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गमजदा ठहाकेः अदालत से हक तो पा लिया लेकिन बेटी को खो दिया

पूरे अट्टहास के साथ इन सात बूढ़ों के अलावा और भी बूढ़े रोज इनके बीच आते-जाते रहते हँ। सुबह साढ़े पाँच और छह के बीच यहाँ से गुजरते कोई भी इसमें डूब सकता है।

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Published on: 24 July 2020 11:35 AM GMT
गमजदा ठहाकेः अदालत से हक तो पा लिया लेकिन बेटी को खो दिया
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दिनेश भट्ट

वे सात बूढ़े हैं, जिनसे मुझे अब ईर्ष्या होने लगी है। ईर्ष्या उनकी धन-संपति को लेकर नहीं है। ईर्ष्या उनकी हँसी से है। वह हँसी जो रोज सुबह स्टेडियम-ग्राउंड और उससे सटे पार्क में बिखर जाती है। पूरे आधे घंटे हँसते ये बूढ़े। जोर-जोर से। पूरे अट्टहास के साथ इन सात बूढ़ों के अलावा और भी बूढ़े रोज इनके बीच आते-जाते रहते हँ। सुबह साढ़े पाँच और छह के बीच यहाँ से गुजरते कोई भी इसमें डूब सकता है। कुछ लोग हँसते हुए बूढ़ों को पागल भी कहते हैं। शुरू-शुरू में मैं भी कुछ ऐसा ही समझता था।

फिर मुझे लगा, मुझे भी हँसना चाहिए। इतना ही। लेकिन मैं उनके पास पहुँच नहीं पाता। स्टेडियम की दीवार आड़े आती है। वे उस तरफ हैं। मैं इस तरफ पार्क में रोज आता हूँ, कसरत करता और उस तरफ से आ रही बूढ़ों की हँसी सुनता हुँ। कुछ दिनों से मैं महसूस कर रहा है उन वृद्धों के बीच जाना चाहिए। मैं याद करता हूँ इतना खुलकर इतनी जोर से मैं कब हँसा था। हाल की कोई तारीख या कोई दिन याद नहीं आता। अब तो मेरे बच्चे मुझसे कहते है पापा आप हँसते क्यों नहीं। बीवी कहती, तुमने रोज चिढ़ने का ठेका ले रखा है क्या।

बचपन से मैं बहुत हँसने वाला रहा हूँ। जब मैं प्राइमरी पढ़ता था तय हमारे स्कूल प्रिंसिपल मोटे थे। प्रार्थना के समय बच्चे आपस में फुसफुसाते हुए उन्हें गैंडा कह देते। सबसे पहले मेरी हँसी फूट पड़ती। शिक्षक मेरी पिटाई करते, मेरी हँसी और बढ़ जाती। हाईस्कूल के समय में मेरा एक दोस्त अपने पिता का हॉफ पैंट पहनकर स्कूल आ गया। ढीले पैंट को उसने कमर में एक तार से कस रखा था। मैंने असेंबली में उसकी शर्ट ऊपर उठा दी थी। सब जोर से हँसे थे, मैं भी।

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कॉलेज के दिनो में, हॉस्टल में देर रात तक मेरी हँसी गूँजती रहती थी। नौकरी के शुरुआती दिनों में मेरा दोस्त आवेश और मैं नहीं हँसने वालों पर हँसते थे। एक दिन बुक स्टाल पर हमें एक किताब मिली, 'हँसी के पल चुराएँ'। हमने उसकी पच्चीस प्रति खरीद ली। हम जन्मदिन सालगिरह या शादी में उन लोगों को जो हँसी के कंजूस थे वही किताब गिफ्ट करते। लोग बड़े-बड़े तोहफे लाते। हम छोटी सी किताब देते तो लोग हम पर हँसते। लेकिन चंद दिनों बाद में लेने वाला शख्स हमें हँसते हुए धन्यवाद देते हुए कहता, तुम्हारा गिफ्ट सबसे अनमोल था दोस्त।

मुझे अपनी वही पुरानी हँसी चाहिए, जो इन बूढ़ों के पास है। घर में अब इतनी हँसी की जगह नहीं है। जरुरतें और समस्याएँ यहीं बैठी है। ऑफिस में इतनी जोर से खुलकर नहीं हँसा जा सकता क्योंकि यहाँ लोग बॉस के सनकीपन पर हँसते हैं या एक दूसरे की कमियों पर व्यंग्य और कमेंट्स के साथ यह फौरी और उलाहना की हँसी है -जिसके परिणाम मानसिक रेचन या वैमनस्यता तक जाते हैं।

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ये बूढ़े मुझे रोज अपनी और खींच रहे हैं। बूढ़ों की हँसी का आकर्षण इतना था कि एक दिन मैं वहाँ पहुँच ही गया। साठ-सत्तर-पचहत्तर-अस्सी के बूढ़े। जीवन के उदात्त से रगे-पगे। मैं पैंतालीस का मध्यमवर्गीय उहापोह में गुँथा प्रौढ़। क्या खप पाऊँगा, उनके बीच। पाँच फीट दूर सीढ़ी पर बैठा मैं उन्हें ललचाई दृष्टि से ताक रहा था ठीक उस तरह जैसे कोई गरीब बच्चा किसी स्थान भवन में चल रही पार्टी के व्यंजनों को ताकता है। बूढ़े हँस रहे थे जोर-जोर से ताली बजाकर, निर्द्वंद्व हँसी। उस दिन मैं हिम्मत नहीं कर पाया।

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दूसरे दिन एक हास्य-पारखी बूढ़े ने मेरे अंदर मचल रही हँसी को शायद ताड़ लिया। वे मेरे पास आए थे। मेरी आँखों में झाँका किसी गुरु की तरह। फिर उठा लाए अपने बीच। वे इस हास्य-मंडली का नेतृत्व करते हैं। सड़सठ के होंगे लेकिन चेहरे पर किसी युवा की तेजस्विता विद्यमान थी। ग्रुप में शामिल होकर मुझे मालूम हुआ, यहाँ हँसना इतना आसान नहीं है। यहाँ हँसने की एक शर्त है।

मैं चौंका था, हँसने की भी कोई शर्त होती है। हँसी भी शर्तों पर आने लगी तो कोई मजाकिया कैसे होगा : शर्त बड़ी अजीब थी। हास्य-मंडली में शामिल प्रत्येक व्यक्ति को अपने जीवन के सबसे बड़े गम से जुड़ी घटना या कहानी को यहाँ सब के बीच ईमानदारी से सुनानी पड़ती है। कहानी खत्म होते ही सभी बूढ़े जोर-जोर से हँस कर उस गम को हास्य-गंगा में तिरोहित करते हैं। अब इस गम को हमेशा के लिए भुला दिया जाएगा। शर्त यह थी।

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मैं पशोपेश में आ। घर लौटते समय में रास्ते भर अपने गमों की गठरी खँगालता रहा। मैं इनके बीच नया हूँ, मेरी बारी बाद में आएगी। फिलहाल तो मैं बूढ़ों के किस्सों और हँसी में शामिल हो रहा हूँ। हास्य-मंडली का नेतृत्व करने वाले बूढ़े मनमोहन अवस्थी हैं। लोग रोज अवस्थी का किस्सा सुनने का इंतजार करते। वे नहीं सुनाते। कहते हैं कि उनका कोई मामला कोर्ट में चल रहा है। यही वह किस्सा है जिसका फैसला आते ही वे पूरी कहानी सुनाएँगे। जोर-जोर से हँसेंगे। और, फिर उस गम को हमेशा के लिए भूल जाएँगे।

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मंडली में रिटायर्ड आफिसर, क्लर्क, शिक्षक, चपरासी तथा पुराने व्यापारी थे। वन विभाग से रिटायर्ड चपरासी सेवकराम ने अपना किस्सा सुनाया; विभाग के आला अफसर जंगल देखने आए थे। कार्यवाही में सख्त और तुनकमिजाज थे। रात रुके। वनरक्षक ने मुर्गी-दारू का इंतजाम क्रिया था। गाँव में मुश्किल से एक मुर्गा मिला था। अफसर मुस्लिम थे। काटने से पहले मुर्गा जिबह करना था। मैं मुर्गा पकड़े खड़। था। अफसर नशे में थे और जिबह के लिए एक पत्थर से चाकू को धार तेज करते हुए वनरक्षक से बतिया रहे थे। मुर्गे की आवाज उनकी बातचीत ने विघ्न न डाल दे इसलिए में उसका मुँह दबाकर खडा रहा। नशे में धुत्त अफसर बातों में उलझे रहे।

आधे घंटे बाद उन्होंने मुर्गा माँगा, मैंने उनके हाथ पर रख दिया। मुर्गा मर चुका भी। वे जिबह नहीं कर पाए। गुस्से में तमतमाए उन्होंने मरा मुर्गा मेरे ऊपर फेंक दिया। मैं काँप रहा था। वनरक्षक की लाल-लाल आँखें मुझे शेर की तरह घूर रहीं थी। अफसर को दाल-रोटी खाकर रात बितानी पड़ी। नतीजन मैं सस्पेंड हुआ। छह महीने बाद बहाली हुई। उस दौरान मेरी बेटी की शादी होनी थी, जो रुक गई। फिर दो साल बाद हुई। मुझे यही गम जिंदगी भर रहा कि मैंने उस दिन मुर्गे का मुँह जोर से क्यों दबाया। बताते हुए सेवकराम उतना ही दहशत में लग रहा था जितना अफसर के सामने रहा होगा।

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सभी बूढ़े बोले, आज से इस गम को भूल जाओ। फिर बूढ़ों के ठहाकों से वातावरण भर गया। मैं भी उसमें शामिल था। अवस्थी की हँसी सभी की सम्मिलित हँसी की लगभग दुगुनी थी।

सभी अवस्थी के किस्से का बेसब्री इंतजार कर रहे थे। मेरी जिज्ञासा कूदी पड़ रही थी कि दूसरो के गमों पर जोर से ठहाका लगाने वाले का गम कितना बड़ा है।

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बहरहाल रिटायर्ड शिक्षक विश्वनाथ ठाकुर ने अपना किस्सा सुनाया। मेरी बहू एक गाँव में शिक्षिका थी और बेटा फौज में। बेटा एक महीने की छुट्टी पर आया था और बहू के पास था। मैं भी उससे मिलने वहाँ गया। मैं बाहर आँगन में बेटे की बच्ची के साथ मस्ती कर रहा आ। बहू अंदर चूल्हे के पास पोंछा लगा रही थी। बेटा पास ही खटिया पर अखबार पढ़ रहा था। चूल्हे के नजदीक ही बाल्टी में पानी गर्म करने को रॉड लगी थी। अचानक एक बिल्ली आई और चूल्हे के पास रखे दूध के लिए कूद पड़ी।

उसका पैर पानी गर्म करने की छड़ के वायर में उलझ गया। वायर खिंचते ही राड फर्श पर गिर गई और गीले फर्श में करंट फैल गया। पोंछा लगा रही बहू करंट के प्रभाव में आ गई। उसे तड़पते देख बेटा उसकी तरफ लपका। वह भी करंट का शिकार हुआ। हल्की चीख सुन बच्ची को कुर्सी पर बैठा मैं अंदर की तरफ लपका। दोनों को करंट के प्रभाव में देख घबराहट में मेरी सुध-बुध खो गई।

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मुझे स्विच ऑफ करने का होश नहीं रहा। किसी ने आकर स्विच ऑफ किया होगा लेकिन तब तक बहू-बेटा दुनिया से जा चुके थे। मैं इस गम में जलते रहता हूँ कि उस दिन शायद मैं स्विच ऑफ कर देता तो आज वे जिंदा होते।

विश्वनाथ ठाकुर का गम ठहाकों में उड़ाने जैसा नहीं था लेकिन शर्त के मुताबिक सभी जोर से हँसे थे। मैंने पीपल को धन्यवाद दिया था इन गमजदा ठहाकों को सहेजने के लिए।

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अवस्थी के किस्से के इंतजार में हफ्तों लगने लगे। कुछ दिनों से अवस्थी कम आ रहे थे। अवस्थी की गैरहाजिरी में मंडली में मजा कम रहता। इस बीच कुछ आते-जाते बूढ़े अपने गमों को ठहाकों में तब्दील कर पीपल के हवाले करते रहते। मुझे शंका होती दूसरों के गमों में जोर-जोर से देर तक हँसने वाले अवस्थी के पास कोई बड़ा गम है भी या नहीं।

हमारी शंकाओं को दूर करते हुए एक दिन अवस्थी आ गए। वे बहुत खुश लग रहे थे और साथ में मिठाई का डिब्बा लाए थे। उन्होंने सबको दो-दो काजू कतली दी। मतलब वे केस जीत गए थे। जल्दी ही उन्होंने अपना किस्सा सुनाना शुरू कर दिया। अड़तीस की उम्र में मेरी शादी हो गई। मेरी सिर्फ एक बेटी है जिसे हमने बेटी नहीं हमेशा बेटा समझा। कुशाग्र बुद्धि एवं विलक्षण प्रतिभा की धनी है वह : खूबसूरत भी। ईमानदारी से की गई छोटी सी नौकरी की समस्त अल्प आय को निचोड़ कर मैंने उसे डॉक्टर बनाया। मुझे अपनी बेटी पर फख्र था और जात-समाज में मेरा सम्मान बढ़ गया था।

डॉक्टर की पढ़ाई यूँ तो नहीं हो जाती सो नात-रिश्तेदारों और बैंक का एक बड़ा कर्जा मुझ पर है। जीपीएफ का एक बड़ा हिस्सा जा चुका है और दो तिहाई वेतन बैंक की किस्त में जाता है। लेकिन हमें चिंता नहीं थी बेटी डॉक्टर जो हो गई थी। सारे कर्ज जल्दी उतरने थे।

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शादी की फिक्र नहीं थी, समाज से एक से एक रिश्ते आ रहे थे। हम अपने लगाए पौधे को फलते-फूलते देख खुश थे। उसके मीठे फलों के चखने का इंतजार कर रहे थे कि एक दिन वह अपनी पसंद के लड़के से शादी करके मंगलोर चली गई और फिर नहीं लौटी।

हम दोनों पति-पत्नी बुढ़ापे की कश्ती पर बिना किसी मल्लाह के अकेले बैठे थे। बैंक के कर्ज और पत्नी की बीमारी के थपेड़े नाव को जैसे हिला रहे थे। उसकी माँ को जरूर लेकिन मुझे उसकी शादी से कोई एतराज नहीं था। अपनी पसंद की शादी करना उसका हक था लेकिन माँ-बाप की जिम्मेदारी उठाना भी उसका फर्ज था जिसे वह भूल गई थी। लोग हमें कहते, तुमने अपना फर्ज पूरा कर दिया, अब भूल जाओ। लेकिन मैं यह नहीं भूल पाता कि उसने अपना फर्ज पूरा नहीं किया है।

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बहुत पहले मैंने एक बड़े शहर में उसके नाम पर एक प्लॉट ले रखा था कि उसे बेचकर बेटी की शादी धूमधाम से करूँगा। उसके बाद मैंने तय कि इस प्लॉट को बेचकर सारे कर्ज खत्म कर देता हूँ। प्लॉट के पेपर्स के लिए मैंने सारी आलमारियाँ छान मारी। राजिस्ट्री के कागजात गायब थे। मैंने बस पकड़ी और उस शहर की तरफ भागा जहाँ मेरा प्लॉट था। प्लॉट पर एक खूबसूरत मकान चिढ़ा रहा था। मकान मालिक ने बताया कि पाँच साल पहले ही मेरी बेटी यह प्लॉट बेच चु्की है।

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अब मेरा दिमाग सातवें आसमान पर था। मैं लौटा। अपने वकील मित्र से चर्चा की और बेटी पर पढ़ाई का सारा खर्च लौटाने का केस दर्ज कर दिया। लोग मुझ पर फब्ती कसते रहे कि दो बच्चों की माँ हो चुकी अपनी बेटी से अपने कर्ज का पैसा माँग रहे हो। मैं अड़ा रहा। जब औलाद अपने माँ-बाप से अपने हक के लिए लड़ सकती है तो माँ-बाप भी अपने हक की माँग क्यों नहीं कर सकते। दोस्तों मैं सात साल केस लड़ता रहा।

बाप-बेटी हमेशा दुश्मन की तरह आमने-सामने रहे, अदालत के सभी दाँव-पेंचों के साथ कल मैं केस जीत गया हूँ। अदालत ने बेटी को मेरा सारा रुपया लौटाने का आदेश दे दिया है। मैंने अपना हक पा लिया है लेकिन बेटी खो दी है। कहते-कहते अवस्थी जोर-जोर से हँसे थे। सारे बूढ़े हँसे थे। मैं भी अपनी पुरानी हँसी की लय के साथ जोर से हँसा था। पूरा स्टेडियम ग्राउंड इन ठहाकों से भरा था।

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अचानक जोर-जोर से रोने को आवाज आने लगी। सभी ठहाके रुक गए। सबने देखा। रोने वाला और कोई नहीं अवस्थी जी थे। वे जितनी जोर से हँसते हैं उतनी ही जोर से रो रहे थे। मैं वहाँ से तुरंत भागा। मुझे डर था कि पीपल के पत्तों में ठहाकों के साथ समाहित इन बूढ़ों के गम भरभरा कर गिरने न लग जाएँ।

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