मोहम्मद रफीः आखिरी गीत गा कर कह दिया था, अब लगता है... दुनिया छोड़कर चला जाऊं
Mohammad Rafi death anniversary: देश में गायक के रूप में तानसेन के बाद सर्वाधिक ख्याति पाने वाले आधुनिक तानसेन अपनी गायकी के रूप में एक नायाब हीरा थे मुहम्मद रफी, जिनकी 31 जुलाई को बरसी होती है।
Mohammad Rafi death anniversary: देश में गायक के रूप में तानसेन के बाद सर्वाधिक ख्याति पाने वाले आधुनिक तानसेन अपनी गायकी के रूप में एक नायाब हीरा थे मुहम्मद रफी, जिनकी 31 जुलाई को बरसी होती है। उन्होंने गायकी को एक ऐसा अंदाज दिया जो किसी अन्य गायक के लिए दुर्लभ है। नौशाद ने रफी साहब को तानसेन की उपाधि दी थी। मोहम्मद रफी के गाए गीतों को शास्त्रीयता के पैमाने पर कसा जाए तो बैजू बावरा फिल्म को उनका चरम कहा जा सकता है। इस फिल्म में तानसेन और उनके गुरू भाई की कहानी में मोहम्मद रफी ने अपनी गायकी का चरम दिखाया है। इस फिल्म के लिए रफी नौशाद की पसंद थे। वैसे भी रफी के गले की रेंज बहुत ऊंची रही है। वो जिस स्केल पर आराम से गा सकते थे वहां सुर लगाने में आज कल के तमाम गायकों को चीखना पड़ जाएगा।
लेकिन मोहम्मद रफी ने यह चुनौती स्वीकार की फिल्म के गीत ऐ दुनिया के रखवाले, सुन दर्द भरे नाले... गाते समय मोहम्मद रफी ने तार सप्तक के उस बिंदु को छू लिया था जिसमें उनके मुंह से खून आ गया था। हालात ऐसे हुए कि कई दिन तक रफी गा नहीं सके। लेकिन कुछ साल बाद उन्होंने इस गाने को फिर से रिकॉर्ड किया और आश्चर्य वह पहले से भी ऊंचे स्केल तक चले गए वो भी बिना किसी दिक्कत के। एक ऐसा गायक जिसे शम्मी कपूर अपनी आवाज कहते थे। और जिनके न रहने पर जब कुछ लोग मोहम्मद रफी के दर्द भरे गाने सुन रहे थे तो वह चीख पड़े थे कि बंद करो ये, जिस आदमी ने दुनिया को मोहब्बत करना सिखाया उसके जाने पर ये गाने तो मत बजाओ।
रोमांस और इजहार ए प्यार की बात की जाए तो दीवाना हुआ बादल ली प्यार ने अंगड़ाई..., आने से उसके आए बहार, जाने से उसके जाए बहार..., तूने काजल लगाया दिन में रात हो गई..., आज मौसम बड़ा बेईमान है.. मोहम्मद रफी के कालजयी गाने हैं। चौधरी जिया इमाम ने जर्रा जो आफताब बना नामक किताब में संगीतकार नौशाद के जीवन के अहम संस्मरणों का उल्ले ख किया है। इसी में एक संस्मरण है कि मोहम्मद रफ़ी का। रफी जब लाहौर से मुंबई जा रहे थे तो उन्होंने लखनऊ जाकर नौशाद के वालिद से नौशाद के लिए ख़त लिया तथा उसे ले जाकर नौशाद को दिया। उस दौरान नौशाद साहब कारदार प्रोडक्शेन तले बन रही फ़िल्म 'पहले आप' का संगीत तैयार कर रहे थे। रफ़ी जब उनसे मिले तो उन्होंने रफ़ी से कहा, 'कुछ गाओ' तब रफ़ी साहब ने सहगल साहब का एक गीत सुनाया।
बाद में रफ़ी को सहगल के साथ 1946 में फिल्म 'शाहजहां' में गीत गाने का मौका दिया जिससे रफी भाव विभोर हो गए। इस गीत के बोल थे मेर सपनों की रानी रूही रुही रुही... रफ़ी की आवाज़ से नौशाद बहुत प्रभावित थे। नौशाद ने रफ़ी को फिल्म 'अनमोल घड़ी' में भी गाने का मौक़ा दिया। बाद में इन दोनों की जोड़ी काफ़ी हिट रही। रफ़ी के लिए नौशाद साहब ने एक शेर कुछ यूं कहा था, 'एक दिन एक नौजवान गायक मुझे आया नजऱ, जिसने रौशन कर दिए संगीत के शामो सहर'। रफ़ी की आवाज़ के बारे में नौशाद ने कहा, 'रफ़ी की आवाज़ की रेंज को पहचाना नहीं गया था। उनकी आवाज़ कितनी उंची जा सकती है और कितनी नीचे जा सकती है इस पर किसी ने ध्यान नहीं दिया।' मैंने उनकी आवाज़ का इस्तेमाल फिल्म 'बैजू बावरा' के गीत 'ओ दुनिया के रखवाले' में किया था। इसी फ़िल्म के भजन 'मन तरपत हरि दर्शन को आज' को राग मालकौंस पर बनाया था जो बहुत ही पवित्र और पाकीज़गी से बनाया गया था।
रफ़ी विश्व में जहां जाते थे लंदन, अमेरिका, मिडल ईस्ट-लोग फ़रमाइश करते थे कि हिंदुस्तान का भजन सुनाओ। रफ़ी को याद कहते हुए नौशाद आगे कहते हैं कि इंतेक़ाल से कुछ महीनों पहले मोहम्मद रफ़ी मेरे पास आए और कहने लगे मैं अमेरिका जा रहा हूं वहां से क्या चीज़ लाऊं जो ग़रीबों के काम आए। तो मैंने कहा डायलिसिस की मशीन ले आइए, बहुत से लोगों को किडनी की तकलीफ होती है लेकिन फ़ीस ज़्यादा होने की वजह से उनका इलाज नहीं हो पाता। इसलिए मशीन को लाकर अस्पताल में दान कर दीजिए।
नौशाद के संगीत निर्देशन में मोहम्मद रफी का आख़िरी गाना अली सरदार जाफ़री की फिल्म 'हब्बा ख़ातून' के लिए था। गाने के बोल थे 'जिस रात के ख़्वाब आए वह रात आई।' इस गाने के बाद मोहम्मद रफी साहब नौशाद साहब के गले लिपटकर रो पड़े। उन्होंने कहा, 'बहुत दिनों बाद एक बेहतरीन गाना गया अब लगता है कि इस दुनिया को छोड़ कर चला जाऊं।' इस गाने का मुआवजा रफी साहब ने नौशाद के लाख इसरार पर भी नहीं लिया।
उसी के अगले दिन नौशाद साहब को खब़र मिली की रफ़ी साहब का इंतेक़ाल हो गया। नौशाद साहब ने रफ़ी की अंतिम यात्रा का वर्णन करते हुए कहा कि रमजान में उनका इंतेकाल हुआ था और रमजान में भी अलविदा के दिन। बांद्रा की बड़ी मस्जिद में उनकी नमाजे जनाजा हुई थी। पूरा यातायात जाम था। क्या हिंदू, क्या मुसलमान और क्या ईसाई, सभी कौम सड़क पर आ गई थी। कब्रिस्तान की दीवारों पर शीशे लगे थे, लोग उस पर चढ़ गए थे। उनके हाथों से खून बह रहा था लेकिन रफी के अंतिम दर्शन के लिए वे उस दीवार पर चढ़-चढ़कर अंदर फांद रहे थे। मैंने यह मंजर भी देखा कि लोग उनकी कब्र की मिट्टी शीशी में भरकर ले गए।