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सियासी जंगः स्पीकर फिर सवालों के घेरे में, सुप्रीम कोर्ट करेगा फैसला

विधायिका के सुचारु संचालन के लिए स्पीकर केन्द्रीय भूमिका में होते हैं। स्पीकर ही संसद और राज्यों की विधानसभाओं में कार्यवाहियों को संचालित करते हैं।

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Published on: 24 July 2020 3:52 PM IST
सियासी जंगः स्पीकर फिर सवालों के घेरे में, सुप्रीम कोर्ट करेगा फैसला
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नई दिल्ली: राजस्थान की सियासी जंग सुप्रीम कोर्ट के दरवाजे तक पहुंची है। मामला विधानसभा अध्यक्ष के अधिकारों का है। ये पहला वाकया नहीं है जब विधानसभा अध्यक्ष के कृत्य और उनके अधिकार पर सवाल या विवाद खड़ा हुआ है। कर्नाटक, मणिपुर, उत्तर प्रदेश आदि तमाम राज्यों में स्पीकर विवादों में आये हैं और उनके फैसलों को अदालतों में चुनौती दी गई है।

सुप्रीम कोर्ट ने तो सुझाव दिया था कि विधानसभा सदस्यों को अयोग्य क़रार देने का अधिकार एक स्वतंत्र निकाय के पास हो। कोर्ट ने ये काम संसद पर छोड़ते हुये कहा था कि संसद यह तय करे कि विधायकों को अयोग्य ठहराने का अधिकार सदन के स्पीकर यानी अध्यक्ष के पास हो या नहीं। कोर्ट के सुझाव के बाद में अभी तक इस बारे में कोई पहल नहीं की गई है।

स्पीकर की भूमिका

विधायिका के सुचारु संचालन के लिए स्पीकर केन्द्रीय भूमिका में होते हैं। स्पीकर ही संसद और राज्यों की विधानसभाओं में कार्यवाहियों को संचालित करते हैं। हमारे विधायी संस्थानों के विधि निर्माण, सरकार की जवाबदेही और प्रतिनिधित्व के अपने संवैधानिक दायित्व का निर्वहन सुनिश्चित कराना स्पीकर का ही काम होता है। स्पीकर अपना काम प्रभावी तरीके से कर सकें इसके लिए उनका राजनीतिक दबावों से मुक्त रहना आवश्यक और महत्वपूर्ण है।

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1985 में पारित दलबदल विरोधी कानून से स्पीकरों को पार्टी विरोधी गतिविधिओं के लिए विधायकों और सांसदों के निष्कासन का अधिकार मिला है। अकेले इस कानून ने ये सुनिश्चित कर दिया कि विधाई कार्यवाही में एक रेफरी की भूमिका निभाने के साथ स्पीकर, सरकार के गठन और सरकार के जीवन की राजनीति के एक एक्टिव खिलाड़ी भी बने रहें।

दलबदल कानून

संसद में दलबदल कानून को पास कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले तत्कालीन विधि मंत्री अशोक कुमार सेन का तर्क था कि विधायकों-सांसदों को निष्कासित करने का अधिकार स्पीकर को देने से अदालतों के अनावश्यक विलंब से छुटकारा मिलेगा, काम तेजी से निपट पाएगा और साथ ही कानून को और ज्यादा मजबूती मिलेगी। कुछ सांसदों की कहना था कि इस कानून से मिली शक्तियों से स्पीकर अनावश्यक विवादों में फंस जाएंगे।

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बहरहाल, ये कानून पास हो गया और इस प्रावधान को संविधान में शामिल कर लिया गया। संभवतः अशोक सेन ये मानते थे कि स्पीकर राजनीतिक दबाव से इम्यून रहेंगे। लेकिन तीन साल से कम समय में ही उनका सोचना गलत साबित हो गया।

स्पीकर के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट पहुंचे मामले

तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमजी रामचंद्रन के 1987 में निधन के बाद उत्तराधिकार की लड़ाई में सत्ताधारी अन्नाद्रमुक दो गुटों में बंट गया। एमजीआर की पत्नी वीएन जानकी ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ग्रहण कर ली जिसके बाद उनके पक्ष में विश्वास प्रस्ताव विधानसभा में लाया गया। मतदान के दौरान पार्टी सचेतक ने स्पीकर से आग्रह किया कि प्रतिद्वंद्वी गुट के 27 विधायकों को अयोग्य करार दिया जाये।

मतदान के दौरान ही स्पीकर ने तत्काल इन विधायकों को डिसक्वालिफ़ाई कर दिया। इस पर काफी बवाल हुआ और स्पीकर पर तरह तरह के आक्षेप लगाए गए। तमिलनाडु में 2017 में फिर ऐसा ही हुआ। स्पीकर ने कुछ विधायकों को पार्टी विरोधी हरकतों के लिए डिसक्वालिफ़ाई कार दिया। इस मामले पर भी खूब बवाल हुआ।

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2011 में कर्नाटक में भी इसी तरह का मामला सामने आया था। तब कर्नाटक विधानसभा अध्यक्ष ने भाजपा के 11 विधायकों की सदस्यता रद्द कर दी थी। जब ये मामला हाई कोर्ट पहुँचा, तो विधायकों की सदस्यता रद्द किए जाने के पक्ष में फ़ैसला आया। लेकिन जब ये मामला सुप्रीम कोर्ट पहुँचा तो तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश अल्तमश कबीर की अध्यक्षता वाली पीठ ने विधायकों की सदस्यता रद्द नहीं करने का फ़ैसला सुनाया।

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साल 1992 में एक विधायक की सदस्यता रद्द किए जाने के मामले में सुप्रीम कोर्ट और मणिपुर के विधानसभा अध्यक्ष एच बोडोबाबू के बीच टकराव की स्थिति पैदा हो गई थी। सुप्रीम कोर्ट ने इस प्रकरण में सुझाव दिया था कि विधानसभा सदस्यों को अयोग्य क़रार देने का अधिकार एक स्वतंत्र निकाय के पास हो। हालाँकि, यह काम कोर्ट ने संसद पर छोड़ दिया है। इसने कहा कि संसद यह तय करे कि विधायकों को अयोग्य ठहराने का अधिकार सदन के स्पीकर यानी अध्यक्ष के पास हो या नहीं।

केसरीनाथ त्रिपाठी का विवाद

उत्तर प्रदेश में 1996 में बसपा और भाजपा का तालमेल हुआ और दोनों दलों ने छह-छह महीने शासन चलाने का फ़ैसला किया था। मायावती के छह महीने पूरे होने भाजपा के कल्याण सिंह 1997 में मुख्यमंत्री बने। महज एक महीने के अंदर ही मायावती ने सरकार से समर्थन वापस ले लिया। कल्याण सिंह को बहुमत साबित करने का आदेश दिया गया। बसपा, कांग्रेस और जनता दल में भारी टूट-फूट हुई। तत्कालीन विधानसभा अध्यक्ष केसरीनाथ त्रिपाठी ने सभी दलबदलू विधायकों को मतदान करने की हरी झंडी दे दी।

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दल बदल विरोधी क़ानून के तहत उन्हें अयोग्य नहीं क़रार दिया गया। त्रिपाठी ने विधानसभा का कार्यकाल ख़त्म होने तक विधायकों की सदस्यता पर कोई फ़ैसला ही नहीं सुनाया। उनका तर्क था कि इस मामले में फ़ैसला सुनाने की कोई समय सीमा निर्धारित नहीं है। यानी इस हिसाब से सब कुछ संविधान और क़ानून के अनुरूप ही हुआ। बाद में अन्य राज्यों के कई विधानसभा अध्यक्ष भी इसी तर्क का हवाला देकर दल बदल के मामलों में चुप्पी साधे रहे।

1992 का आदेश

1992 में सर्वोच्च न्यायालय की संविधान पीठ ने दल-बदल कानून के बारे में स्पष्ट फैसला देते हुए कहा था कि अध्यक्ष द्वारा ऐसे मामलों की जांच प्रक्रिया शुरू करने के बाद कोई भी न्यायालय तब तक बीच में हस्तक्षेप नहीं कर सकता जब तक कि उनका अन्तिम फैसला न आ जाये। इस फैसले के बाद ही उसकी न्यायिक समीक्षा की जा सकती है।

निरपेक्ष रहना जरूरी

स्पीकर एक राजनीतिक व्यक्ति होता है लेकिन संविधान की दसवीं अनुसूची के अनुसार वह ‘न्यायाधीश-सम’ होते हैं यानी जज के बराबर होते हैं। किसी भी पार्टी के विधायक की हैसियत उनके समक्ष ऐसे फरियादी की होती है जो अपने विरुद्ध सदन के भीतर या परिसर अथवा सदन से बाहर विशेषाधिकारों के सन्दर्भ में होने वाले किसी भी अन्याय की गुहार लगा सकता है। संविधान की दसवीं अनुसूची के अनुसार स्पीकर के अधिकार तब तक निरापद हैं जब तक कि दल-बदल मामले में वह कोई अन्तिम फैसला न दे दें।

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यह संभव नहीं है कि विधानसभा में चुना हुआ कोई विधायक उनकी सत्ता का ही संज्ञान न ले। किसी भी चुने हुए सदन के अध्यक्ष के खिलाफ फैसला लेने का अधिकार भी संविधान केवल उसके सदन को ही देता है। न्यायालयों के पास सदन से सम्बन्धित किसी भी कार्यवाही में हस्तक्षेप का अधिकार हमारा संविधान इसीलिए नहीं देता है जिससे लोकतन्त्र में आम जनता के शासन का प्रत्यक्ष प्रमाण रहे।

दलबदल की स्थितियाँ

विधायकों की पाला बदली की स्थिति में स्पीकर के फैसले पर ही सबसे ज्यादा विवाद हुये है। ऐसे मामलों में स्पीकर किसी भी राज्य में राजनीतिक उठापटक को देखते हुए साल 1985 में पास किए गए दल बदल क़ानून का सहारा ले सकते हैं। इस क़ानून के तहत सदन के अध्यक्ष किन्हीं विशेष स्थितियां उत्पन्न होने पर सदस्यता रद्द कर सकते हैं। ये स्थितियाँ हैं –

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- अगर कोई विधायक ख़ुद ही अपनी पार्टी की सदस्यता छोड़ दे।

- पार्टी लाइन के ख़िलाफ़ जाये।

- पार्टी व्हिप के बावजूद मतदान नहीं करे।

- विधानसभा में अपनी पार्टी के दिशानिर्देशों का उल्लंघन करे।

संविधान की दसवीं अनुसूची में निहित शक्तियों के तहत विधानसभा अध्यक्ष फ़ैसला ले सकता है। मूलत: इस क़ानून के तहत विधायकों की सदस्यता रद्द करने पर विधानसभा अध्यक्ष का फ़ैसला आख़िरी हुआ करता था लेकिन मामले कोर्ट जरूर पहुँचते थे सो, 1991 में सुप्रीम कोर्ट ने 10वीं सूची के सातवें पैराग्राफ़ को अवैध करार दिया जिसके तहत इस मामले पर आख़िरी फैसला स्पीकर का हुआ करता था। सुप्रीम कोर्ट ने ये भी स्पष्ट कर दिया कि स्पीकर के फ़ैसले की क़ानूनी समीक्षा हो सकती है।

स्पीकर क्या सदस्यता रद्द कर सकते हैं?

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स्पीकर ये देखता है कि कहाँ तक विधायक अभिव्यक्ति के अधिकार का इस्तेमाल कर रहे हैं और कहाँ ये अभिव्यक्ति के अधिकार पार्टी की सदस्यता छोड़ने की ओर बढ़ा दिए हैं। ऐसे में स्पीकर परिस्थितिजन्य साक्ष्य देखते हैं। एक मामले में परिस्थितिजन्य साक्ष्य कुछ इस तरह के थे कि एक व्यक्ति विधायक रहते हुए एक स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में लोकसभा का चुनाव लड़ने चला गया तो इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ये तो आपने बिल्कुल पार्टी की सदस्यता छोड़ दी। यदि कोई विधायक विपक्षी दल के सदस्यों के साथ राज्यपाल से मिलने राजभवन चला जाता है तो इसे भी परिस्थितिजन्य साक्ष्य के रूप में लिया जाएगा।

स्पीकर सीपी जोशी की याचिका

राजस्थान विधानसभा अध्यक्ष सीपी जोशी सर्वोच्च न्यायालय की शरण में यह निवेदन लेकर चले गये हैं कि देश में संविधान के शासन की शुचिता की गारंटी करने वाले इस संस्थान को अध्यक्ष के अधिकारों की रक्षा करनी चाहिए। जोशी ने कहा है कि विधानसभा सदस्यों के बारे में दल-बदल कानून के तहत जांच के लिए उनकी प्राथमिक नोटिस की स्थिति में ही उच्च न्यायालय का हस्तक्षेप कितना उचित है?

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‘स्पीकर सदन का प्रतिनिधित्व करते हैं। वो सदन के गौरव, सदन की स्वतन्त्रता का प्रतिनिधित्व करते हैं। और क्योंकि सदन राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करता है सो एक तरह से स्पीकर राष्ट्र की स्वतन्त्रता और स्वाधीनता के प्रतीक हो जाते हैं। अतः ये एक सम्मानित पद है और इस पर ऐसे लोगों को सुशोभित होना चाहिए जो उत्कृष्ट क्षमता वाले और निष्पक्षत हों।‘ - जवाहर लाल नेहरू

‘दलबदल के मसलों में कार्रवाई का अधिकार पीठासीन अधिकारी के पास ही बने रहने की जरूरत नहीं है। ये अधिकार एक विशेष न्यायाधिकरण सरीखे किसी अन्य प्राधिकार में निहित कर दिया जाना चाहिए जिसमें कानून के विशेषज्ञ शामिल हों। या फिर चुनाव आयोग जैसे किसी प्राधिकार को ये शक्ति दी जानी चाहिए।“ – सोमनाथ चटर्जी, पूर्व लोकसभा अध्यक्ष

अधिकार घटाने की वकालत

2019 में देहरादून में पीठासीन अधिकारियों की एक बैठक में कई विधानसभा अध्यक्षों ने सुझाव दिया था कि दलबदल संबंधी मामलों में नियम - कानून या तो बदल दिये जाने चाहिए ताकि ऐसे मामलों से निपटने में स्पीकर के अधिकार कम कर दिये जाएँ। इस पद की प्रतिष्ठा बनाए रखने का यही सबसे अच्छा तरीका है। इस चर्चा में राजस्थान के स्पीकर सीपी जोशी भी शामिल हुये था।

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देहरादून की बैठक में लोकसभा अध्यक्ष ओम बिड़ला ने कहा था कि लोकतान्त्रिक संस्थानों पर जनता का भरोसा जिस तरह से उठता जा रहा है और जिस तरह पीठासीन अधिकारियों पर उँगलियाँ उठ रहीं हैं वह चिंता का विषय है। स्पीकर के पद की प्रतिष्ठा को बनाए रखने के लिये कानून में संशोधन की जरूरत है।



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