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नेपाल की भूमि पर चीन की गिद्ध दृष्टिः हाथ पर हाथ धरे बैठने का वक्त नहीं
चीनी राष्ट्रपति संयुक्त राष्ट्र में कहते हैं कि उन्हें युद्ध नहीं चाहिए और लद्दाख से लेकर डोकलाम तक उनकी सेना अपना मोर्चा मजबूत करने में जुटी है। भारत से लगी सीमा पर लगातार बमवर्षक अभ्यास कर रहे हैं, कहीं हेलीपोर्ट बन रहे हैं तो कहीं एयर डिफेंस सिस्टम तैनात किया जा रहा है ।
अनुराग शुक्ला
लद्दाख में चल रही तनातनी के बीच चीन अपनी चालू चालों से बाज नहीं आ रहा है। लद्दाख में कभी गरम कभी नरम रुख अपना रहा है। चीनी राष्ट्रपति संयुक्त राष्ट्र में कहते हैं कि उन्हें युद्ध नहीं चाहिए और लद्दाख से लेकर डोकलाम तक उनकी सेना अपना मोर्चा मजबूत करने में जुटी है। भारत से लगी सीमा पर लगातार बमवर्षक अभ्यास कर रहे हैं, कहीं हेलीपोर्ट बन रहे हैं तो कहीं एयर डिफेंस सिस्टम तैनात किया जा रहा है ।
चालू चीन की गिद्धवाली निगाहें नेपाल पर
बात सिर्फ सैन्य तैयारी तक सीमित नहीं हैं भारत को घेरने के लिए चीनी अपनी तैयारी को चौतरफा कर रहे हैं। पाकिस्तान से पींगे बढ़ा रहा है तो मालद्वीप, श्रीलंका को अपने पाले में लाने के लिए साम,दाम दंड भेद सबका इस्तेमाल कर रहा है। भारत को घेरने और भारत पर खतरे को पर्मानेंट बनाने के लिए अब चालू चीन ने अपनी गिद्धवाली निगाहें नेपाल पर ड़ाल दी हैं।
सीमावर्ती जिलों में जमीन पर अवैध कब्जे
नेपाल में समर्थक प्रधानमंत्री के रूप में केपी शर्मा ओली के जरिए चीन अब वहां के भुगोल को बदलने में तेजी से जुट गया है। इतना ही नहीं रणनीतिक रुप से महत्वपूर्ण कई सीमावर्ती इलाकों के जमीनी ठिकानों पर कब्जा करने की मुहिम में भी चीनी तंत्र तेजी से लगा हुआ है। नेपाल के कृषि मंत्रालय की सर्वे रिपोर्ट की माने तो चीन ने नेपाल के सात सीमावर्ती जिलों में जमीन पर अवैध कब्जे किए हैं।
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चीन ने नेपाल के बड़े भूभाग पर कब्जा कर रखा है
ये जिले हैं-डोलखा, गोरखा, धारचूला, हमला, सिंधुपालचोक, संखुवासभा और रासुवा। यहां तक कि डोलखा जिले से लगने वाली सीमा को भी चीन ने अपने पक्ष में बदल लिया है। अब ये सीमा नेपाल के डेढ़ किलोमीटर अंदर आ गयी है। इसी रिपोर्ट में ये भी कहा गया है कि चीन नेपाल से लगने वाली सीमा को बदलने के काम में तेजी से लगा हुआ है। वह नेपाल की जमीन पर कब्जा कर अपना भूभाग ब़़ढा रहा है। जमीनी हालात और खराब हैं। चीन ने नेपाल के बड़े भूभाग पर कब्जा कर रखा है, जिसके बारे में नेपाल सरकार को खबर ही नहीं है। जो कब्जे जानकारी में आए हैं, सत्तारू़ढ़ नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी सरकार उन पर भी पर्दा डालने में जुटी है। इस कार्रवाई का सत्तारूढ़ कम्युनिस्ट पार्टी के नेताओं ने कुछ विरोध किया था पर बात अनसुनी कर दी गई थी।
रुई गांव के गोरखा अब चीन के दमनकारी शासन के अधीन
यही वजह है कि भारत के साथ कालापानी सीमा विवाद का मुद्दा उठाने वाले नेपाल के प्रधानमंत्री ने इन गांवों पर कब्जे के साथ ही रुई गांव पर पिछले तीन साल से चीन के कब्जे पर आंख मूंद रखी है। करीब 60 साल तक नेपाल सरकार के अधीन रहने वाले रुई गांव के गोरखा अब चीन के दमनकारी शासन के अधीन हो गए हैं। नेपाली अखबार अन्नापूर्णा पोस्ट के मुताबिक रुई गांव वर्ष 2017 से तिब्बत के स्वायत्ता क्षेत्र का हिस्साी हो गया है। वैसे तो रुई गांव अभी भी नेपाल के मानचित्र में शामिल है, लेकिन वहां पर पूरी तरह से चीन का नियंत्रण हो गया है। रुई गांव के सीमा स्तंभों को अतिक्रमण को वैध बनाने के लिए हटा दिया गया है।
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लापरवाही के कारण हमने रुई और तेघा दोनों गांव खो दिए
नेपाली के बुद्धिजीवी तो यहां तक कहते हैं कि रुई गांव नेपाल का हिस्सा है। चीन ने इसे किसी युद्ध और अनुबंध के जरिए नहीं कब्जाया बल्कि नेपाल ने बॉर्डर के पिलर को लगाते समय लापरवाही के कारण हमने रुई और तेघा दोनों गांव खो दिए। उनका आरोप है कि ये कब्जा भ्रष्ट नेपाली अधिकारियों की सहमति से हुआ है। भ्रष्ट नेपाली अधिकारियों की सहमति से 35 नंबर पिलर को समदो और रुई गांव के बीच की सीमा तय कर दिया गया। इससे पूरा गांव चीनी नियंत्रण में आ गया। इन्हीं भ्रष्ट अधिकारियों की लालच उनके देश पर भारी पड़ गयी है और नेपाल चुप है।
नेपाल की चुप्पी, के पी ओली की भूमिका
नेपाल की चुप्पी में प्रधानमंत्री के पी ओली की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण है। तभी तो पिछले दिनों जब नेपाल में ओली की कुर्सी पर संकट आया था तो चीन का पूरा तंत्र खड़बड़ा गया था। चीन की राजदूत ने दिन-रात ऐडी चोटी का जोर लगाकर उनकी सरकार बचाने में बड़ी भूमिका निभाई। इस भूमिका निभाने में उन्होंने ना तो राजनय के प्रोटोकॉल का ध्यान रखा नहीं ही एक राजनयिक के तौर पर उनके भूमिका पर उठ रहे सवालों की चिंता की। उन्हें चिंता सिर्फ चीनी एजेंडे की थी जिसके लिए डिप्लोमैटिक डीसेंसी को ताक पर रख दिया गया।
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नेपाल का चीन के साथ रेल संपर्क स्थापित हो
दरअसल कम्युनिस्ट के पी ओली चीन के लिए इतने महत्वपूर्ण इसलिए हैं क्योंकि वे चाहते हैं कि भारत के प्रभाव को कम कर चीन के दखल को नेपाल में बढ़ाया जाय। अपने पहले कार्यकाल में भी ओली ने चीन का दौरा कर ट्रांज़िट ट्रेड समझौते पर हस्ताक्षर किया था। ओली का विजन है कि चीन तिब्बत के साथ अपनी सड़कों का जाल फैलाकर नेपाल को भी उससे जोड़ दे। वो ये भी चाहते हैं कि नेपाल का चीन के साथ रेल संपर्क स्थापित हो। लेकिन हिमालयन रेंज में नेपाल और चीन को रेल से जोड़ना आसान नहीं है। अगर ये परियोजना होती भी है कि इसमें भारी खर्च की भी बात कही जा रही है। ऐसे में नेपाल को ये भी डर है कि तज़ाकिस्तान, लाओस, मालदीव, जिबुती, कीर्गिस्तान, पाकिस्तान, मंगोलिया, श्रीलंका और मोंटेनेग्रो की तरह कहीं वो भी कर्ज़ के बोझ तले दब न जाए।
लोन डिप्लोमैसी चीन का एक हथियार
नेपाल को ये भी अच्छी तरह पता है कि चीन से उसके रिश्ते भारत की तरह भावनात्मक स्तर पर नहीं होंगे। वैसे भी चीन अपने प्रभाव को बढ़ाने के लिए लोन डिप्लोमैसी को एक हथियार की तरह ही इस्तेमाल कर रहा। चाइना कंस्ट्रक्शन बैंक की तरफ़ दिए जाने वाले विदेशी कर्ज़ों में 31 फ़ीसदी की बढ़ोतरी हुई है, जबकि इसकी तुलना में देश में यह वृद्धि दर 1.5 फ़ीसदी ही है। 2016 की तुलना में 2017 में बैंक ऑफ चाइना की ओर से बाहरी मुल्कों को कर्ज़ देने की दर 10.6 फ़ीसदी बढ़ी है।
कर्ज़ रणनीति के शिकार पाकिस्तान, श्रीलंका और मालदीव
उसकी कर्ज़ रणनीति के शिकार पाकिस्तान, श्रीलंका और मालदीव पहले ही बन चुके हैं। श्रीलंका को एक अरब डॉलर से ज़्यादा कर्ज़ ना चुका पाने के कारण चीन को हम्बनटोटा पोर्ट ही सौंपना पड़ गया था। इसी तरह की स्थिति ग्वादर पोर्ट पर पाकिस्तान को झेलनी पड़ सकती है। ग्वादर पर नियंत्रण को लेकर चीन और पाकिस्तान में 40 सालों का समझौता है। समझौते शर्तों के मुताबिक इसके राजस्व पर चीन का 91 फ़ीसदी अधिकार होगा और ग्वादर अथॉरिटी पोर्ट को महज 9 फ़ीसदी मिलेगा। यानी पाकिस्तान के पास 40 सालों तक ग्वादर पर नियंत्रण नहीं रहेगा।
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महज दो सालों में जिबुती पर भारी कर्ज
अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने कहा है कि जिबुती जिस तरह से कर्ज़ ले रहा है वो उसके लिए ही ख़तरनाक है. महज दो सालों में जिबुती पर बाहरी कर्ज़ उसकी जीडीपी का 50 फ़ीसदी से 80 फ़ीसदी हो गया। इसमें से ज्यादातर कर्ज चीन के एक्ज़िम बैंक का हैं। गौरतलब है कि जिबुती अमरीका के सैन्य अड्डों में से एक है। दुनिया के जो आठ देश चीनी कर्ज के तले दबे हैं उनमें से मोन्टेनेग्रो का कर्ज जीडीपी का 80 फीसदी से ज्यादा है। इसी तरह एशिया के सबसे ग़रीब देशों में एक माने जाने वाले तजाकिस्तान पर सबसे ज़्यादा कर्ज़ चीन का है। पिछले एक दश में ताजाकिस्तान विदेशी कर्ज के तले दबा है और कुल विदेश कर्ज का 80 फीसदी चीन का है। किर्गिस्तान पर कुल विदेशी कर्ज़ में चीन का 40 फ़ीसदी हिस्सा है।
नेपाल वन बेल्ट वन रोड परियोजना का समर्थन कर रहा है
चीन के सर्वेसर्वा बन चुके शी जिन पिन की महत्वाकांक्षी वन बेल्ट वन रोड परियोजना के जरिए किर्गिस्तान, पाकिस्तान जैसे देशों को अपने लोन डिप्लोमैंसी में फंसा चुका चीन अब नेपाल को भी शिकार बनाना चाहता है। के पी शर्मा ओली के नेतृत्व वाला नेपाल वन बेल्ट वन रोड परियोजना का समर्थन कर रहा है। वहीं भारत का वन बेल्ट वन रोड पर विरोध जगजाहिर है।
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नेपाल पर चीन के बढ़ते प्रभाव
नेपाल पर चीन के बढ़ते प्रभाव को भारत यूं ही नज़रअंदाज नहीं कर सकता है। चीन जहां एक तरफ नेपाल के गांवों पर कब्जे कर रहा है वहीं नेपाल को अपनी लोन डिप्लोमैसी का नया शिकार बनना चाहता है। ऐसे में नेपाल की सीमा पर अगर चीन का प्रभाव हुआ तो भारत की पूरी सीमा लद्दाख से लेकर अरुणाचल तक भारत के लिए सिरदर्द बन जाएगी। चीनी चालू चालों के देखकर इस बात का अंदाजा लगाया जा सकता है कि अगर नेपाल की 1751 किलोमीटर की सीमा पर चीन का प्रभाव बढ़ने का सिरदर्द कैसा होगा। वैसे भी भारत एक और तिब्बत बनाने की गलती नहीं कर सकता है।
हम अरुणाचल से लेकर लद्दाख तक चीन को झेलने पर मजबूर
तिब्बत पर जब माओ ने कब्जा किया था तो भारतीय नेतृत्व की रणनीति के कन्फ्यूजन का खामियाजा आज तक भुगतना पड़ रहा है। पहले तिब्बत को हड़बड़ी में मान्यता और फिर उसे चीन का हिस्सा मानकर संयुक्त राष्ट्र में अजीब सी रणनीति अपनाने की भारतीय नेतृत्व की गलती का इतिहास बदला नहीं जा सकता है। इस गलती का ही असर है कि हम अरुणाचल से लेकर लद्दाख तक चीन को झेलने पर मजबूर हैं। नेपाल का अंदरूनी मामला मानकर हाथ पर हाथ धरे बैठे रहने की वकालत करने वाले शायद भूल गये हैं कि सुग्रीव और बाली का झगड़ा भी आपसी था मर्यादा पुरुषोत्तम राम ने ना सिर्फ इसमें दखल दिया बल्कि अपनी मर्यादा भी इसके लिए दांव पर लगा दी थो।