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अदम गोण्डवी की पुण्यतिथि: मुफलिसी में भी दबे कुचलों के लिए लड़ना किया मंजूर

अदम की शायरी में अवाम बसता है उसके सुख दुःख बसते हैं शोषित और शोषण करने वाले बसते हैं। सीधे सच्चे दिल से कही उनकी शायरी सीधे सादे लोगों के दिलों में बस जाती है।

Shreya
Published on: 18 Dec 2020 11:06 AM IST
अदम गोण्डवी की पुण्यतिथि: मुफलिसी में भी दबे कुचलों के लिए लड़ना किया मंजूर
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अदम गोण्डवी की पुण्यतिथि: मुफलिसी में भी दबे कुचलों के लिए लड़ना किया मंजूर

तेज प्रताप सिंह

गोंडा: ‘फटे कपड़ों में तन ढांके गुजरता हो जहां कोई, समझ लेना वो पगडण्डी अदम के गांव जाती है‘ और ‘आप आएं तो कभी गांव की चौपालों में, मैं रहूं या न रहूं, भूख मेजबां होगी’ जैसी पंक्तियों से गांव और गरीब की पीड़ा व्यक्त करने वाले महज चहल्लुम तक पढ़े जनवादी कवि राम नाथ सिंह ‘अदम गोण्डवी‘ ने अपनी कलम से समाज के दबे-कुचले वर्ग के दर्द को उकेरा। उन्होंने समाज के सामने शोषित वर्ग की कठिनाइयों को अपने शब्दों में बयान किया।

अपने लेखन के जरिए इन चीजों पर डाली रोशनी

उन्होंने अपने लेखन के ज़रिये महिलाओं के साथ होने वाले समाज के भेदभावपूर्ण रवैये पर भी गहरी चोट की। उनकी गज़लों में भी सरयू, माटी, गांव, गरीबी, किसानी, सामंतशाही, दुश्वारी, जुर्म, शिकन आदि का जिक्र पूरे उफान के साथ बार-बार आया है तो महज इसलिए कि इन सब स्थितियों से उनका सहज पाला पड़ा। मुफलिसी के बावजूद उन्होंने शोषितों, वंचितों और मुफलिसे से जूझ रहे लोगों की लड़ाई लड़ी। बेचारगी के इस आलम में लीवर सिरोसिस की बीमारी से जूझते हुए अदम गोंडवी का 18 दिसम्बर 2011 को लखनऊ में निधन हो गया।

सवर्ण क्षत्रिय परिवार में जन्म लेते हुए भी उन्होंने वंचितों के हक़ में लिखा और जातिगत व्यवस्था से ज्यादा गरीबी और अमीरी या गांव और शहर की खाई को खतरा माना। अपने निधन का भी मानो वह अपने इस शेर में पहले ही ऐलान कर गए-‘यूं खुद की लाश अपने कांधे पर उठाये हैं, ऐ शहर के वाशिंदों ! हम गांव से आये हैं।‘ उनकी रचनाएं आज भी मुफलिसी और भ्रष्ट व्यवस्था के खिलाफ लड़ने के लिए जोश और जज्बा पैदा कर रहीं हैं।

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मात्र चहल्लुम तक पढ़े थे अदम

भारत में विशाल हिन्दी क्षेत्र के सभी बड़े मंचों पर अपनी प्रभावी उपस्थिति दर्ज कराने वाले अदम गोण्डवी जन्म 22 अक्टूबर, 1948 को गोंडा शहर से 30 किमी दक्षिण पश्चिम स्थित परसपुर बाजार से पांच किमी दूर ग्राम आटा के मजरे पूरे गजराज में हुआ था। उनकी मां श्रीमती मांडवी सिंह गृहणी और पिता देवकली सिंह एक साधारण किसान थे। अदम गोण्डवी का वास्तविक नाम रामनाथ सिंह था। तब प्राइमरी स्कूल में चौथी कक्षा (चहल्लुम) तक की ही पढ़ाई होती थी। परिवार में आर्थिक तंगी होने के नाते प्राइमरी स्तर की पढ़ाई चहल्लुम (अब कक्षा पांच) के बाद शिक्षा का स्तर बाधित हो गया।

गुरूजनों के प्रिय पात्र

प्राथमिक विद्यालय आटा में अपनी सरलता, विनम्रता के चलते अदम गुरूजनों के प्रिय पात्र बन गये थे। प्रधानाध्यापक स्व. कन्हैया सिंह के सानिध्य से विद्यालय के पुस्तकालय में मौजूद पुस्तकों का स्वाध्याय करने का मौका मिला। वहां ढ़ली यह आदत पढ़ाई बाधित होने के बाद बहुत कारगर साबित हुई। किताबें खरीदने की कूबत न थी, ऐसे में मांगकर पढ़ने से भी उन्होंने गुरेज़ नहीं किया। स्वाध्याय से उनकी विद्वता का परिणाम रहा कि महज प्राइमरी शिक्षा के बावजूद वे जेएनयू, बीएचयू, दिल्ली, मगध, कोलकाता, सागर, भोपाल आदि विश्वविद्यालयों में काव्य पाठ ही नहीं, काव्यशास्त्र जैसे गूढ़ विषय पर व्याख्यान भी देने के लिए कई बार आमंत्रित किये जाते रहे।

निरक्षरता के अंधेरे में जनवाद का दीपक जलाया

छह साल की उम्र में अदम गोण्डवी के सिर से मां का साया उठ गया तो दादी के कोमल स्पर्श ने जीने का जज्बा पैदा किया। धूल भरी पगडंडियों पर आधा मील पैदल चलकर सरकारी स्कूल में पढ़ने वाले अदम गोण्डवी के घर में सभी निपट निरक्षर थे ही। गांव में भी पढ़ाई का माहौल नहीं था। विद्यालय दूर होने और परिवार में आर्थिक तंगी होने के नाते प्राइमरी स्तर की पढ़ाई के कक्षा पांच के बाद शिक्षा का स्तर बाधित हो गया। माता-पिता की बड़ी संतान होने का अहसास उन्हें था, सो घरेलू जिम्मेदारियां शुरू में ही ओढ़ लीं।

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इस तरह शुरू किया अनुभूतियों को साझा करना

पिता व छोटे भाई के साथ रोज खेतों में कड़ी मेहनत करके सुबह-दोपहर-शाम घर पर गाय-बैलों को चारा-पानी देना, देखरेख करना ही जिन्दगी का पर्याय बन गया। धीरे-धीरे कुदाल, फावड़ा और हल-बैल के साथ जिन्दगी की लय स्थापित कर ली। अनुभवों और अहसासों के बीच मन में उपजी अनुभूतियों को साथियों से साझा किया। प्रोत्साहन मिला तो यदा-कदा कोरे कागज पर उकेर भी दिया। किसानी स्थायी सहचरिणी बनी। बाएं हाथ में हल की मूंठ और दाएं हाथ में सेंठा की कलम इनकी बालमित्र रही। इसे उन्होंने इन पंक्तियों में खुद बयां की है-‘इक हाथ में कलम और इक हाथ में कुदाल, बावस्ता हैं जमीन से सपने अदीब के।’

गज़लकारों की बिरादरी में हाथों-हाथ शामिल कर लिए गए

अदम को काव्य मंचों पर जांने का मौका मिला तो गज़लकारों की बिरादरी में हाथों-हाथ शामिल कर लिये गए। शरीर से बेदम दिखने वाले गंवई किसान ‘अदम गोण्डवी’ देखते ही देखते दुष्यन्त कुमार की धारा का एक नामचीन गज़लकार बन गए। इसका श्रेय किसी लाबी, किसी स्कूल, किसी गाड फादर के बजाय सरयू नदी की दोमट, उर्वर माटी की महक और इसको महत्ता देने के जज्बे को ही जाता है। धुर किसान की जिन्दगी जीते हुए नितान्त निजी अनुभूतियों को पिरोकर अदम गोण्डवी ने बाबा नागार्जुन की भांति अपनी खुद की जमीन बनाई। लेकिन दावे के साथ कहा जा सकता है कि अदम जी की सोच और शैली किसी की लीक पर नहीं, अपनी आनुभूतिक भाव धारा पर बनी-बही है।

adam Gondvi death anniversary (फोटो- सोशल मीडिया)

समय से मुठभेड़ से उपजी रचनाएं

अदम की रचना धर्मिता खानदानी, शौकिया और पेशेवराना नहीं, बल्कि उनके जीवन की निजी अनुभूतियों, आम समाज की त्रासदियों और समय से मुठभेड़ के फलस्वरूप उपजी हुई भाव-विह्वलता है। सरयू के आंचल के रचनाकार अदम ने जब प्रारम्भिक दौर में अपनी कविताओं को छपवाने की ख्वाहिश जाहिर की तो पत्र-पत्रिकाओं में घुसी-बैठी राजनीतिबाजी से सामना हुआ। लिहाजा उन्होंने छपास को अपनी आदत में शुमार नहीं किया। तब काकस तो कवि मंचों पर भी मौजूद थे, लेकिन रस ग्राही श्रोताओं और आम समाज ने इन्हें हाथों-हाथ लिया।

हिन्दी और उर्दू की जमीन पर स्थापित सभी समकालीन हस्ताक्षरों के साथ बार-बार मंचों पर साझेदारी की। राष्ट्रकवि श्याम नारायण पाण्डेय, कैफी आज़मी, अली सरदार ज़ाफरी, मज़रूह सुल्तानपुरी, वशीर बद्र, कुंवर बेचैन, बेकल उत्साही, ज़हीर कुरैशी, अशोक चक्रधर आदि ऐसी ही अनगिनत हस्तियां हैं। अवध की ज़मीन के इस शायर के चहेते आम आदमी, राजनेता, अफसर सभी आज भी देश भर में जगह-जगह फैले हुए हैं।

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1987 में छपा प्रथम संकलन ‘धरती की सतह पर’

तमाम दुश्वारियों के बीच रामनाथ सिंह ‘अदम गोण्डवी का प्रथम काव्य-संकलन ‘धरती की सतह पर’ 1987 में प्रकाशित हुआ। ‘सौ में सत्तर आदमी फिलहाल जब नाशाद हैं,’ ‘जितने हरामखोर थे कुरबो जवार में,’ ‘भूख के अहसास को शेरो सुखन तक ले चलो,’ ‘उतरा है रामराज विधायक निवास में’ आदि गज़लें और ‘चमारों की गली में’ कविता पूरे देश में चर्चा में आ गई। प्रबुद्धों की नगरी दिल्ली सहित अन्य कई मंचों पर भी विवाद की स्थितियां आयीं किन्तु आम आदमी की बात थी, आम श्रोता को पसंद आयी। फिर तो आकाशवाणी, दूरदर्शन तक में उनकी यह नज़्म पढ़ी जाने लगी।

बीस साल पहले छपी गर्म रोटी की महक

सन् 2000 में अदम का गज़ल संग्रह ‘गर्म रोटी की महक’ प्रकाशित हुआ। इसमें जनवाद से प्रेरित और प्रभावित विचार-धारा गज़ल-पंक्तियों में स्वतः प्रवह्वान हुई है। सन् 2010 में तीसरा संकलन ‘समय से मुठभेड़’ प्रकाशित हुआ, जिसमें नव सृजित गज़लों के साथ कुछ अन्य मशहूर हो चली रचनाएं भी शामिल कर ली गईं। इन गज़लों में भी सरयू, माटी, गांव, गरीबी, किसानी, सामंतशाही, दुश्वारी, जुर्म, शिकन आदि का जिक्र पूरे उफान के साथ बार-बार आया है तो महज इसलिए कि इस शायर का इन सब स्थितियों से सहज पाला पड़ा है। अपनी गज़ल में उकेरी घटनाओं, चित्रों को रचनाकार ने प्रायः खुद ही देखा-भोगा है।

जनवादी आन्दोलनों से मिली पहचान

प्रारंभिक दौर में स्थानीय परसपुर और कर्नलगंज बाज़ार में आयोजित होने वाले कवि सम्मेलनों में कविता पढ़ने का मौका मिला, जिससे आगे की राह निकली। शुरूआत से ही कवि-मंचों पर उन्हें बड़े कवियों, शायरों व श्रोताओं का भरपूर समर्थन प्राप्त होने लगा था। साफगोई, ईमानदारी, भलमनसाहत से ओत-प्रोत रचनाशीलता पूरे आदर के साथ स्थान पाने लगी थी। पहली कविता कब, कहां पढ़ी या छपी, यह तो गुज़रे जमाने की बात हो गयी, लेकिन इन्हें इतना अवश्य याद है कि वह नव यौवन-काल ही रहा। उनकी कविता को श्रोताओं, पाठकों की स्वीकृति पाने में ज्यादा समय नहीं लगा।

जब मंच पर हुआ प्रतिवाद

यहां तक कि ‘चमारों की गली’ कविता को लेकर जब मंच पर प्रतिवाद हुआ तो श्रोताओं ने दोनों हाथ समर्थन देकर विरोध को एक स्वर से नकार दिया। अपने शुरूआती दौर में ही अदम जी जनवादी आन्दोलनों से जुड़ गये थे, जिसके नाते जननाट्य संस्थाओं ने ज़मीनी हकीकत के इस शायर को यूपी से बाहर निकालकर दिल्ली, कोलकाता तक पसारने में अहम भूमिका अदा की। यही कारण है कि गैर रसिक, बुद्धिवादी विचारकों में भी अदम गोण्डवी की जर्बदस्त पहचान बन गयी। इस मामले में अपने समकालीन अन्य रचनाकारों से आगे हैं। यही नहीं, तिहत्तर वर्ष की उम्र के पड़ाव तक पहुंच जाने के बावजूद वे आज भी विभिन्न विश्वविद्यालयों में प्रोफेसरों व अध्ययनरत नवयुवा विद्यार्थियों के हृदयहार बने हुए है।

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तुलसीदास को मानते थे आदर्श

वैचारिक रूप से अदम जी खुद को मार्क्सवादी समाजवाद का पोषक व समर्थक घोषित करते रहे हैं किंतु कविता को किसी वाद के कटघरे में कैद करना उन्होंने मुनासिब नहीं समझा। यहां तक कि गोस्वामी तुलसीदास को आदर्श मानते हुए वे कहते थे कि तुलसी दास जी ने राज्याश्रय को कभी स्वीकार नहीं किया। आमजन की वेदना, जन-जन के दर्द को स्वयं भोगा और लिखा है। अदम गोण्डवी रचनाओं के भीतर के वर्ग संघर्ष को श्रोताओं और पाठकों पर छोड़ देते हैं। अपनी गज़लों में वे जगह-जगह असहमति को स्वर देते दिखते हैं।

जब पहली बार मंच पर कविता पढ़ी, तभी से प्रतिबद्धताओं में जी रहा हूं

वे खुद कहते थे इसी असहमति को स्वर देने के लिए तो मैं मंच पर आया, अन्यथा स्वान्तः सुखाय ही क्यों न रह जाता? जब पहली बार मंच पर कविता पढ़ी, तभी से प्रतिबद्धताओं में जी रहा हूं। बजाय आह और वाह के श्रोताओं में प्रतिघात की उत्प्रेरणा पैदा कर देने वाले इस अजब रचनाकार ने जिस समय और जिन परिस्थितियों में अपनी सोच, शैली और शब्द-योजना का लोहा मनवा लिया, यह अन्यों के लिए अति दुष्कर था। एक तरह की प्रतिबद्धता के बावजूद सभी तरह के मंचों पर उनकी मांग ताउम्र बनी रही। कविता सुनाकर गैर रसिक व्यक्ति का दिल जीतना आसान नहीं होता, फिर भी अदम ने ऐसा कर दिखाया। वह भी उस दौर में जब बहुसंख्य जनों के पेट खाली थे।

मंचों पर विशुद्ध गंवई अंदाज

हाथों में बस काम, दिलो दिमाग में केवल चिन्ताएं बसी होती थी। आवागमन के साधन सीमित थे, जमाने में निरक्षरता थी। पढ़े-लिखे लोग गिनती के थे। न तो इतने अखबार थे न इतने मीडिया कर्मी और न ही आर्थिक स्रोत। इसके बावजूद मंचों पर विशुद्ध गंवई अंदाज में हैरान कर देने वाली मुद्रा में कविता-पाठ कर लोगों पर अमिट छाप छोड़ने वाले अदम की ’चमारों की गली’ की ‘कृष्ना’ रेणु के ‘तीसरी कसम’ के ‘हीरामन’ से कहीं ज्यादा जन-समर्थन हासिल कर लेती है तो महज इसलिए कि उन्हें साहित्य और सियासत दोनों में लन्तरानी नापसंद रही-‘भीख का लेकर कटोरा चांद पर जाने की जिद, ये अदा, ये बांकपन, ये लन्तरानी देखिए।

गजल विधा के अलम्बरदार थे अदम गोण्डवी

आगे चलकर जब अनेक विधाओं के रचनाकारों को कवि सम्मेलनों में सुना तो गज़ल ज्यादा ही सुलभ लगी। हिन्दी साहित्य में गज़ल को भी उसकी एक विधा के रूप में स्वीकार किये जाने के सम्बंध में मतान्तर रहा। अदम गोण्डवी को यह मंजूर नहीं था। अदम जी कहते थे कि रचनाकार को हम गीतकार, गज़लकार, व्यंग्यकार के खेमें में बांटकर भले ही देख लें, लेकिन आखिर में है वह कवि ही। गज़ल हिन्दी साहित्य की अनन्य विधा है। इसे पृथक रखना इसके और हिन्दी, उर्दू दोनों के प्रति अन्याय है।

अदम गोण्डवी ने पेश की ये चुनौती

यह मठाधीशों की साजिश है, जिसे सुधी पाठक व श्रोता सफल नहीं होने देंगे। यही कारण है कि विधा के रूप में गज़ल को अब महत्व मिलने लगा है। अपनी रचना ‘धरती की सतह पर’ उन्होंने स्पष्ट भी किया था-‘बेल सी लिपटी हुई है फलसफे की शाख पर, भीगी रातों में महकती रातरानी है गज़ल। किताबी मार्क्सवाद के सिद्धान्त से बहुत दूर संघर्षशील जनवाद की अन्तःरेखा पर चलने वाले क्षोभ, आक्रोश और मुफलिसी के शायर अदम गोण्डवी ने अपनी गज़लों में गांव, गरीबी, भूख, भ्रष्टाचार, दुख, दोहन, विवशताओं, विद्रूपताओं के चित्र खींचकर चुनौती पेश कर दी है।

बचपन से बुढ़ापे तक हल, बैल और कुदाल जैसे हथियारों से परती भूमि को उर्वर बनाने में संलग्न रहकर उन्होंने अदीबों को कई बार सचेत भी किया-‘‘जो ग़ज़ल माशूक के जलवों से वाकिफ़ हो चुकी, अब उसे बेवा के माथे की शिकन तक ले चलो। उनकी गज़लें अपने ज़माने के लोगों से ठोस धरती की सतह पर लौट आने का आग्रह कर रही हैं-‘ग़ज़ल को ले चलो अब गांव के दिलकश नजारों में, मुसलसल फन का दम घुटता है इन अदबी इदारों में। अदीबों ठोस धरती की सतह पर लौट भी आओ, मुलम्मे के सिवा क्या है फ़लक के चांद तारों में।‘

अफसरशाही के भ्रष्टाचार और राजनीति पर प्रहार

अदम गोण्डवी का क्षेत्र, उनकी तहसील, उनका जिला बाढ़ की विभीषिकाओं से त्रस्त रहता है। इस आपदा़ की विनाश-लीला के पीछे का देखा परखा सच उन्होंने बयां किया था। उन्होंने तत्कालीन जिलाधिकारी के भ्रष्टाचारी व्यवस्था पर सीधा प्रहार किया-मिसेज सिन्हा के हाथों में जो बेमौसम खनकते हैं, पिछली बाढ़ के तोहफे हैं ये कंगन कलाई के।’ उनका मानना था कि जन प्रतिनिधित्व सेवा का पद नहीं रह गया। यह कुर्सी भी अब मलाईवार हो गयी है, इसलिए अब नेता जनसेवक नहीं रहे।

उन्होंने साफ लिखा कि कुर्सी की मलाई चखने के लिए-‘जितने हरामखोर थे कुर्बों ज़वार में, परधान बनके आ गये अगली कतार में।’’ गांव के लहजे की अपनी मिठास होती है’ कहने वाला शायर जब भूख के अहसास को महसूस करता है, तो धधक उठता है तो अदम कहते हैं-‘जी में आता है कि आईने को जला डालूं, भूख से जब मेरी बच्ची उदास होती है।’

धूमिल का आम आदमी और प्रेमचंद का किसान अदम की गज़ल में उलाहना बनकर उतरता है-‘तुम्हारी मेज चांदी की, तुम्हारे जाम सोने के, यहां जुम्मन के घर में आज भी फूटी रकाबी है।’ अभिजात सम्पन्न कवि मंचों पर भी अदम बड़ी बेरूखी, बेमुरव्वती से लक्ष्मी के लालों को न्योता दे डालते हैं-‘फटे कपड़ों में तन ढांके गुजरता हो जहां कोई, समझ लेना वो पगडण्डी अदम के गांव जाती है।’

चरमराई शासन व्यवस्था पर चोट करती गजलें

दुष्यंत कुमार ने अपनी ग़ज़लों से शायरी की जिस नयी राजनीति की शुरुआत की थी, कबीर परंपरा के कवि अदम ने उसे उस मुकाम तक पहुंचाने की कोशिश की। फाइलों के मकड़जाल, भ्रष्ट व्यवस्था और सामंतवाद पर चोट करते हुए उन्होंने कहा-

जो उलझ कर रह गयी है फाइलों के जाल में, गांव तक वह रौशनी आएगी कितने साल में।

बूढ़ा बरगद साक्षी है किस तरह से खो गयी, राम सुधि की झौपड़ी सरपंच की चौपाल में।

खेत जो सीलिंग के थे सब चक में शामिल हो गए, हम को पट्टे की सनद मिलती भी है तो ताल में।

अदम गोण्डवी शहरी शायर के शालीन और सुसंस्कृत लहजे में बोलने के बजाय ठेठ गंवई दो टूकपन और बेतकल्लुफी से काम लेते थे। उनके कथन में प्रत्यक्षा और आक्रामकता और तड़प से भरी हुई व्यंग्मयता है।

गोण्डवी की शायरी में अवाम बसता है

अदम की शायरी में आज जनता की गुर्राहट और आक्रामक मुद्रा का सौंदर्य मिसरे-मिसरे में मौजूद है, ऐसा धार लगा व्यंग है कि पाठक का कलेजा चीर कर रख देता है। उन्होंने राजनीति को गहराई से देखा और उसमें विसंगतियों पर चोट करते हुए जनमानस को उद्वेलित किया-‘काजू भुने प्लेट में व्हिस्की गिलास में, उतरा है रामराज विधायक निवास में। पक्के समाजवादी हैं तस्कर हों या डकैत, इतना असर है खादी के उजले लिबास में। जनता के पास एक ही चारा है बगावत, यह बात कह रहा हूं मैं होशो हवाश में।'

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लोगों के दिल में बस जाती उनकी शायरी

अदम की शायरी में अवाम बसता है उसके सुख दुःख बसते हैं शोषित और शोषण करने वाले बसते हैं। सीधे सच्चे दिल से कही उनकी शायरी सीधे सादे लोगों के दिलों में बस जाती है-‘बेचता यूं ही नहीं है आदमी ईमान को, भूख ले जाती है ऐसे मोड़ पर इंसान को। सब्र की इक हद भी होती है तवज्जो दीजिए, गर्म रक्खें कब तलक नारों से दस्तरखान को। शबनमी होंठों की गर्मी दे न पाएगी सुकून, पेट के भूगोल में उलझे हुए इंसान को।‘ और वे कहते हैं-‘चोरी न करें झूठ न बोलें तो क्या करें, चूल्हे पे क्या उसूल पकाएंगे शाम को‘

बेबाक शैली से देश भर में मिला सम्मान

‘यूं खुद की लाश अपने कांधे पर उठाये हैं, शहर के वाशिंदों! हम गांव से आये हैं।‘ के माध्यम से आम आदमी की घुटन व दर्द भरी जिन्दगी और सियासत का घिनौना रूप शालीन आक्रोश पूर्वक एक साथ हृदय में उतार देने वाले अदम गोण्डवी ने किसी की चापलूसी नहीं की। उनकी संवाद-शैली ने उन्हें जनता की रूह में ऊंचा सम्मान दिलाया तो कई सामाजिक साहित्यिक संगठनों ने भी सुध ली। जब मध्य प्रदेश में गज़ल-सम्राट दुष्यन्त कुमार के नाम से उनके स्कूल के गज़लकारों को सम्मानित करने की श्रृंखलाबद्ध योजना बनी तो प्रथम पुरस्कार के लिए माटी के शायर अदम गोण्डवी का नाम चयनित किया गया।

Gondvi (फोटो- सोशल मीडिया)

सम्मानों की लगी झड़ी

‘दुष्यंत कुमार अलंकरण’ नाम से यह सम्मान उन्हें भोपाल में 1998 में दुष्यंत कुमार स्मारक संग्रहालय समिति की ओर से दिया गया, जिसकी देश भर में चर्चा हुई। इसके बाद सम्मानों की झड़ी लग गयी। साल 1999 में ग्वालियर में ‘सरोज-सम्मान’, साल 2000 में उन्नाव में ‘निराला सम्मान’, 2001 में बुलंदशहर में ‘नागर सम्मान’, अगले साल 2002 में ‘झांसी महोत्सव सम्मान झांसी, ‘गोनार्द सम्मान’ गोंडा, ‘विजय सिंह पथिक शोध सम्मान’ नोयडा, गांधी जयंती समारोह ट्रस्ट सम्मान के अलावा 2008 में अखिल भारतीय मोहम्मद रफी सम्मान व खलीलाबाद का रंगपाल सम्मान मिला।

अपूर्वा द्वारा राजेश विद्रोही सम्मान, 2009 में आगरा में फिराक गोरखपुरी स्मृति सम्मान, ग्रेटर नोएडा में नागरिक सम्मान, 2010 में फैजाबाद में अशफाक उल्ला शोध संस्थान द्वारा ‘माटी-रतन’ सम्मान, अखिल भारतीय साहित्य कला मंच मेरठ द्वारा समग्र साहित्य सम्मान, सैफई महोत्सव सम्मान और 28 मार्च 2011 को पुरूषोत्तम हिन्दी भवन न्यास नई दिल्ली द्वारा प्रदत्त सम्मान सहित अनगिनत सम्मान अदम गोण्डवी की लोकप्रियता के गवाह हैं।

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सरकार, समाज ने की उपेक्षा

तमाम सामाजिक व नागरिक मान-पत्रों से सम्मानित होने जाने के बावजूद सरकारों की तरफ से जमीन के इस शायर की रोजी-रोटी के लिए कुछ भी प्रयास नहीं किया गया। उनके समर्थक तो कहते हैं कि आम आदमी के प्रति इसी तरह की पक्षधरता अगर वे कवि के बजाय नेता बनकर कर रहे होते तो उच्च पदों से नवाजे जा सकते थे। लेकिन खरा कवि होने का खमियाजा उन्हें भुगतना पड़ा। कभी सरकारी सहायता के रुप में उन्हें फूटी कौड़ी भी नहीं मिली।

समाज और सामाजिक संस्थाओं ने भी मोड़ा मुंह

पहले जब दुर्घटना में चोट खाए तब भी नहीं और जब वे लीवर सिरोसिस की गम्भीर बीमारी से ग्रस्त चारपाई पर पड़े थे, तब भी नहीं। अलबत्ता पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव आदि ने अदम जी को फोन करके कुशल क्षेम पूंछा था। समाज और सामाजिक संस्थाओं ने भी मुंह मोड़ लिया। हालांकि निधन के बाद गांव के प्राथमिक विद्यालय का नामकरण उनके नाम पर किया गया और तत्कालीन जिलाधिकारी राम बहादुर ने न केवल उनकी अर्थी को कंधा दिया बल्कि उनके कर्ज के तले गिरवी खेत को भी छुड़वाया।

अब प्रति वर्ष अदम गोंडवी के पुत्र आलोक कुमार सिंह, भाई केदारनाथ सिंह और उनकी काव्य विरासत संभाल रहे भतीजे दिलीप गोण्डवी और उनके परिजनों द्वारा उनके जन्म दिवस और पुण्यतिथि पर कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है, जिसमें बड़ी संख्या में शामिल होकर नागरिक जन श्रद्धा सुमन अर्पित करते हैं।

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