने के लिए अमेरिका हक्कानी को खुले हाथ से नकद रकम और साजो सामान देता था। उस दौरान ओसामा बिन लादेन भी सोवियत समर्थित अफगानिस्तान के खिलाफ अपनी खुद की लड़ाकू सेना तैयार कर रहा था और उसे हक्कानी ने पूरा संरक्षण दिया।

अमेरिका का हक्कानी ने रिश्ता खराब

हक्कानी नेटवर्क (फोटो- सोशल मीडिया)

यहीं से अफगानिस्तान में विदेशी मुस्लिम लड़ाकों का प्रवेश शुरू हुआ। अमेरिका उस समय हक्कानी से इतना प्रभावित था कि उसे सर आँखों पर बैठाया और बताया जाता है कि वह तत्कालीन प्रेसिडेंट रोनाल्ड रीगन से मिलने व्हाइट हाउस भी गया था। बहरहाल, जलालुद्दीन हक्कानी और उसे गुट ने सोवियत तथा अफगान सेनाओं के खिलाफ बहुत लड़ाइयां लड़ीं।

1995 में काबुल पर तालिबान के कब्जे के पहले हक्कानी ने तालिबान के साथ गठजोड़ कर लिया और उसमें शामिल हो गया। 2001 में उसे तालिबान का मिलिट्री कमांडर बना दिया गया। लेकिन 2001 में न्यूयॉर्क पर अल कायदा के हमले के बाद अमेरिका का हक्कानी ने रिश्ता खराब हो गया।

अमेरिका ने अल कायदा के खिलाफ उसका इस्तेमाल करना चाहा लेकिन जलालुद्दीन हक्कानी ने मना कर दिया। यहीं से हक्कानी की लड़ाई अमेरिका से शुरू गयी। हक्कानी नेटवर्क ने ही लादेन को अफगानिस्तान से भागने में मदद की थी। जो जलालुद्दीन अमेरिका की आँखों का तारा था उसी के सर पर 50 लाख डालर का इनाम रख दिया गया और अमेरिका ने उसकी हत्या की तमाम कोशिशें कीं और अंततः 2012 में अमेरिका के ड्रोन हमले में वह मारा गया।

अब अफगानिस्तान में तालिबान के राज और हक्कानी नेटवर्क के अल कायदा से प्रगाढ़ता से कोई नया गुल खिलने की पूरी आशंका बन गयी गई है। भले ही तालिबान ने अमेरिका से वादा किया है कि वह अल कायदा या किसी अन्य आतंकी गुट को अफगानिस्तान की सरजमीं का इस्तेमाल नहीं करने देगा, लेकिन हक्कानी जैसे खतरनाक गुट एक दूसरा रास्ता भी अख्तियार कर सकते हैं और यही बात सबसे ज्यादा परेशान करने वाली है।

Tags:    

Similar News