स्वस्थ्य जीवन चाहिए तो गेहूं छोड़िए
अमेरिका में इन दिनों गेंहू छोड़ो अभियान तेजी से चल निकला है।
अमेरिका में इन दिनों गेंहू छोड़ो अभियान तेजी से चल निकला है। इसके पीछे अमेरिका के एक हृदय रोग विशेषज्ञ हैं डॉ विलियम डेविस द्वारा लिखी उनकी एक पुस्तक है। जिसका नाम है - Wheat belly (गेंहू की तौंद)। यह पुस्तक फूड हेबिट पर लिखी गई है। इसी के चलते पूरे अमेरिका में इन दिनों गेहूं को त्यागने का अभियान चल रहा है। उम्मीद की जा रही है कि कल यह अभियान यूरोप होते हुये भारत भी आएगा। यह पुस्तक ऑनलाइन भी उपलब्ध है। कोई फ्री में पढ़ना चाहे तो भी मिल सकती है pdf का लिंक कमेंट में है।
डॉ डेविस का मानना है कि पूरी दुनिया को अगर मोटापे, डायबिटिज और हृदय रोगों से स्थाई मुक्ति चाहिए तो उन्हें पुराने भारतीयों की तरह मक्का, बाजरा, जौ, चना, ज्वार या इन सबका मिक्स (सामेल) अनाज ही खाना चाहिये । केवल गेंहू नहीं। गोरतलब है कि भारत में 1980 के बाद से लगातार सुबह शाम गेहूं खा खाकर हम मोटापे और डायबिटिज के मामले में दुनिया की राजधानी बन चुके हैं। पहले भारत में जौ की रोटी बहुत लोकप्रिय थी। मौसम अनुसार मक्का, बाजरा, ज्वार आदि भारतीयों के मांगलिक कार्यों में भी यज्ञवेदी या मन्दिरों में जौ अथवा चावल (अक्षत) ही चढ़ाए जाते रहे हैं। प्राचीन ग्रंथों में भी इन्हीं दोनों अनाजों का अधिकतम जगहों पर उल्लेख है।
1980 में मेहमान आने पर बनती थी गेहूं की रोटी
1980-85 तक भी आम भारतीय घरों में बेजड़ (मिक्स अनाज) की रोटी या जौ की रोटी का प्रचलन था । जो धीरे धीरे खत्म हो गया। 1980 के पहले आम तौर पर घरों में मेहमान आने या दामाद के आने पर ही गेहूं की रोटी बनती थी । उस पर घी लगाया जाता था। अन्यथा जौ ही मुख्य अनाज था। आज घरवाले उसी बेजड़ की रोटी को चोखी धाणी में खाकर हजारों रुपए खर्च कर करते हैं।आज 77 प्रतिशत भारतीय ओवरवेट हैं ।यह तब है जब इतने ही प्रतिशत भारतीय कुपोषित भी हैं। फिर भी 35 पार का हर दूसरा भारतीय अपनी तोंद घटाना चाहता है।
आसानी से नहीं बचता आनाज
गेंहू की लोच ही उसे आधुनिक भारत में लोकप्रिय बनाये हुये है, क्योंकि इसकी रोटी कम समय और कम आग में आसानी से बन जाती है। पर यह अनाज उतनी आसानी से पचता नहीं है। समय आ गया है कि भारतीयों को अपनी रसोई में 80-90 प्रतिशत अनाज जौ, ज्वार, बाजरे आदि को रखना चाहिये और 10-20 प्रतिशत गेंहू के लिए भी। डॉ विलियम डेविस ने गेहूं के दुष्प्रभाव बताये हैं। लेकिन डॉ डेविस मॉडर्न गेहूं के खिलाफ हैं । वह आज के गेहूं को गेहूं नहीं मानते क्योंकि इसमें तमाम पेस्टिसाइड, फर्टीलाइजर वगैरह घुस चुके हैं।
भारत में नहीं होती ग्लूटन एलर्जी
डॉ डेविस का कहना है कि जो गेहूं हमारे दादा परदादा खाते थे वही सही था। डॉ डेविस की बातों का कोई वैज्ञानिक या रीसर्च आधार नहीं हैं सो इसे कई संगठन खारिज करते हैं।दूसरी बात यह कि ग्लूटेन एलर्जी भारत में नहीं होती है। यह अमेरिका और यूरोप के लोगों में पाई जाती है। तीसरी बात यह कि गेहूं मोहनजोदड़ो युग से भारत में है सो इसे विदेशी अनाज कहना गलत है।