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हाउसवाइफः डॉ. रंजना गुप्ता की मार्मिक कहानी, नम हो जाएंगी आँखें
पूरे अठ्ठारह घंटे लगातार गृहस्थी का जुआँ अपने कंधों पर रख कर कोल्हू के बैल की तरह जुटे रहना, उसकी नियति और दिनचर्या दोनों ही है आखिर, वह एक हॉउस वाइफ जो है।
आभा नाम है उस औरत का,जो निरंतर एक वॄत्त में घूमते-घूमते यह भी भूल गयी कि उसका आदि और अंत किस बिंदु पर स्थित है।
पूरे अठ्ठारह घंटे लगातार गृहस्थी का जुआँ अपने कंधों पर रख कर कोल्हू के बैल की तरह जुटे रहना, उसकी नियति और दिनचर्या दोनों ही है आखिर, वह एक हॉउस वाइफ जो है। अपने मजिस्ट्रेट पति और दो बच्चो तुषार और शशांक की हर जरुरत और हर सुविधा का ध्यान रखना, उसका कर्तव्य है। उन्ही तीनों की फ़िक्र में उसके दिन का चैन और रातों की नीँद हराम है। सुबह के छ: बजे से रात के ग्यारह बजे तक अनवरत अथक अटूट उर्जा से भरी वह ,श्रमशील बनी रहती है। बच्चों की पढ़ाई, उन्हें स्कूल भेजना जैसे छोटे -छोटे कामों से लेकर बैंक शापिंग, राशन इत्यादि का प्रबंध तक की जिम्मेदारियों का एक मकड़ जाल सा उसने अपने चरों ओर बुन लिया है, जिससे अब चाह कर भी उसकी मुक्ति नहीं हो सकती।
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जरा ठीक से खातिर करना...
ट्रिन....ट्रिन..ट्रिन तभी फोन की कर्कश आवाज ने, उसकी फुर्सत के नन्हें क्षणों को टोक दिया, और विचारों की श्रृंखला भंग हो गई। हलो मैं शिरीष बोल रहा हूँ, आज शाम मेरे कुछ मित्र खाने पर आने वाले हैं जरा ठीक से खातिर करना, उन्हें पता है कि मेरी पत्नी खाना बहुत अच्छा बनाती है।
ठीक है ...
आभा शाम की तैयारी में जुट गई। बड़े यत्न और परिश्रम से तैयार किये व्यंजनों की मोहक सुगंध और सुसज्जित विविध प्रकार के पकवानों से आगंतुकों की जठराग्नि अनियंत्रित हो उठी। स्वादिष्ट भोजन के तृप्ति भरे स्वाद ने औपचारिकता के बंधन तोड़ दिए ,फिर तो घनिष्ठ आत्मीयता की चाशनी से सारा माहौल ही सराबोर हो उठा।
यार शिरीष भाभी जी के हाथों में तो जादू है। जी चाहता है भाभी जी के हाथो को चूम लूँ।
शिरीष के साथ ही नये-नये मुंशिफ मजिस्ट्रेट नियुक्त हुए मिस्टर पराशर विभोर हो उठे।
निकम्मेपन की सीमा
आप इतना अच्छा खाना बना लेती हैं, मुझे तो पता ही नहीं था हम लोगों की व्यस्त जिंदगी कहाँ फुर्सत देती है यह सब करने की। एडवोकेट मिसेज पराशर ने आभा की जिंदगी के फालतूपन को केवल रेखांकित ही किया था कि मिसेज शुक्ल के प्रहार ने तो उसे निकम्मेपन की सीमा पर पंहुँचा दिया।
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आप कुछ करती क्यों नहीं? इतनी अच्छी एजुकेशन होने के बाद भी घर में बैठना बड़ा आउट ऑफ़ फैशन लगता है। इस जमाने में केवल हॉउस वाइफ होकर जीना ,पड़ता तो, मैंने अब तक आत्महत्या कर ली होती।
...उसे भीतर तक आहत कर गयी
और फिर कहकहों का एक रेला सा आया जो आभा को कपड़े की तरह निचोड़ गया। अपराधिनी सी मिसेज शिरीष रत्नाकर अपनी दयनीय असमर्थता को कोई नाम न दे पाने की स्थिति में रोने-रोने को हो आई। अभ्यागतों को विदा करने के बाद प्राणहीन आभा बिस्तर पर ढुलक कर फूट फूट कर रोने लगी। अपने काम का अवमूल्यन उसे कभी तोड़ नहीं पाया था पर वह मात्र एक बेकार और फालतू चीज है ऐसी अपमानित करने वाली सामाजिक समझ उसे भीतर तक आहत कर गयी थी।
महज हाउस वाइफ होकर जीना नारी अस्तित्व का वह तिरस्कृत पहलू है जिसकी ओर आधुनिक सभ्यता के मानदण्ड आँख उठा कर भी नहीं देखते यह उसे आज से पहले कभी पता ही नहीं लगा।
बात वहाँ से शुरू होती है जब सोलह वर्षीय बाल वधु बन कर पहली बार ससुराल की चौखट लाँघी थी। उसके श्वसुर शहर के प्रख्यात समाज सुधारक थे। विशेष रूप से उनका नारी उद्धारक अभियान अत्यधिक सफल रहा था। जगह -जगह सभाओं को संबोधित करते विधवा आश्रमों अनाथ बालिका शरणालयों का उद्घाटन करते उनकी तस्वीरे समाचार पत्रों की शोभा बढ़ातीं थीं। वे,नारी स्वतंत्रता के घोर पक्षपाती थे। ,दहेज़ प्रथा, बाल विवाह आदि सामाजिक रूढ़ियों के घोर विरोधी उसके पूज्य श्वसुर जी जाने कितने प्रेम विवाह समारोहों के मुख्य अतिथि बन चुके थे।
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तभी अपने बेटे से फेरे डलवाए...
लेकिन आभा ने प्याज के छिलके की तरह पर्त दर पर्त चढ़े उनके अनेक मुखौटों के पीछे उनका असली रूप तभी देख लिया था जब वे बारात लेकर उसके घर पहुँचे थे। दहेज़ की रकम पूर्णत: अदा न कर पाने की स्थिति में उसके दीन पिता से मकान के कागजात तक गिरवी रखवा लिए थे। तभी अपने बेटे से फेरे डलवाए थे।
सास ससुर के कठोर नियंत्रण में कब उसका बचपन रूठ कर उससे दूर भाग गया वह जान भी न पाई। कुछ ही दिन में बूढों की तरह गृहस्थी के छोटे-छोटे दांव पेंचों से तो उसका परिचय हो गया लेकिन चढती उम्र के सिंदूरी सपने, उमंग उल्लास, अनजाने अपरिचित से होकर विस्मृति की एक गहरी धुंध में सदा के लिए दफ़न हो गये। आभा के पति अपने पिता के हाथ की कठपुतली मात्र थे। जो खानदानी कारोबार का उत्तराधिकारी अपनी संतान को बनाना चाहते थे।
इकलौते पुत्र के मजिस्ट्रेट बनने की कोई ख़ुशी न थी
उसके मेधावी और महत्वाकाँक्षी पर भीरु पति, पत्नी के आँचल में मुँह छुपा कर रातों को रोया करते थे। वह इतने बड़े खानदानी घराने की वधू थी अत: घर से बाहर निकलने का प्रश्न ही नहीं था। फिर भी सच्ची जीवन संगिनी की भांति उसने पति का साथ दिया। उसके सारे जेवर एक-एक करके पति की उच्च शिक्षा की भेंट चढ़ने लगे। उसे याद है, जब उसका आखिरी कंगन बिका था तो पति ने मुंसिफ मजिस्ट्रेट की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली थी। यह सब उसकी साधना और त्याग का ही फल था। किन्तु क्षुब्ध श्वसुर ने आभा को इस विद्रोह की पूरी-पूरी सजा दी। जिस घर में उनकी इजाजत के बिना पत्ता भी नही हिलता था, उस घर में एक औरत ने, वह भी घर की बहू ने ही ऐसा दुस्साहसिक कार्य कर दिखाया। उन्हें अपने इकलौते पुत्र के मजिस्ट्रेट बनने की कोई ख़ुशी न थी।
आभा ने नए जीवन का शुभारम्भ किया
केवल अफ़सोस था खानदानी व्यापर के अनाथ होने का और अपनी प्रतिष्ठा के आहत होने का। आखिर उनके आक्रोश की चरम परिणति बेटा बहू को घर से निकाल कर ही हुयी। पति के साथ उदरस्थ शिशु को भी लेकर ,आभा ने नए जीवन का शुभारम्भ किया। तुषार लगभग जब दो वर्ष का रहा होगा तभी शशांक भी आ गया था। दोनों बच्चो के बड़े होने पर आभा ने अपनी रुकी हुयी अधूरी पढ़ाई पूरी की। जब उसने साइकोलाजी में पीएचडी की डिग्री दिल्ली विश्वविद्यालय से ली तब स्वयं शिरीष भी उसकी बौद्धिक क्षमता देख कर दंग रह गये थे।
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गृहस्थी और बच्चो को प्राथमिकता दी
उन्होंने आभा से अपनी शैक्षिक योग्यता का उपयोग करने की बहुत जिद की पर आभा ने सदा गृहस्थी और बच्चो की देख रेख को ही प्राथमिकता दी। उसे लगता था ,कि उसके बिना बच्चों की, पति की सेहत व शिक्षा घर की व्यवस्था सब कुछ बिगड़ जायेगा। अपनी अस्मिता के लिए उसे यह सौदा मंजूर नहीं था।
धीरे -धीरे बरस पर बरस सरकने लगे। तुषार और शशांक दोनों अब बड़े हो गये।,तुषार तो इतना बड़ा कि अपनी पसंद की पत्नी भी ला सकता है। हाँ ठीक ही तो है ॠचा तुषार के साथ ही काम करती है ,दोनों डॉक्टर हैं। जोड़ी अच्छी रहेगी। लेकिन उसकी स्वीकृति से पहले ही अचानक तुषार कोर्ट से मैरिज सर्टिफिकेट और साथ में ॠचा को लेकर घर आ गया। फिर भी उदारमना और समझौता परस्त आभा ने सब कुछ बदलते हुए समय के साथ बड़ी सहजता के साथ स्वीकार कर लिया।
हॉउस वाइफ का टैग
ॠचा थोड़ा खुले विचारों की थी और दिन रात घर में रह कर पति और बच्चों की गुलामी करना उसे सख्त नापसंद था। घरेलू कार्य वह बिलकुल नहीं करती थी। कुछ तो झंझट लगता था ,कुछ वह घरेलू कार्य को हॉउस वाइफ का टैग समझती थी। उसे अनुसार संसार की सबसे मूर्ख स्त्री ही ऐसे काम करना पसंद करेगी।
तुषार उसके किसी भी कार्य व् विचार का प्रतिवाद नहीं करता था। बल्कि उसमें इस प्रकार के साहस का सर्वथा अभाव था।, क्योंकि ऐसा करने पर फ़ौरन उसे आर्थोडाक्स या कंजर्वेटिव की उपाधि मिल जाती।
अकेली और निस्सहाय
आभा को अब मजबूरन सारे कार्य करने पड़ते, लेकिन उम्र की इस ढलान पर अपनों की भांति स्वास्थ्य भी साथ छोड़ने लगा था। शाम होने को आई। तुषार व ऋचा आते ही होंगे सोचते हुए आभा चाय नाश्ते की तैयारी करके जरा सुस्ताने को बैठी ही थी कि आँखो की धुंधलाई झील में यादों की परछाईयाँ डूबने उतराने लगीं। कभी वह शिरीष का इसी तरह शाम की चाय पर इंतजार करती थी कुछ दिनों पहले ही वे उसे मझँधार में अकेला छोड़ कर हमेशा के लिए चल बसे थे। तब भी वह कितनी अकेली और निस्सहाय हो गयी थी।
जीवन रथ का एक पहिया टूटते ही उसे पूरा रथ धसँकता हुआ दिखाई देने लगा था ,लेकिन दो जवान बेटो की बैसाखी ने उसे थाम लिया था। दुःख के इस उमड़ते सैलाब में बस दो बूंद आसू ही उसकी हथेली पर गिरे थे कि -
मम्मी ....
अचानक आभा की सुन्न पड़ती चेतना को एक आवाज ने सम्भाल लिया।
ॠचा नहीं आई...
अपनी व्यथा को अन्दर ही घुटकते हुए आभा फिर वर्तमान की चौखट पर खड़ी हो गयी।
नहीं मम्मी ...आज उसकी नाइट ड्यूटी है...और मुझे और मुझे भी अभी वापस जाना है।...
लेकिन वसु को तो बुखार है,....
ओह मम्मी मै अभी उसे दवा दे देता हूँ ,इसमें घबराने की क्या बात है..बुखार उतर जाएगा ...
लेकिन ऋचा अगर आज ..
अबोध शिशु की बीमारी से परेशान कुछ और कहने जा ही रही थी ,कि झुँझलाये हुए तुषार का कसैला स्वर उसे अन्दर तक चीर गया।
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गृहस्थी में अपनी जिंदगी बर्बाद करने वाली औरत नहीं...
ॠचा को इतनी फुरसत कहाँ है माँ? ...आखिर वह प्रैक्टिस करती है। बात-बात पर छुट्टी नहीं ले सकती। और फिर तुम्हारी तरह घर गृहस्थी में ही अपनी जिंदगी बर्बाद करने वाली औरत वह नहीं है।
माँ के उमड़ते आँसुओं को देखने के लिए फिर तुषार रुका नहीं। उसी समय वापस चला गया। अपनी लड़ाई अकेले लड़ते-लड़ते आभा आज बिलकुल ही हार चुकी है। सहनशीलता को नारीत्व की गरिमा समझने वाली आभा दूसरों का जहर सदा खुद पीती रही। कभी शिकायत तक नहीं की पर जैसे आज संयम ने उसका साथ छोड़ दिया। अच्छा होता इस विष पायी जीवन को वह विष के हवाले ही कर देती।
आखिर वह एक हॉउस वाइफ जो है...
तभी वसु की चीख-चीख कर रोने की आवाज ने उसके बिखरे हुए अस्तित्व के एक-एक टुकड़े को जैसे फिर जोड़ दिया। उसने दौड़ कर पालने में रोते शिशु को गोद में उठा लिया। उफ़...वसु तो तेज बुखार में जल रहा था। दूसरे ही पल अपने वंश के उस अनमोल वरदान को सीने से चिपकाये आभा बेतहाशा डॉक्टर के पास भागी चली जा रही थी आखिर वह एक हॉउस वाइफ जो है।
- डॉ. रंजना गुप्ता
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