श्रीधर अग्निहोत्री
लखनऊ। कांग्रेस के कार्यकाल में श्री रामजन्मभूमि परिसर का ताला खुला, मुलायम सरकार में मंदिर निर्माण के लिए गए कारसेवकों को रोकने के लिए गोली चली, कल्याण सरकार के दौरान बाबरी ढांचे का विध्वंस किया गया। मायावती सरकार में 60 साल पुराने का इस विवाद का फैसला आया। इसके बाद जब अखिलेश यादव की सरकार ने पांच साल काम किया तो वर्ष 2015 में यहां एक बार फिर मंदिर निर्माण को लेकर पत्थर पहुंचने का काम शुरू हुआ जिसके बाद अखिलेश यादव को भी कानून व्यवस्था बनाए रखने की एक चुनौती मिल चुकी है।
उत्तर प्रदेश की राजनीति में अयोध्या विवाद ऐसा विवाद रहा है जिससे कोई दल अछूता नहीं रहा। पिछले तीन दशकों से अयोध्या मुद्दे का सामना हर दल की सरकार को करना पड़ा है। इसे संयोग ही कहा जाएगा कि इस विवाद से बचती रही बसपा सरकार को भी 2010 में इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला आने के बाद कानून व्यवस्था को बनाए रखने की बड़ी चुनौती मिली थी।
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कांग्रेस को उठाना पड़ा नुकसान
अयोध्या के वर्षों पुराने विवाद का प्रारम्भ 25 जनवरी 1986 से हुआ जब वकील उमेश चन्द्र पांडे ने फैजाबाद अदालत में दावा दायर किया कि श्री रामजन्मभूमि पर लगा ताला अनधिकृत है। मुंसिफ ने अपने आदेश से ताला खोलने से इनकार कर दिया। इस पर आदेश के खिलाफ जिला न्यायाधीश की अदालत में अपील की गयी तो एक फरवरी को जिला अदालत के मुख्य न्यायाधीश कृष्ण मोहन पांडे ने सुनवाई के बाद ताला खोलने के आदेश दिए। तब मो.हाशिम ने इस निर्णय के खिलाफ अपील की तथा बाद में मुस्लिम समाज ने कांग्रेस के खिलाफ नाराजगी जताते हुए काला दिवस मनाया। कई जगह आगजनी व हिंसा हुई। इसका राजनीतिक परिणाम यह हुआ कि मुसलमान कांग्रेस से नाराज हो गया और 1989 के चुनाव में कांग्रेस प्रदेश की सत्ता से बेदखल हो गयी।
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गिर गई वीपी सिंह की सरकार
अयोध्या विवाद का अगला पड़ाव उस समय आया जब मंदिर निर्माण के लिए उमड़े हुजूम को रोकने के लिए मुलायम सरकार के आदेश पर पहले 30 अक्टूबर 1990 और बाद में 2 नवम्बर के दिन पुलिस ने लाठियां बरसाकर कारसेवकों को रोकना चाहा, लेकिन जब कारसेवक नहीं रुके तो उन पर गोली चलाने का आदेश दिया गया। इस घटना का परिणाम यह रहा कि केन्द्र में वी.पी.सिंह की राष्ट्रीय मोर्चा सरकार ने विश्वासमत खो दिया और चन्द्रशेखर ने प्रधानमंत्री का पद संभाला। चंद्रशेखर ने एक दिसम्बर 1990 को मुलायम सरकार की तरफ से की गयी कार्रवाई को उचित बताया। इसके बाद 1991 के विधानसभा चुनाव में मुलायम का सूपड़ा साफ हो गया और 24 जून 1991 को प्रदेश में कल्याण सिंह के नेतृत्व में भाजपा सरकार का गठन हुआ।
विध्वंस के बाद चार भाजपा सरकारें बर्खास्त
कल्याण सिंह की सरकार बनते ही हिन्दूवादी ताकतें सक्रिय हो गयीं। 29 और 30 नवम्बर 1992 को नई दिल्ली में पंचम धर्म संसद की बैठक में इस विवाद का समाधान न होने पर 6 दिसम्बर को पुन: अयोध्या में कारसेवा करने की घोषणा कर दी। परिणाम यह रहा कि इस दिन देश भर से अयोध्या पहुंचे उन्मादी कारसेवकों ने बाबरी ढांचे का विध्वंस कर दिया। इसके बाद केन्द्र सरकार ने उ.प्र. के अलावा भाजपा शासित तीन अन्य राज्यों हिमाचल प्रदेश, राजस्थान और मध्य प्रदेश की सरकारों को बर्खास्त कर दिया।
बाबरी ढांचे के विध्वंस के बाद कई साल तक अयोध्या की राजनीति ठंडी रही, लेकिन हाईकोर्ट के आदेश पर रामजन्मभूमि परिसर के आसपास भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की तरफ से उत्खनन का कार्य 12 मार्च 2003 से शुरू हुआ, जो 7 अगस्त 2003 तक चला। इस दौरान उ.प्र. में बसपा की सरकार थी, लेकिन इस उत्खनन कार्य से सरकार का कोई लेना देना नही था।
अब सभी को फैसले का इंतजार
60 वर्षो के लम्बे इंतजार के बाद श्री रामजन्मभूमि बाबरी मस्जिद के मालिकाना हक पर हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच का फैसला आया। कोर्ट ने 30 सितंबर 2010 को जस्टिस सुधीर अग्रवाल, जस्टिस एस.यू.खान और जस्टिस डी.वी.शर्मा की बेंच ने अयोध्या विवाद पर फैसला सुनाया। फैसला हुआ कि 2.77 एकड़ विवादित भूमि के तीन बराबर हिस्से किए जाएं। राम मूर्ति वाला पहला हिस्सा राम लला विराजमान को दिया गया। राम चबूतरा और सीता रसोई वाला दूसरा हिस्सा निर्मोही अखाड़ा को दिया गया और बाकी बचा हुआ तीसरा हिस्सा सुन्नी वक्फ बोर्ड को दिया गया। इसके बाद यह मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा जहां लगातार सुनवाई हो रही है। कहा जा रहा है कि नवम्बर महीने तक रामजन्मभूमि विवाद पर फैसला आ जाएगा। अब हर किसी को इस मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले का इंतजार है।