Battle of Saragadhi History: सारागढ़ी का युद्ध, कैसे सिर्फ 21 सिक्खों की फौज ने 10000 अफगानों को चटाई धूल
Battle of Saragadhi History Wikipedia: चौकी पर तैनात केवल 21 सिख सैनिकों को यह सूचना मिली कि दुश्मन उनकी तरफ बढ़ रहा है। लगभग 10,000 हमला करने वालों की संख्या थी, जबकि सिर्फ 21 सिख जवान। सिख जवानों की मुख्य चुनौती यह थी कि सैनिकों को चौकी पर कब्जा बनाए रखना था।;
Battle of Saragadhi Wiki in Hindi: सारागढ़ी का युद्ध भारतीय सैन्य इतिहास का एक गौरवशाली अध्याय है, जिसे 12 सितंबर,1897 को उत्तर-पश्चिम सीमांत क्षेत्र (अब पाकिस्तान में) में लड़ा गया था। इस युद्ध में ब्रिटिश भारतीय सेना की 36वीं सिख रेजिमेंट (अब सिख रेजिमेंट) के 21 बहादुर सिख सैनिकों ने हजारों अफरीदी और ओरकजाई पश्तून आदिवासियों के खिलाफ वीरता का प्रदर्शन किया। उनकी बलिदान और साहस आज भी प्रेरणा का स्रोत हैं।
सारागढ़ी की चौकी सामरिक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण थी। यह किला गुलिस्तां और लॉकहार्ट के बीच एक संचार केंद्र के रूप में कार्य करता था। उन दिनों, इन दोनों किलों के बीच हेलियोग्राफ (दूर संचार का एक तरीका) के माध्यम से संदेश भेजने का काम सारागढ़ी चौकी करती थी।सारागढ़ी चौकी वर्तमान खैबर पख्तूनख्वा (पाकिस्तान) में स्थित थी।अफरीदी और ओरकजाई पश्तून, जो ब्रिटिश शासन के खिलाफ थे और अक्सर सीमांत इलाकों में विद्रोह करते थे।ब्रिटिश पक्ष का नेतृत्व 36वीं सिख रेजिमेंट के हवलदार ईशर सिंह कर रहे थे।
12 सितंबर, 1897 का दिन
सुबह होते ही हजारों पश्तून आदिवासियों ने सारागढ़ी चौकी को घेर लिया। चौकी पर तैनात केवल 21 सिख सैनिकों को यह सूचना मिली कि दुश्मन उनकी तरफ बढ़ रहा है। लगभग 10,000 हमला करने वालों की संख्या थी, जबकि सिर्फ 21 सिख जवान। सिख जवानों की मुख्य चुनौती यह थी कि सैनिकों को चौकी पर कब्जा बनाए रखना था ताकि गुलिस्तां और लॉकहार्ट किलों को हमले के लिए तैयार किया जा सके।
हवलदार ईशर सिंह का नेतृत्व: ईशर सिंह और उनके साथियों ने यह निर्णय लिया कि वे अपने अंतिम सांस तक लड़ेंगे और दुश्मन को चौकी पर कब्जा नहीं करने देंगे।सिख सैनिकों ने मजबूत मोर्चाबंदी की और अदम्य साहस के साथ युद्ध शुरू किया।उन्होंने दुश्मन को बार-बार पीछे धकेला, लेकिन भारी संख्या के कारण हमलावर चौकी में सेंध लगाने में कामयाब हो गए।हर सैनिक ने अंतिम सांस तक लड़ाई लड़ी।
प्रमुख वीरता के उदाहरण: भगवान सिंह जिन्होनें हेलियोग्राफ से गुलिस्तां किले को हर घटना की सूचना दी।लाल सिंह ने जब दुश्मन ने मुख्य द्वार तोड़ने की कोशिश की, उन्होंने उसे रोकने के लिए अपनी जान दे दी।गुरमुख सिंह वह अंतिम सैनिक थे, जिन्होंने चौकी की छत पर बैठकर दुश्मन पर गोलीबारी की। उन्होंने अंतिम समय तक लड़ाई जारी रखी।
सभी 21 सिख सैनिकों ने अपने प्राणों की आहुति दी। लेकिन दुश्मन को चौकी पर कब्जा करने में बहुत समय लग गया।इन बहादुर सिख सैनिकों के बलिदान ने गुलिस्तां और लॉकहार्ट किलों को तैयार होने का समय दिया।अफरीदी और ओरकजाई आदिवासियों ने अंततः चौकी पर कब्जा कर लिया। लेकिन उनकी भारी क्षति हुई।
सारागढ़ी का महत्व
सारागढ़ी की लड़ाई सिर्फ एक युद्ध नहीं थी, बल्कि यह अद्वितीय साहस और बलिदान का प्रतीक है। इस युद्ध ने दिखाया कि संख्या नहीं, बल्कि साहस और कर्तव्यनिष्ठा सबसे बड़ी ताकत है।यह लड़ाई सिख धर्म के ‘चढ़दी कला’ (सदैव उच्च आत्मा) और ‘त्याग’ की भावना का एक उदाहरण है।भारतीय सेना के सिख रेजिमेंट में हर साल 12 सितंबर को इस दिन को सारागढ़ी दिवस के रूप में मनाया जाता है।
सारागढ़ी का युद्ध साहस, बलिदान और कर्तव्यनिष्ठा का ऐसा उदाहरण है, जो मानव इतिहास में अद्वितीय है। इन 21 सिख सैनिकों ने यह साबित कर दिया कि असली ताकत संख्या में नहीं, बल्कि दिल में होती है। उनका बलिदान न केवल भारतीय इतिहास बल्कि वैश्विक सैन्य इतिहास में भी स्वर्ण अक्षरों में दर्ज है।
2021में इशर सिंह की प्रतिमा का ब्रिटेन मे अनावरण
अंग्रेजों के शासन काल में भारत और आसपास के क्षेत्रों में कई युद्ध हुए, जिनमें भारतीय सैनिकों ने अंग्रेजी हुकूमत के लिए अद्वितीय वीरता का प्रदर्शन किया। इनमें दोनों विश्वयुद्धों के साथ-साथ 1897 में लड़ा गया सारागढ़ी का युद्ध (Battle of Saragarhi) भी विशेष रूप से याद किया जाता है। इस ऐतिहासिक लड़ाई में, मात्र 21 सिख सैनिकों ने शहादत से पहले 1000 से अधिक अफगान कबाइलियों को सारागढ़ी किले पर कब्जा करने से रोक दिया था। हाल ही 2021 में ब्रिटेन में, इस युद्ध में सिख सैनिकों का नेतृत्व करने वाले हवलदार ईशर सिंह (Havaldar Ishar Singh) की कांसे की प्रतिमा का अनावरण किया गया।इंग्लैंड के वॉल्वरहैम्प्टन के वेडन्सफ़ील्ड में ईशर सिंह की 10 फुट ऊंची कांस्य प्रतिमा का अनावरण किया गया। यह प्रतिमा सारागढ़ी के युद्ध में शहीद हुए नायकों को सम्मानित करने के उद्देश्य से स्थापित की गई। सारागढ़ी के ऐतिहासिक युद्ध और इंग्लैंड में सिख समुदाय की वीरता से अनभिज्ञ लोगों के लिए यह एक आश्चर्यजनक घटना हो सकती है। ब्रिटेन द्वारा इन 21 सिख वीरों को सम्मानित करने का मुख्य कारण सिख समुदाय का योगदान और सारागढ़ी की इस अद्भुत लड़ाई में हवलदार ईशर सिंह और उनके 20 बहादुर सैनिकों का अद्वितीय शौर्य है।
अफगानों की योजना
इस ऐतिहासिक युद्ध में अफगानों की योजना खैबर पख्तूनख्वा के सारागढ़ी किले पर कब्जा कर अंग्रेजों के अन्य क्षेत्रों पर भी नियंत्रण स्थापित करने की थी। उनका मानना था कि सारागढ़ी किले में मौजूद 36वीं सिख रेजिमेंट के मात्र 21 सैनिक, उनकी 10,000 से अधिक की भीड़ के सामने ज्यादा देर टिक नहीं पाएंगे। हालांकि, हवलदार ईशर सिंह ने समर्पण करने से साफ इनकार कर दिया और साहस के साथ दुश्मनों का सामना करते हुए उन्हें लंबे समय तक किले पर कब्जा करने से रोके रखा।
लुईस गन सेक्शन में नंबर 1: ईशर सिंह की वीरता
अप्रैल 1921 में वजीरिस्तान में तैनात सिपाही ईशर सिंह, लुईस गन सेक्शन के "नंबर 1" सैनिक थे। इसका मतलब था कि वह लाइट मशीन गन, लुईस गन, चलाने के लिए जिम्मेदार थे। उनकी इकाई महसूद जनजाति के हमले का सामना कर रही थी, जबकि वे रसद पहुंचाने वाले काफिले (सप्लाई कॉन्वॉय) को सुरक्षा प्रदान कर रहे थे।लड़ाई के शुरुआती दौर में ही ईशर सिंह को सीने में गोली लग गई, जिससे वह लुईस गन के पास गिर पड़े। इस दौरान दुश्मन ने बंदूक पर कब्जा कर लिया। हालांकि, यह गंभीर चोट भी ईशर सिंह की हिम्मत को डिगा नहीं सकी।उनके प्रशस्ति पत्र के अनुसार, उन्होंने न तो भय दिखाया और न ही कोई झिझक। उन्होंने दो अन्य जवानों को बुलाया और दुश्मन पर धावा बोल दिया। न केवल उन्होंने लुईस गन को फिर से हासिल किया, बल्कि अत्यधिक रक्तस्राव के बावजूद गन को दुबारा चलाने में सक्षम हुए।
जब उनके जमादार, जो उनके सुपरवाइजिंग अधिकारी थे, मौके पर पहुंचे, तो उन्होंने ईशर सिंह को बेस पर लौटने और इलाज करवाने का आदेश दिया। लेकिन ईशर सिंह ने प्राथमिक चिकित्सा लेने के बजाय मेडिकल यूनिट में जाकर अन्य घायल सैनिकों के ठिकाने की जानकारी दी, ताकि उनका इलाज हो सके।अपनी तकलीफ को नज़रअंदाज करते हुए, उन्होंने घायल सैनिकों को पानी पहुंचाकर उनकी मदद की। यह घटना ईशर सिंह के अदम्य साहस, कर्तव्यनिष्ठा और दूसरों की भलाई के प्रति समर्पण का एक उत्कृष्ट उदाहरण है।
'मार्टिन हेनरी .303' राइफलें –इस लड़ाई में अफगानों का सामना करने के लिए सिख सैनिकों के पास सिंगल-शॉट 'मार्टिन हेनरी .303' राइफलें थीं, जो एक मिनट में अधिकतम 10 राउंड फायर कर सकती थीं। दूसरी ओर, अफगानों के पास जिज़ेल और ली मेडफोर्ड जैसी राइफलें थीं, जो तकनीकी रूप से कहीं अधिक उन्नत और प्रभावी थीं।लड़ाई शुरू होने के पहले ही घंटे में, सिखों ने पठानों के 60 से अधिक सैनिकों को मार गिराया। हालांकि, इस दौरान सिख सैनिक भगवान सिंह वीरगति को प्राप्त हुए और नायक लाल सिंह गंभीर रूप से घायल हो गए। जब अफगानों को सीधी मुठभेड़ में सफलता नहीं मिली, तो उन्होंने किले के दरवाजे और दीवारों को तोड़ने का प्रयास किया।दीवारें टूटने के बाद, पठान किले के अंदर घुस आए, और गोलियों की लड़ाई जल्दी ही तलवारों और हाथापाई में बदल गई। इस भीषण संघर्ष में सभी सिख सैनिक शहीद हो गए।
गुरमुख सिंह ने संभाली कमान —इस युद्ध में 20 सिख जवानों ने अफगानों का सीधे तौर पर मुकाबला किया, जबकि एक जवान, गुरमुख सिंह, युद्ध की जानकारी लगातार कर्नल हौथटन को तार के माध्यम से भेजते रहे। जब अंतिम 20 सिख सैनिक भी शहीद हो गए, तो गुरमुख सिंह ने अकेले मोर्चा संभाल लिया। उन्होंने अपनी राइफल के साथ जवानों के सोने वाले कमरे के पास पोजीशन ली। गुरमुख सिंह ने अकेले ही कम से कम 20 पठानों को ढेर किया। उनकी वीरता से बौखलाए अफगानों ने किले को आग लगा दी, जिससे लड़ाई समाप्त हो गई।इस युद्ध में मारे गए अफगानों की संख्या को लेकर इतिहासकारों में मतभेद है, लेकिन यह निश्चित रूप से स्पष्ट है कि 21 सिख सैनिकों की यह वीरता इतिहास के पन्नों में अमर हो गई।
इतिहास में हो सकता था बदलाव- सारागढ़ी का युद्ध इतना लंबा चला कि अफगानी कबाइली गुलिस्तान किले पर कब्जा करने का अपना लक्ष्य पूरा नहीं कर पाए। 14 सितंबर को अंग्रेजी सेना ने सारागढ़ी पर पुनः कब्जा कर लिया। माना जाता है कि यदि कबाइली सारागढ़ी को जल्दी जीतने में सफल हो जाते, तो वे गुलिस्तान किले पर भी कब्जा कर सकते थे।
कबाइलियों की योजना विफल- यह युद्ध छह घंटे से अधिक समय तक चला, जिसमें करीब 180 से 200 अफगानी कबाइलियों की जान गई। इसने उनकी पूरी योजना पर पानी फेर दिया और वे अपने आगे के मंसूबे पूरे करने में असमर्थ रहे। हालांकि इस लड़ाई में अफगानी कबाइलियों ने अंततः किले पर कब्जा कर लिया। लेकिन उनकी रणनीतिक जीत अधूरी रही। भारतीय सेना की सिख रेजिमेंट की चौथी बटालियन हर साल 12 सितंबर को सारागढ़ी दिवस के रूप में इस वीरता और बलिदान की याद करती है।
इस युद्ध की सबसे विशेष बात इन 21 सिख सैनिकों की बहादुरी थी, जिसने अंग्रेजों तक को प्रभावित कर दिया। कई सैन्य इतिहासकार इसे उन महान युद्धों में से एक मानते हैं, जो अंतिम सांस तक लड़े गए। इन सभी 21 सैनिकों को उनकी बहादुरी के लिए मरणोपरांत उस समय का सर्वोच्च वीरता पुरस्कार, ‘इंडियन ऑर्डर ऑफ मेरिट’ प्रदान किया गया। यह पुरस्कार उस समय भारतीयों को दिए जाने वाले सबसे उच्चतम वीरता सम्मान के रूप में जाना जाता था।सारागढ़ी की लड़ाई को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता मिली।इस लड़ाई की गाथा को ब्रिटिश संसद में पढ़ा गया और इसे वीरता का प्रतीक माना गया।पंजाब में फीरोजपुर और अमृतसर में इन वीर सैनिकों की याद में गुरुद्वारा सारागढ़ी बनाया गया।