Khalistan Ka Itihas Wikipedia: कनाडा में कैसे जन्म हुआ खालिस्तान का जानते हैं पूरा सच
Khalistan Ke Bare Me Jankari in Hindi: तलविंदर सिंह परमार 1950 के दशक में पंजाब, भारत में पैदा हुए थे। उनका परिवार धार्मिक रूप से सिख था। उन्हें सिख धर्म की गहरी समझ थी। वह युवा अवस्था में ही खालिस्तानी विचारधारा से प्रभावित हो गए थे;
Khalistan Ke Bare Me Jankari in Hindi: पंजाब में खालिस्तानी अलगाववादी आंदोलन को कनाडा से धन और अन्य सहयोग प्राप्त हो रहा है। कई आतंकियों ने कनाडा में शरण ले रखी है और वहीं से भारत के खिलाफ साजिशें रची जा रही हैं। कनाडा में लगभग 7 लाख सिख समुदाय के लोग रहते हैं, जिन्होंने व्यवसाय और राजनीति में अपनी मजबूत उपस्थिति दर्ज कराई है। इसी सिख वोट बैंक की वजह से कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो इस समुदाय की ओर झुकाव रखते हैं, जो उनकी सरकार के लिए महत्वपूर्ण समर्थन भी प्रदान करता है।
कनाडा में खालिस्तानी आंदोलन की जड़ें 1980 के दशक में उस समय फैलीं जब कई सिख नेता भारत सरकार के खिलाफ असंतोष व्यक्त कर रहे थे। इनमें से एक महत्वपूर्ण नाम था तलविंदर सिंह परमार , जो एक प्रमुख खालिस्तानी कार्यकर्ता थे। परमार का नाम एयर इंडिया उड़ान 182 के आतंकवादी हमले से जुड़ा हुआ है, जो 1985 में हुआ था और इस हमले में 329 लोग मारे गए थे। परमार का उद्देश्य एक स्वतंत्र खालिस्तान राज्य की स्थापना था, जो भारतीय सिखों के लिए स्वायत्तता का प्रतीक बन सके।
तलविंदर सिंह परमार का जीवन
तलविंदर सिंह परमार 1950 के दशक में पंजाब, भारत में पैदा हुए थे। उनका परिवार धार्मिक रूप से सिख था। उन्हें सिख धर्म की गहरी समझ थी। वह युवा अवस्था में ही खालिस्तानी विचारधारा से प्रभावित हो गए थे, खासकर 1980 के दशक में जब पंजाब में उग्रवादी गतिविधियों ने जोर पकड़ा। परमार ने भारत सरकार की नीतियों और पंजाब में हुए सैन्य अभियानों का विरोध करना शुरू किया।
1980 के दशक में सिखों का असंतोष बढ़ने लगा था और कई प्रमुख नेता, जैसे श्री गुरु अर्जुन देव जी के अनुयायी, एक स्वतंत्र खालिस्तान के लिए संघर्ष करने लगे थे। इस समय तक, परमार ने अपने कार्यों को और भी कड़ा किया। उन्होंने भारत से खालिस्तान की स्वतंत्रता की मांग की।
तलविंदर सिंह परमार का नाम खालिस्तान आंदोलन के इतिहास में एक कुख्यात व्यक्ति के रूप में दर्ज है। उनका योगदान और खालिस्तान की स्वतंत्रता के लिए उनके संघर्ष ने कनाडा और भारत के बीच रिश्तों को तनावपूर्ण बना दिया था। हालाँकि, खालिस्तान आंदोलन अब पहले जैसा प्रभावी नहीं है। लेकिन यह इतिहास में एक महत्वपूर्ण घटना के रूप में दर्ज है।
1970 के दशक में तलविंदर सिंह भारत से कनाडा आकर जल्द ही ख़ालिस्तानी आंदोलन का प्रमुख चेहरा बन गया। 1978 में उसने 'बब्बर खालसा इंटरनेशनल' नामक संगठन की स्थापना की। इस समय तक पंजाब में अलगाववाद तेज हो चुका था और परमार विदेशों से इस आंदोलन के लिए धन जुटाने में सक्रिय था। 1980 के दशक में पंजाब में हुई कई हत्याओं में भी उसका नाम जुड़ा।
भारत ने तलविंदर सिंह पर आतंकवाद का आरोप लगाया था। 1983 में उसने जर्मनी में कुछ समय जेल में बिताया। लेकिन अगले ही साल वह कनाडा वापस लौट आया। कनाडा में रहते हुए, उसने 1985 के कनिष्क प्लेन हमले को अंजाम दिया। लेकिन पुलिस केस बनाने के बावजूद परमार को रिहा कर दिया गया। बाद में, वह पाकिस्तान गया और 1992 में भारत में प्रवेश की कोशिश की। पंजाब पुलिस के दो अफसरों की हत्या करने के बाद, वह पुलिस के रडार पर था और अक्टूबर 1992 में एक एनकाउंटर में मारा गया।
एयर इंडिया उड़ान 182 का आतंकवादी हमला
1985 में परमार और उनके साथियों ने एयर इंडिया की उड़ान 182 को हाईजैक किया। यह एक बड़ा और दर्दनाक हादसा था जिसमें 329 लोग मारे गए थे, जिसमें अधिकांश कनाडा और भारत के नागरिक थे। इस हमले को खालिस्तान के समर्थन में किया गया था और इसे खालिस्तानी आतंकवादियों द्वारा भारत के खिलाफ एक बड़ा हमला माना गया। इस हमले ने न केवल कनाडा और भारत के रिश्तों को प्रभावित किया, बल्कि कनाडा में रहने वाले भारतीय समुदाय पर भी गहरा असर डाला।
इस हमले के बाद, कनाडा सरकार ने परमार के खिलाफ कई कानूनी कार्रवाइयां शुरू कीं। हालांकि, तलविंदर सिंह परमार को कभी भी सीधे तौर पर दोषी ठहराया नहीं गया। लेकिन वह खालिस्तानी विचारधारा के सबसे प्रमुख प्रचारकों में से एक बने रहे।
खालिस्तानी आंदोलन फैलने का मुख्य कारण
कनाडा में खालिस्तानी आंदोलन के फैलने का मुख्य कारण था कि यहां पर बड़ी संख्या में भारतीय मूल के सिख नागरिक रहते थे। इसने खालिस्तान के विचार को बढ़ावा दिया और कई लोगों ने इसे समर्थन देना शुरू किया। हालांकि, इस आंदोलन को कनाडा सरकार द्वारा कभी भी आधिकारिक रूप से समर्थन नहीं मिला। कई खालिस्तानी नेता, जिनमें परमार शामिल थे, आतंकवाद के आरोपी माने गए।
कनाडा और खालिस्तान आंदोलन
कनाडा और खालिस्तान आंदोलन के रिश्ते को समझने के लिए हमें 1857 की क्रांति के बाद की स्थिति देखनी होगी। ब्रिटिश सरकार ने भारत पर नियंत्रण स्थापित किया और भारतीयों को कॉमनवेल्थ देशों का हिस्सा मानते हुए उनकी नागरिकता की अनुमति दी। इस निर्णय से भारतीयों को कनाडा जैसी जगहों पर जाकर बसने का अवसर मिला। विशेष रूप से पंजाब के सिख समुदाय ने कनाडा का रुख किया और 1908 तक 4000 भारतीय वहां बस गए। हालांकि, उनकी बढ़ती संख्या से कनाडा चिंतित हो गया।कनाडा में 1908 में 'कंटीन्यूअस पैसेज रेगुलेशन' नामक कानून पास किया गया, जिसके तहत भारत से कनाडा आने वाले प्रवासियों के लिए शर्तें निर्धारित की गईं। इस कानून के अनुसार, किसी भारतीय को कनाडा आने के लिए केवल एक सीधी यात्रा करनी होगी, यानी वह किसी अन्य देश से होकर नहीं आ सकता था। यह कानून भारतीयों के लिए कनाडा में प्रवेश पाना और भी कठिन बना देता था।
कुछ साल बाद, 1914 में ‘कोमागाटा मारू’ नामक जहाज कनाडा के तट पर पहुँचा, जिसमें 376 भारतीय नागरिक सवार थे, जिनमें अधिकांश सिख थे। हालांकि, उन्हें उतरने की अनुमति नहीं दी गई और दो महीने तक वे जहाज पर ही रहे। खाने-पीने की कठिनाई भी झेलनी पड़ी। अंत में, वे जहाज पर वापस लौटने के लिए मजबूर हुए। जब ये लोग कलकत्ता पहुंचे, तो अंग्रेज सिपाहियों ने उन पर गोली चला दी, जिसमें 28 लोग मारे गए।इसके बाद 90 के दशक में पंजाब में अलगाववाद समाप्त हो गया। लेकिन कनाडा में खालिस्तानी निरंकुश थे। 2002 में एक मैगजीन ‘सांझ सवेरा’ ने इंदिरा गांधी की हत्या को शहीदों के रूप में महिमामंडित किया, जिससे कनाडा सरकार की प्रतिक्रिया सवालों में रही।
कनिष्क बम धमाके के मामले में 2000 में दो व्यक्तियों को गिरफ्तार किया गया था। लेकिन एक गवाह की हत्या और एक को सुरक्षा प्रदान करने के बावजूद दोनों आरोपी रिहा हो गए। केवल इंदरजीत सिंह रेयात को पांच साल की सजा मिली। लेकिन 2011 में उसे अदालत में झूठ बोलने के लिए नौ साल की सजा सुनाई गई। इस मामले के परिणामस्वरूप, कनाडा में खालिस्तान समर्थक चरमपंथियों के हौंसले बुलंद हो गए। उनका महिमामंडन अब मुख्यधारा की पत्रिकाओं में भी होने लगा।
कनिष्क मामले में लीपापोती के परिणाम
2007 में सामने आए, जब ब्रिटिश कोलंबिया के सरे शहर में वैशाखी के दिन एक परेड निकाली गई। इस रैली में कनाडा के प्रधानमंत्री स्टीफन हार्पर के प्रतिनिधि और विपक्षी पार्टी के नेता शामिल हुए। इस दौरान तलविंदर सिंह परमार की तस्वीरें लहराई गईं, जो 329 लोगों की हत्या में शामिल थे। परमार के बेटे और अन्य खालिस्तानी नेता स्टेज पर कनाडा के नेताओं के साथ खड़े दिखाई दिए। लेकिन इस मामले पर किसी ने टिप्पणी करने से इंकार किया।
कनाडा की दोनों प्रमुख राजनीतिक पार्टियां, लिबरल और कंज़रवेटिव, खालिस्तानी संगठनों से परहेज़ नहीं करतीं, क्योंकि वे वोट बैंक पॉलिटिक्स में शामिल हैं। सिख समुदाय कनाडा में तेजी से बढ़ रहा है और चरमपंथी समूह इन वोटों को अपने प्रभाव में रखने का दावा करते हैं। इस कारण, 2010 के बाद अलगाववादियों की ताकत में वृद्धि हुई है, जो भारत के लिए चिंता का विषय बन गया है। इस मुद्दे को भारतीय प्रधानमंत्री समय-समय पर कनाडा की सरकार के समक्ष उठाते रहे हैं।
कनाडा की राजनीतिक पार्टियों को खालिस्तानी संगठनों से वोट का डर है। यही कारण है कि प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो कभी भारत आकर खालिस्तानी आतंकी को डिनर पर बुलाते हैं, तो कभी इन संगठनों से गठबंधन करते हैं। फरवरी 2019 में, टोरंटो में हुए एक सम्मेलन में "Sikhs for Justice" संगठन ने खालिस्तान का नक्शा जारी किया, जिसमें भारत का हरियाणा, हिमाचल, राजस्थान, और दिल्ली शामिल था। लेकिन पाकिस्तान का पंजाब और सिखों के लिए महत्वपूर्ण जगहें जैसे लाहौर और ननकाना साहिब बाहर रखे गए थे।
मार्च 2022 में, जस्टिन ट्रूडो की सरकार "New Democratic Party" (NDP) के समर्थन से चल रही है, जिसकी नेतृत्व जगमीत सिंह करते हैं। NDP ने खालिस्तान अलगाववाद और 2022 में हुए रेफेरेंडम को भी समर्थन दिया। ट्रूडो की सरकार के बने रहने के लिए, उन्हें इस पार्टी की मदद की जरूरत है।इसलिए खालिस्तान का आतंक अभी भी फैला हुआ है ।
इस साल अगस्त तक कनाडा कुल 217 खालिस्तानी आतंकियों को अपने देश में शरण दे चुका है। इन आतंकियों ने कनाडा सरकार को बताया था कि उन्हें भारत में खतरा है क्योंकि यहां पर उनके खिलाफ आतंकवाद को लेकर मामले दर्ज हैं। साफ है कि सब कुछ जानते हुए भी कनाडा की ट्रूडो सरकार ने उन्हें अपने देश में शरण दी। ये सिलसिला पिछले 4 साल से चल रहा है।
भारत सरकार ने पिछले वर्ष कनाडा के साथ 21 खालिस्तानी आतंकवादियों की सूची साझा की थी, जो खालिस्तान के नाम पर टेरर फंडिंग में शामिल हैं। इस सूची में पर्वकर सिंह दुलाई का नाम प्रमुख है, जो प्रतिबंधित संगठन बब्बर खालसा से जुड़ा है। कनाडा में सक्रिय होने के बावजूद दुलाई के खिलाफ कोई ठोस कार्रवाई नहीं हुई है। यह भारत-कनाडा संबंधों में एक बड़ा मुद्दा है और टेरर फंडिंग की बढ़ती समस्या पर अंतरराष्ट्रीय कार्रवाई की मांग करता है।
जस्टिन ट्रूडो का खालिस्तानी समर्थकों के प्रति झुकाव मुख्य रूप से वोट बैंक राजनीति का परिणाम है। कनाडा में खालिस्तानी समूहों ने एक मजबूत इकोसिस्टम तैयार किया है जो वोट बैंक और राजनीतिक चंदे में योगदान देता है। ट्रूडो सरकार के लिए जगमीत सिंह और उनकी पार्टी, एनडीपी, का समर्थन महत्वपूर्ण है। 338 सीटों वाले हाउस ऑफ कॉमन्स में ट्रूडो की लिबरल पार्टी के पास 153 सीटें हैं, जबकि बहुमत के लिए 170 सीटें चाहिए। एनडीपी के 25 सीटों के समर्थन से ही उनकी सरकार टिकी हुई है।
वर्तमान स्थिति
आज के समय में, खालिस्तानी आंदोलन अब पहले जितना सक्रिय नहीं रहा है। हालांकि, कनाडा में अब भी खालिस्तान समर्थक कुछ समूह सक्रिय हैं। लेकिन सरकार ने इस प्रकार के उग्रवाद को दबाने के लिए कड़े कदम उठाए हैं। कनाडा में सिख समुदाय ने अपनी स्थिति को मजबूत किया है। अब वे मुख्यधारा की राजनीति और समाज में पूरी तरह से एकीकृत हैं।