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बागी बलिया से डर काहे नाः बलिया जिला घर बा, कवने बात के डर बा

बलिया के साथ बागी विशेषण क्यों है, क्या है यहां की माटी की खासियत, कैसी है पानी की तासीर, क्यों है सब पर भारी। बलिया की हुंकार किसको डराती है। किन महापुरूषों की थाती संजोए हैं बलिया। फिर हर व्यक्ति हर घर क्यों ने करके बलिया का होने पर गर्व।

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Published on: 20 Oct 2020 5:24 PM IST
बागी बलिया से डर काहे नाः बलिया जिला घर बा, कवने बात के डर बा
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योगेश मिश्र/नीलमणि लाल/अनूप हेमकर

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री ने एक बैठक में कहा कि वह बलिया से डरते हैं। यह सही है कि बलिया से वही क्यों बहुत से लोग डरते हैं। बलिया वाले डराने के हथकंडे भी अपनाते रहते हैं। कोई बलिया का आपको मिले तो इन दो में से एक बात ज़रूर बोलेगा। एक, “बलिया ज़िला घर बा, कवने बात के डर बा।” दूसरा,”बाग़ी बलिया।” दोनों बात सही है। बलिया बाग़ी रहा है। बाग़ी है। बलिया की बग़ावत से अंग्रेज़ भी डरते थे। पर आप अंग्रेजों के डर से मुख्यमंत्री जी के डर को जोड़ कर मत देखियेगा।

मुख्यमंत्री जी के डर में प्रहसन है। अंग्रेजों के डर में भय व आशंका थी। बलिया भारत का वह इलाक़ा है जो सबसे पहले आज़ाद हुआ था। दस दिन तक आज़ाद रहा । वहां दस दिन तक हिंदुस्तानियों की हुकूमत तब चली जब जिस गोरी हुकूमत का राज था, उसके राज में सूरज नहीं डूबता था। पर दस दिन तक बलिया में उसके राज का सूरज डूबा रहा। बलिया जिले की उत्तरी और दक्षिणी सीमा क्रमशः सरयू और गंगा नदियों द्वारा बनाई जाती है।

ऐसे पड़ा बलिया का नाम

बलिया महज़ संज्ञा नहीं है। यह विशेष है। यह विशेषण है। बलिया के नामकरण के बारे में ढ़ेर सारी कहानियां हैं। बलिया गजेटियर के अनुसार पौराणिक काल में यहां महर्षि भृगु के आश्रम में उनके पुत्र शुक्राचार्य द्वारा दानवराज दानवीर राजा बलि का यज्ञ सम्पन्न कराया गया था। संस्कृत में यज्ञ को याग कहा जाता है। जिससे इसका नाम बलियाग पड़ा था, जिसका अपभ्रंश बलिया है।

भार्गवों का इतिहास अमेरिका से लेकर अफ़्रीका महाद्वीप तक

भार्गववंश के मूलपुरुष महर्षि भृगु जिनको जनसामान्य ॠचाओं के रचयिता एक ॠषि, भृगुसंहिता के रचनाकार, यज्ञों मे ब्रह्मा बनने वाले ब्राह्मण और त्रिदेवों की परीक्षा में भगवान विष्णु की छाती पर लात मारने वाले मुनि के नाते जानता है। परन्तु इन भार्गवों का इतिहास इस भूमण्डल पर एशिया, अमेरिका से लेकर अफ़्रीका महाद्वीप तक बिखरा पड़ा है।

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महर्षि भृगु का जन्म प्रचेता ब्रह्मा की पत्नी वीरणी के गर्भ से

7500 ईसापूर्व प्रोटोइलामाइट सभ्यता से निकली सुमेरु सभ्यता के कालखण्ड में जब प्रचेता ब्रह्मा बने थे। यहीं से भार्गववंश का इतिहास शुरु होता है। महर्षि भृगु का जन्म प्रचेता ब्रह्मा की पत्नी वीरणी के गर्भ से हुआ था। अपनी माता से सहोदर ये दो भाई थे। इनके बड़े भाई का नाम अंगिरा था।

प्रोटोइलामाइट सभ्यता के शोधकर्ता पुरातत्वविदों डॉ. फ़्रैकफ़ोर्ट, लेंग्डन, सर जान मार्शल और अमेरिकी पुरातत्वविद् डॉ. डी. टेरा ने जिस सुमेरु-खत्ती-हिटाइन-क्रीटन सभ्यता को मिस्र की मूल सभ्यता बताया है, वास्तव में वही भार्गवों की सभ्यता है। प्रोटोइलामाइट सभ्यता चाक्षुष मनुओं और उनके पौत्र अंगिरा की विश्वविजय की संघर्ष गाथा है।

महर्षि भृगु के भी दो विवाह हुए

महर्षि भृगु का जन्म जिस समय हुआ, उस समय इनके पिता प्रचेता सुषानगर जिसे कालान्तर मे पर्शिया, ईरान कहा जाने लगा इसी भू-भाग के राजा थे। इस समय ब्रह्मा पद पर आसीन प्रचेता के पास उनकी दो पत्नियां रह रहीं थी। पहली भृगु की माता वीरणी दूसरी उरपुर की उर्वसी जिनके पुत्र वशिष्ठ जी हुए। महर्षि भृगु के भी दो विवाह हुए, इनकी पहली पत्नी हिरण्यकश्यप की पुत्री दिव्या थी। दूसरी पत्नी पुलोम की पुत्री पौलमी थी। दिव्या देवी से भृगु मुनि के दो पुत्र हुए,जिनके नाम शुक्र और त्वष्टा रखे गए। भार्गवों में आगे चलकर आचार्य बनने के बाद शुक्र को शुक्राचार्य के नाम से और त्वष्टा को शिल्पकार बनने के बाद विश्वकर्मा के नाम से जाना गया।

भृगु मुनि की दूसरी पत्नी पौलमी की तीन संताने हुई

इन्ही भृगु मुनि के पुत्रों को उनके मातृवंश में शुक्र को काव्य एवं त्वष्टा को मय के नाम से जाना गया है। भृगु मुनि की दूसरी पत्नी पौलमी की तीन संतानें हुई, दो पुत्र च्यवन और ॠचीक तथा एक पुत्री हुई जिसका नाम रेणुका था । च्यवन ॠषि का विवाह गुजरात के खम्भात की खाड़ी के राजा शर्याति की पुत्री सुकन्या के साथ हुआ ।

ॠचीक का विवाह महर्षि भृगु ने गाधिपुरी (वर्तमान उ.प्र. राज्य का गाजीपुर जिला) के राजा गाधि की पुत्री सत्यवती के साथ एक हजार श्यामकर्ण घोडे दहेज में देकर किया । पुत्री रेणुका का विवाह भृगु मुनि उस समय विष्णु पद पर आसीन विवस्वान (सूर्य) के साथ किया । इन शादियों से उनका रुतबा भी काफ़ी बढ़ गया था।

क्रोधित विष्णु जी ने सौतेली सास दिव्या देवी को मार डाला

महर्षि भृगु के सुषानगर से भारत के धर्मारण्य मे (वर्तमान उत्तर प्रदेश का बलिया जिला) आने के पौराणिक ग्रन्थों मे दो कथानक मिलते हैं, भृगु मुनि की पहली पत्नी दिव्या देवी के पिता हिरण्यकश्यप और उनकी पुत्री रेणूका के पति भगवान विष्णु में वर्चस्व की जंग छिड़ गई, इस लड़ाई में महर्षि भृगु ने अपनी पत्न्नी के पिता हिरण्यकश्यप का साथ दिया ।

क्रोधित विष्णु जी ने सौतेली सास दिव्या देवी को मार डाला, इस पारिवारिक झगड़े को आगे नही बढ़ने देने से रोकने के लिए महर्षि भृगु के पितामह ॠषि मरीचि ने भृगु मुनि को सुषानगर से बाहर चले जाने की सलाह दिया,और वह धर्मारण्य में आ गए ।

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महर्षि भृगु के क्रोध से कोई नहीं बच पाया

दूसरी कथा पद्मपुराण के उपसंहार खण्ड में मिलती है, जिसके अनुसार मन्दराचल पर्वत पर हो रही यज्ञ में महर्षि भृगु को त्रिदेवों की परीक्षा लेने के लिए निर्णायक चुना गया । भगवान शंकर की परीक्षा के लिए भृगु जी जब कैलाश पहुंचे, उस समय शंकर जी अपनी पत्नी पार्वती के साथ विहार कर रहे थे, शिवगणों ने महर्षि को उनसे मिलने नही दिया, उल्टे अपमानित करके कैलाश से भगा दिया।

भगवान शिव को तमोगुणी मानते हुए, शाप दे दिए कि आज से आपके लिंग की ही पूजा होगी। यहां से महर्षि भृगु अपने पिता ब्रह्मा जी के ब्रह्मलोक पहुंचे वहां इनके माता-पिता दोनों साथ बैठे थे, सोचा पुत्र ही तो है, मिलने के लिए आया होगा । महर्षि का सत्कार नहीं हुआ, तब नाराज होकर इन्होनें ब्रह्माजी को रजोगुणी घोषित करते हुए, शाप दिया कि आपकी कहीं पूजा ही नहीं होगी।

क्रोध में तमतमाए महर्षि भगवान विष्णु के श्रीनार (फ़ारस की खाड़ी )पहुचे, वहां भी विष्णु जी क्षीरसागर में विश्राम कर रहे थे, उनकी पत्नी उनका पैर दबा रही थी। क्रोधित महर्षि ने उनकी छाती पर पैर से प्रहार किया । भगवान विष्णु ने महर्षि का पैर पकड़ लिया, और कहा कि मेरे कठोर वक्ष से आपके पैर में चोट तो नही लगी। महर्षि प्रसन्न हो गए और उनको देवताओं में सर्वश्रेष्ठ घोषित किया।

भृगु मुनि अपनी दूसरी पत्नी पौलमी को लेकर बलिया आ गए

कथानक के अनुसार महर्षि के परीक्षा के इस ढंग से नाराज मरीचि ॠषि ने इनको प्रायश्चित करने के लिए धर्मारण्य में तपस्या करके दोषमुक्त होने के लिए बलिया के गंगातट पर जाने का आदेश दिया । इस प्रकार से भृगु मुनि अपनी दूसरी पत्नी पौलमी को लेकर सुषानगर (ईरान ) से बलिया आ गए। यहाँ पर उन्होने गुरुकुल खोला, उस समय यहां के लोग खेती करना नहीं जानते थे , उनको खेती करने के लिए जंगल साफ़ कराकर खेती करना सिखाया। यहीं रहकर उन्होने ज्योतिष के महान ग्रन्थ भृगुसंहिता की रचना की।

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इसलिए लगता है बलिया का ददरी मेला

कालान्तर में अपनी ज्योतिष गणना से जब उन्हें यह ज्ञात हुआ कि इस समय यहां प्रवाहित हो रही गंगा नदी का पानी कुछ समय बाद सूख जाएगा तब उन्होंने अपने शिष्य दर्दर को भेज कर उस समय अयोध्या तक ही प्रवाहित हो रही सरयू नदी की धारा को यहां मंगाकर गंगा-सरयू का संगम कराया। जिसकी स्मृति में आज भी यहां ददरी का मेला लगता है। ददरी-मेला यहां का प्रसिद्ध मेला है जो आश्विन मास में शहर की पूर्वी सीमा पर गंगा और सरयू नदियों के संगम पर स्थित एक मैदान पर मनाया जाता है।

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बलिया का बलिया नाम पड़ने के पीछे ये भी रहे हैं बड़े कारण

महर्षि भृगु के वंशजों ने यहां से लेकर अफ़्रीका तक राज्य किया। जहां इन्हे खूफ़ू के नाम से जाना गया। यहीं से मानव सभ्यता विकसित होकर आस्ट्रेलिया होते हुए अमेरिका पहुंची,अमेरिका की प्राचीन मय-माया सभ्यता भार्गवों की ही देन है। कुछ विद्वानों का मत है कि यह बुलि राजाओं की राजधानी रहा है। बलिया गजेटियर में कुछ विद्वानों ने बाल्मीकी आश्रम के बारे में लिखा है जिससे इसका नाम बालमिकीया से बलिया पड़ा है। इसी गजेटियर में बालुकामय भू-भाग से बलिया नाम पड़ने का उल्लेख मिलता है।

बलिया प्राचीन समय में कोसल साम्राज्य का एक भाग था

कोई ऐसी फ़ील्ड नहीं हैं, जिसमें बलिया के लोगों ने नाम न कमाया हो। संत और साधु जैसे जमदग्नि, वाल्मीकि, भृगु, दुर्वासा आदि के आश्रम बलिया में थे। बलिया प्राचीन समय में कोसल साम्राज्य का एक भाग था। यह भी कुछ समय के लिए बौद्ध प्रभाव में आया था। पहले यह गाजीपुर जिले का एक हिस्सा था, लेकिन बाद में यह जिला हो गया। यह राजा बलि की धरती माना जाता हैं।

भगवान शिव ने कामदेव को जला कर भस्म कर दिया था

कामेश्वर धाम उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के कारों ग्राम में स्थित है। इस धाम के बारे में मान्यता है कि यह शिव पुराण और वाल्मीकि रामायण में वर्णित वही जगह है जहा भगवान शिव ने देवताओं के सेनापति कामदेव को जला कर भस्म कर दिया था। यहां पर आज भी वह आधा जला हुआ, हरा भरा आम का वृक्ष (पेड़) है जिसके पीछे छिपकर कामदेव ने समाधि में लीन भगवान शंकर पर पुष्प बाण चलाया था।

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महाभारत के रचनाकार वेद व्यास जी का जन्म यहीं हुआ

बौद्धकालीन इतिहास में भी इस भू-भाग के बारे में अनेक महत्वपूर्ण जानकारी मिलती है। डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने अपनी पुस्तक 'द बुद्धा एण्ड हिज धम्मा' में लिखा है कि - “राजकुमार सिद्धार्थ ने महर्षि भृगु के आश्रम में कुछ समय रहकर यज्ञ कर्मकांड और साधना की विधियों को सीखा था। महाभारत के रचनाकार वेद व्यास जी का इसी भू-भाग पर जन्म हुआ था।”

बाबर और महमूद लोदी का युद्ध

मुगलकाल में भी यह भू-भाग गतिविधि का केंद्र रहा। 05 मई ,1529 को बलिया जिले में घाघरा नदी के किनारे बाबर और महमूद लोदी के बीच एक निर्णायक युद्ध हुआ था , जिसमें बाबर विजयी हुआ। सन् 1302 में बादशाह बख्तियार खिलजी ने सबसे पहले वर्तमान बलिया जिले के नाम पर अंग देश (वर्तमान बिहार) और बंगदेश (वर्तमान बंगाल) के कुछ भू-भाग को लेकर बलिया नाम से राजस्व वसूली की इकाई ‘बलिया महाल’ बनाया था। 1798 में जब ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने गाजीपुर जिले को बनाया, तब बलिया को गाजीपुर जिले की एक तहसील बनाया गया था। 01 नवम्बर , 1879 में ब्रिटिश साम्राज्य के शासकों ने बलिया जिले की स्थापना की।

आज़ाद बलिया

8 अगस्त , 1942 को मुंबई से अंग्रेजों भारत छोड़ो का नारा दिया गया। 9 अगस्त को देशभर में अंग्रेजों ने कई क्रांतिकारी नेताओं को गिरफ्तार कर लिया। गांधी-नेहरू समेत कांग्रेस कार्य समिति के सभी सदस्य गिरफ्तार थे जिसके विरोध में बलिया भी उठा। इसके अगुवा थे बलिया के चित्तू पाण्डेय। आजादी की लड़ाई के दौरान चित्तू पांडेय अपने साथियों जगन्नाथ सिंह और परमात्मानंद सिंह के साथ गिरफ्तार कर लिए गये, जिससे लोगों में काफी गुस्सा था। बलिया जिले के हर प्रमुख स्थान पर प्रदर्शन व हड़तालें शुरू हो गईं, आगजनी, तोड़फोड़ की गयी। पांच दिनों तक पूरे बलिया में यह सिलसिला जारी रहा।

जब झुकना पड़ा प्रशासन को

4 अगस्त , 1942 को वाराणसी कैंट से विश्व विद्यालय के छात्रों की एक ट्रेन जिसे आजाद ट्रेन का नाम दिया गया था, वह बलिया पहुंची। 17 अगस्त की सुबह रसड़ा बैरिया, गड़वार, सिकंदरपुर , हलधरपुर, नगरा, उभांव आदि जगहों पर आंदोलनकारियों ने धावा बोल दिया। बैरिया थाने पर जनता ने जब राष्ट्रीय झंडा फहराने की मांग की तो पुलिस ने गोलियां चला दीं जिससे लोग मारे गए। रसड़ा में गुलाब चंद के अहाते में भी पुलिसिया कार्रवाई में बीस लोगों की जानें गईं। 19 अगस्त को जनता जिला मुख्यालय बलिया पहुंची भीड़ के आगे प्रशासन झुक गया और चित्तू पांडेय और जगन्नाथ सिंह सहित 150 सत्याग्रहियों को रिहा कर दिया गया।

19 अगस्त को जिले में राष्ट्रीय सरकार का विधिवत गठन किया गया जिसके प्रधान चित्तू पांडेय बनाए गए। जिले के सारे सरकारी संस्थानों पर राष्ट्रीय सरकार का पहरा बैठा दिया गया। सारे सरकारी कर्मचारी पुलिस लाइन में बंद कर दिए गए। हनुमान गंज कोठी में राष्ट्रीय सरकार का मुख्यालय कायम किया गया।

एक अंग्रेज ऑफिसर नीदर सोल 22 अगस्त को सेना की एक टुकड़ी लेकर बलिया पहुंचा। 23 अगस्त को नदी के रास्ते सेना की और टुकड़ियां भी पहुंच गईं जिसके बाद अंग्रेजों ने लोगों पर खूब कहर ढाये। चित्तू पांडेय को गिरफ्तार करने पहुंची पुलिस उन्हें तो नहीं पा सकी, लेकिन गांव-गांव उनके होने के शक में जला दिए गए। चित्तू पांडेय का निधन 1946 को हो गया और वो आजाद भारत नहीं देख सके।

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डॉ. राम मनोहर लोहिया का ख़ास भाषण

डॉ. राम मनोहर लोहिया ने इस घटना का ज़िक्र अपने भाषणों व लेखन में कई एक बार कुछ यूं किया है,” पूरा बलिया जिला क्रांतिकारियों के क़ब्ज़े में आ गया था । यह सब किस्से लोगों को मालूम नहीं ,भूले जा रहे हैं। आठ दस दिन तक बलिया ज़िले पर अंग्रेज़ों का क़ब्ज़ा नहीं था । कलेक्टर साहब गिरफ़्तार हो गए थे । गिरफ़्तारी जेल में रखकर नहीं हुई थी , क्योंकि वे क्रांतिकारियों का कहना मान गए इसलिए उनको उनके घर में गिरफ़्तार कर दिया गया था। एक आरजी हुकूमत बन गई थी । उसका प्रधानमंत्री, जो भी हो, हुआ एक बूढ़ा आदमी जो कांग्रेस का उस समय सबसे बड़ा था, चित्तू पांडेय और मंत्री वग़ैरह सब बन गये थे।

आठ दस दिन तक वो हुकूमत चली थी। उस समय हवाई पलटन, ज़मीनी पलटवार पानी पलटन होती थी। आपको यक़ीन नहीं होगा पर डॉ. राम मनोहर लोहिया ने इसे अपने लेख व भाषणों में स्वीकार किया है कि हवा पलटन का सबसे बड़ा हिंदुस्तानी अफ़सर मजूमदार उनसे मिला और कहा कि अगस्त का खुला बलवा जब जनता की तरफ़ से हुआ, तब हम लोगों को मालूम नहीं था, तैयार नहीं थे।

क्योंकि हम नहीं जानते थे कि जनता के अंदर इतनी चाह और इतनी शक्ति है, लेकिन अब हम आपको हवा पलटन की तरफ़ से, उसका जो हिंदुस्तानी अंग है, आश्वासन देते हैं कि जब कभी फिर से कभी जनता का खुला बलवा होगा,तो ये सब हवाई जहाज़ आप लोगों की सेवा में रहेंगे, अंग्रेजों के ख़िलाफ़ । “

जातीय राजनीति

1971 तक बलिया लोकसभा सीट कांग्रेस का गढ़ रही। 1984 में कांग्रेस यहां आखिरी बार जीती थी। तब जगन्नाथ चौधरी यहां से चुनाव जीते थे। उसके बाद यहां से समाजवादी पृष्ठभूमि के उम्मीदवार चुनाव जीतते रहे। 2014 में मोदी लहर ने यह सीट समाजवादियों से छीन ली।

बलिया लोकसभा क्षेत्र का गठन बैरिया, बलिया नगर, फेफना, जहूराबाद तथा मोहम्दाबाद विधानसभा को मिलाकर हुआ है। यहां ब्राह्मण, राजपूत, यादव, मुस्लिम, अनुसूचित जाति, राजभर और भूमिहार जाति के वोटरों की अच्छी तादाद हैं। इस सीट पर मुसलमान वोटरों की संख्या तकरीबन डेढ़ लाख है, जबकि राजपूत और ब्राह्मण वोटरों की संख्या क्रमश: ढाई व तीन लाख के करीब मानी जाती है। यादवों की संख्या भी ढाई लाख के आस-पास है। सवर्ण जातियों में भूमिहार वोटरों की आबादी एक लाख तथा ओबीसी में राजभर, कोइरी, बनिया व अनुसूचित जातियों की संख्या भी चुनाव परिणाम को प्रभावित करने का माद्दा रखती है।

बलिया की समस्याएं

यहां की लगभग 70 प्रतिशत आबादी गंगा-घाघरा व टोंस की बाढ़ और कटान के साथ साथ आर्सेनिकयुक्त पानी से परेशान है, लेकिन ये समस्या कभी राजनीतिक मुद्दा नहीं बन पाई। इसके अलावा बलिया में किसी तरह का कोई बड़ा उद्योग नहीं है। भारत सरकार के एमएसएमई मंत्रालय की 2010-11 की एक रिपोर्ट के अनुसार बलिया में कुल रजिस्टर्ड औद्योगिक इकाइयां 9596 हैं, जिनमें मध्यम और बड़ी इकाई मात्र एक है। 2011 की जन गणना रिपोर्ट के अनुसार पूरे बलिया जिले में मात्र एक बड़ा कारखाना है - किसान सहकारी चीनी मिल, रसड़ा।

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नामचीन लोग

मंगल पांडे- 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के नायक मंगल पाण्डेय बलिया जिले के नगवां गाँव में जन्मे थे। वो ईस्ट इंडिया कंपनी की 34वीं बंगाल इंफेन्ट्री के सिपाही थे। तत्कालीन अंग्रेजी शासन ने उन्हें बागी करार दिया जबकि आम हिंदुस्तानी उन्हें आजादी की लड़ाई के नायक के रूप में सम्मान देता है। भारत के स्वाधीनता संग्राम में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका को लेकर भारत सरकार द्वारा उनके सम्मान में सन् 1984 में एक डाक टिकट जारी किया गया।

चित्तू पाण्डेय (1865-1946 )- स्वतंत्रता आंदोलन के नेता जिनके नेतृत्व में बलिया में स्वतंत्र सरकार का गठन हुआ। चित्तू पांडेय को प्यार से शेर-ए-बलिया यानि बलिया का शेर कहते हैं। बलिया के रट्टूचक गांव में 10 मई ,1865 को जन्मे चित्तू पांडेय ने 1942 के ब्रिटिश विरोधी आंदोलन में स्थानीय लोगों की फौज बना कर अंग्रेजों को खदेड दिया था। 19 अगस्त,1942 को वहां स्थानीय सरकार बनी तब कुछ दिनों तक बलिया में चित्तू पांडेय का शासन भी चला।

वीर लोरिक- उनकी वीरता के बारे में यह कहा गया है कि उन्होंने अपनी तलवार से ही पत्थर को दो हिस्सों में अलग अलग कर दिया था, आज भी वह पत्थर मौजूद है।

हजारी प्रसाद द्विवेदी(19 ,अगस्त 1907 - 19 मई,1979) - प्रख्यात हिंदी साहित्यकार हिन्दी निबन्धकार, आलोचक और उपन्यास कार थे। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का जन्म श्रावण शुक्ल एकादशी संवत् 1964 तदनुसार 19 अगस्त 1907 ई० को उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के आरत दुबे का छपरा, ओझवलिया नामक गाँव में हुआ था।

जयप्रकाश नारायण (11 अक्टूबर, 1902 - 8 अक्टूबर, 1979)- संक्षेप में जेपी। लोकनायक के नाम से प्रसिद्ध महान समाजवादी नेता। जयप्रकाश नारायण भारतीय स्वतंत्रता सेनानी और राजनेता थे। उन्हें 1970 में इंदिरा गांधी के विरुद्ध विपक्ष का नेतृत्व करने के लिए जाना जाता है। इन्दिरा गांधी को पदच्युत करने के लिये उन्होने 'सम्पूर्ण क्रांति' नामक आन्दोलन चलाया। वे समाज-सेवक थे। 1999 में उन्हें मरणोपरान्त भारत रत्न से सम्मनित किया गया। इसके अतिरिक्त उन्हें समाजसेवा के लिए १९६५ में मैगससे पुरस्कार प्रदान किया गया था।

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युवा तुर्क चंद्रशेखर

चन्द्रशेखर- भारत के नवें प्रधानमन्त्री। जन्म 17 अप्रैल, 1927 - मृत्यु 8 जुलाई, 2007 । भारत के नौवें प्रधानमन्त्री। पूर्वी उत्तरप्रदेश के बलिया जिले के इब्राहिमपट्टी का एक कृषक परिवार में जन्में चंद्रशेखर 1962 से 1977 तक वह भारत के ऊपरी सदन राज्य सभा के सदस्य थे। उन्होंने 1984 में भारत की पदयात्रा की, जिससे उन्होंने भारत को अच्छी तरह से समझने की कोशिश की।

इस पदयात्रा से इन्दिरा गांधी को थोड़ी घबराहट हुई। सन 1977 मे जब जनता पार्टी की सरकार बनी तो उन्होने मंत्री पद न लेकर जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष का पद लिया था। सन 1977 में ही वो बलिया जिले से पहली बार लोकसभा के सांसद बने।

उन्होंने पहले के नेता विश्वनाथ प्रताप सिंह के राजीनामा के बाद जनता दल से कुछ नेता लेकर समाजवादी जनता पार्टी की स्थापना की। उनकी सरकार को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने चुनाव ना करने के लिए समर्थन करने के बाद उनकी छोटे बहुमत की सरकार बन गयी। बाद मे कांग्रेस ने नेता राजीव गांधी की जासूसी करने का आरोप समर्थन वापस ले लिया।

कांग्रेस ने उनके सरकार को सहयोग नकारने के बाद उन्होंने 60 सांसद के समर्थन के साथ इस्तीफा देने की घोषणा कर दी। चन्द्रशेखर उनके संसदीय वार्तालाप के लिए बहुत चर्चित थे। उन्हें 1995 में आउटस्टैण्डिंग पार्लिमेन्टेरियन अवार्ड भी मिला था।

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जनेश्वर मिश्र- "छोटे लोहिया" के नाम से जाने जाने वाले समाजवादी नेता ।

केदारनाथ सिंह- ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित प्रख्यात हिंदी साहित्यकार। जन्म 7 जुलाई , 1934, निधन 19 मार्च 2018 । वह अज्ञेय द्वारा सम्पादित तीसरा सप्तक के कवि रहे। भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा उन्हें वर्ष २०१३ का ४९वां ज्ञानपीठ पुरस्कार प्रदान किया गया था।

अमरकांत (1925 - 17 फ़रवरी 2014)- हिंदी कथा साहित्य में प्रेमचंद के बाद यथार्थवादी धारा के प्रमुख कहानीकार थे। यशपाल उन्हें गोर्की कहा करते थे।

दूधनाथ सिंह- प्रख्यात हिंदी साहित्यकार।

परशुराम चतुर्वेदी- प्रख्यात हिंदी साहित्यकार।

गणेश प्रसादगणेश प्रसाद- भारतीय गणितज्ञ

गणेश प्रसाद- भारतीय गणितज्ञ

इनका जन्म 15 नवम्बर 1876 ई. का बलिया (उत्तर प्रदेश) में हुआ। इनकी आरंभिक शिक्षा बलिया और उच्च शिक्षा म्योर सेंट्रल कालेज, इलाहाबाद में हुई। 1898 ई. में इन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से डी. एस-सी. की उपाधि प्राप्त की। तदुपरान्त कायस्थ पाठशाला, इलाहाबाद, में दो वर्ष प्राध्यापक रहकर राजकीय छात्रवृति की सहायता से ये गणित के अध्ययन के लिए कैंब्रिज (इंग्लैंड) और गटिंगेन (जर्मनी) गए।

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संयुक्त प्रान्त में दस वर्ष तक गणित के प्रोफेसर रहे

1904 ई. में भारत लौटने पर ये संयुक्त प्रान्त में दस वर्ष तक गणित के प्रोफेसर रहे। तदुपरान्त 1914 से 1918 ई. तक कलकत्ता विश्वविद्यालय के प्रयुक्त गणित के घोष-प्रोफेसर और 1918 ई. से 1923 ई. तक बनारस विश्वविद्यालय में गणित के प्रोफेसर और 1923 ई. के पश्चात् आजीवन कलकत्ता विश्वविद्यालय के शुद्ध गणित के हार्डिज प्रोफसर रहे। 1918 ई. में इन्होंने बनारस मैथिमैटिकल सोसायटी की स्थापना की।

इन्होंने विभवों, वास्तविक चल राशियों के फलनों, फूर्ये श्रेणी और तलों आदि के सिद्धान्तों पर 52 शोधपत्र और 11 पुस्तकें लिखीं। इनमें से इनका शोधपत्र ऑन द कान्स्टिट्यूशन ऑव मैटर ऐंड ऐनालिटिकल थ्योरीज़ ऑव हीट (On the Constitution of Matter and Analytical Theories of Heat) अत्यन्त विख्यात है।

हरिवंश नारायण सिंह- उपसभापति राज्यसभा।

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