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मोदी का खास मकसदः जय श्रीराम की जगह इसलिए बोले जय सियाराम
भूमिपूजन के बाद पीएम मोदी ने अपने संबोधन की शुरू राम मंदिर आंदोलन के परिचित नारे जय श्रीराम से नहीं बल्कि जय सियाराम और सियावर रामचंद्र की जय से की।
अयोध्या: अयोध्या में बुधवार 5 अगस्त को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राम जन्मभूमि मंदिर निर्माण के लिए भूमिपूजन किया और मंदिर की आधारशिला रखी। भूमिपूजन के बाद पीएम मोदी ने अपने संबोधन की शुरू राम मंदिर आंदोलन के परिचित नारे जय श्रीराम से नहीं बल्कि जय सियाराम और सियावर रामचंद्र की जय से की। उन्होंने जय सियाराम का जोरदार नारा लगाया और इसी नारे को बार-बार दोहराया। लेकिन क्या आपको पता है कि ऐसा अनायास नहीं हुआ है।
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राजनीतिक और सामाजिक तौर पर अहम मायने
ऐसा माना जा रहा है कि पीएम मोदी का जय श्रीराम से जय सियाराम पर वापसी राजनीतिक और सामाजिक तौर पर अहम मायने रखते हैं। कहा जा रहा है कि इनमें राजनीति के नए बीज संरक्षित हैं। इस नारे के साथ ही पीएम मोदी ने राम के नाम पर राजनीति को भी दूसरी यात्रा पर आगे बढ़ा दिया है। राजनीतिक नजरिए से देखा जाए तो जय श्रीराम का सफर खत्म हुआ और जय सियाराम के साथ आगे की यात्रा शुरू होती है।
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तो चलिए इन नारों की जड़ों और मोदी के संदेश को समझने की कोशिश की जाए-
श्रीराम का उद्घोष थी एक नई बात
जय श्रीराम कभी भी ना तो पारायण का और ना ही परिक्रमा का नियमन्यास रहा और ये सामान्य जन का भी संबोधन व्यवहार नहीं था। उत्तर भारत में राम को याद करने की जो स्वाभाविक शब्द या शैलियां रही हैं वो या जय सियाराम रही या जय राम, श्रीराम, जय-जय राम रही हैं। जय श्रीराम का उद्घोष एक नई बात थी।
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जय श्रीराम ने आंदोलन में भरा वीर रस का भाव
दरअसल, जय श्रीराम एक आंदोलन का उद्घोष था। इस नारे ने राम की छवि को बदलने और राम मंदिर आंदोलन को वीर रस वाला भाव प्रदान करने का काम किया। आंदोलन को वीररस वाला भाव देने में इस नारे ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 1990 के मार खाते कारसेवक हो या गौवंश बचाने के लिए निकले गौरक्षक उन सभी के लिए जयश्रीराम आक्रामक धर्मबद्धता का महामंत्र बन गया था।
लेकिन सच यह भी है कि 1990 से अब तक इस नारे को लेकर उत्साह कम होता गया। पिछले एक दशक में इस नारे, जो लोगों में जोश भर दिया करता था, को लेकर उत्साह धीरे-धीरे धीमा पड़ता गया। जय श्रीराम की जगह विकास और आम भारतीयों के सपनों पर बात होने लगी।
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तो इसलिए लौटा जय सियाराम
बाबरी विध्वंस से लेकर सुप्रीम कोर्ट द्वारा फैसला सुनाए जाने तक के इस सफर में जय श्रीराम के नारे से जितना और जो कुछ भी हासिल किया जा सकता था, वो किया गया। लेकिन अब आंदोलन की उग्रता की वजह और मकसद दोनों खत्म हो चुके हैं। इसलिए मोदी जय सियाराम के उच्चार के साथ उसी राम पर वापस लौटना चाहते हैं, जो जनमानस की चेतना और व्यवहार का हमेशा से हिस्सा रहे हैं। अब राम को आंदोलन के उस पोस्टर से हटाकर सर्वसाधारण तक वापस ले जाने की योजना की जाएगी।
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राम सबमें हैं और सबके हैं
अब एक ऐसे राम को लेकर आगे जाना है, जो सबमें हैं और सबके हैं। प्रधानमंत्री मोदी ने भी अपने भाषण में इस बात पर जोर दिया कि राम सबमें हैं और सबके हैं। अब आगे एक बड़ी और समावेशी राजनीति तक के रास्त जयश्रीराम से नहीं, बल्कि सियाराम से ही खोले जा सकते हैं। इसलिए ये नारा मोदी के भाषण में खास रहा।
आंदोलन के पोस्टर से उतारकर जन-जन तक ले जाने का काम
अब जय सियाराम का यह नारा राम को आंदोलन के पोस्टर से उतारकर और पार्टी समर्थकों से निकालकर लोगों तक ले जाने का काम करेगा। यह नारा ना केवल दूर रहे लोगों को जोड़ने का काम करेगा, बल्कि जातियों के बीच पुल का भी काम करेगा। साथ ही समाजों को एकसाथ बैठाने का जरिया भी बनेगा।
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अंत में इसी नारे पर बीजेपी को करनी थी वापसी
मामले के जानकारों का कहना है कि संबोधन को जय सियाराम से शुरू करना महज इत्तेफाक नहीं, बल्कि बीजेपी की सोची-समझी रणनीति है। अब मंदिर निर्माण का कार्य शुरू हो चुका है और अब लोगों को सामाजिक और राजनीतिक तौर पर राम से जोड़ने की कवायद की जरूरत है। वहीं गांव में मुस्लिम समुदाय के लोग भी हिंदू समुदाय से मिलने पर राम-राम कहकर ही अभिवादन किया करते थे। इसलिए बीजेपी को आखिर में इसी नारे पर लौटना था।
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