ग़ालिब को शराब पसंद थी, ग़ालिब की तारीफ में ‘ग़ालिब’ ही कह सकते हैं, उनकी 25 शायरियां
मिर्ज़ा ग़ालिब... इनके बारे में क्या बताना,क्या जताना और क्या महसूस कराना। ग़ालिब के बारे में तो सिर्फ इतना कह सकते हैं कि वो ''ग़ालिब'' हैं।
मिर्ज़ा ग़ालिब... इनके बारे में क्या बताना,क्या जताना और क्या महसूस कराना। ग़ालिब के बारे में तो सिर्फ इतना कह सकते हैं कि वो ''ग़ालिब'' हैं। वो तरक्कीपसंद हैं। वो सभी की जुबां पे रहते हैं। ग़ालिब ही वो शख्स हैं जिनकी वजह से लोग शायरियों को जानते हैं। ग़ालिब ने ऐसी शायरियां, नज़्में और ग़ज़लें लिखीं, जिसने खुसरो की परम्परा को आगे बढ़ाने का काम किया।
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ग़ालिब ने 1857 की क्रान्ति को करीब से देखा। ग़ालिब को शराब पीने का शौक था। ग़ालिब उम्दा किस्म की शराब पीते थे। ग़ालिब अक्सर शराब पीने मेरठ जाया करता थे। जो कि उनकी पत्नी उमराव को बिलकुल पसंद नहीं था। ग़ालिब और उनकी बेगम जुदा थे। उनकी सोच अलग थी। जहाँ ग़ालिब दिनभर शायरियों में व्यस्त रहते थे, वहीँ उमराव खुदा की इबादत करती थी। ग़ालिब सिर्फ शायरी करते थे, उन्होंने कभी हिन्दू-मुसलमान के बीच फर्क नहीं किया।
ग़ालिब की यूं तो बहुत शायरियां हैं लेकिन उनमें से ये 25 मशहूर हैं...
हम को मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन
दिल के ख़ुश रखने को 'ग़ालिब' ये ख़याल अच्छा है
हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले
बहुत निकले मिरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले
उन के देखे से जो आ जाती है मुँह पर रौनक़
वो समझते हैं कि बीमार का हाल अच्छा है
मोहब्बत में नहीं है फ़र्क़ जीने और मरने का
उसी को देख कर जीते हैं जिस काफ़िर पे दम निकले
इशरत-ए-क़तरा है दरिया में फ़ना हो जाना
दर्द का हद से गुज़रना है दवा हो जाना
रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं क़ाइल
जब आँख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है
ये न थी हमारी क़िस्मत कि विसाल-ए-यार होता
अगर और जीते रहते यही इंतिज़ार होता
आह को चाहिए इक उम्र असर होते तक
कौन जीता है तिरी ज़ुल्फ़ के सर होते तक
न था कुछ तो ख़ुदा था कुछ न होता तो ख़ुदा होता
डुबोया मुझ को होने ने न होता मैं तो क्या होता
बस-कि दुश्वार है हर काम का आसाँ होना
आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसाँ होना
रंज से ख़ूगर हुआ इंसाँ तो मिट जाता है रंज
मुश्किलें मुझ पर पड़ीं इतनी कि आसाँ हो गईं
हैं और भी दुनिया में सुख़न-वर बहुत अच्छे
कहते हैं कि 'ग़ालिब' का है अंदाज़-ए-बयाँ और
बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल है दुनिया मिरे आगे
होता है शब-ओ-रोज़ तमाशा मिरे आगे
काबा किस मुँह से जाओगे 'ग़ालिब'
शर्म तुम को मगर नहीं आती
रेख़्ते के तुम्हीं उस्ताद नहीं हो 'ग़ालिब'
कहते हैं अगले ज़माने में कोई 'मीर' भी था
दर्द मिन्नत-कश-ए-दवा न हुआ
मैं न अच्छा हुआ बुरा न हुआ
कोई मेरे दिल से पूछे तिरे तीर-ए-नीम-कश को
ये ख़लिश कहाँ से होती जो जिगर के पार होता
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क़र्ज़ की पीते थे मय लेकिन समझते थे कि हाँ
रंग लावेगी हमारी फ़ाक़ा-मस्ती एक दिन
कहाँ मय-ख़ाने का दरवाज़ा 'ग़ालिब' और कहाँ वाइज़
पर इतना जानते हैं कल वो जाता था कि हम निकले