Stop Biopiracy: बायोपाइरेसी रोकने की मुहिम, ताकि बचा रहे पारंपरिक ज्ञान
Stop Biopiracy: भारत में पाए जाने वाले नीम के गुणों को लेकर 1995 में केमिकल कंपनी डब्ल्यू आर ग्रेस ने एक कई पेटेंट दर्ज करा लिए थे। भारत में नीम के औषधीय और अन्य गुणों का इस्तेमाल हजारों साल से होता आया है।
Stop Biopiracy: पारंपरिक ज्ञान को लुटने से बचाने के लिए संयुक्त राष्ट्र में एक अंतरराष्ट्रीय संधि अब लगभग निश्चित हो गई है। इस समझौते पर बातचीत का दौर शुरू हुआ है, जिसे ऐतिहासिक संधि के लिए अंतिम चरण माना जा रहा है।
विभिन्न समुदायों और समाजों में पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ने वाले पारंपरिक ज्ञान की सुरक्षा को लेकर संयुक्त राष्ट्र की वर्ल्ड इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी ऑर्गनाइजेशन ने उम्मीद जताई है कि जल्दी ही संधि पर हस्ताक्षर हो जाएंगे जिससे पेटेंट व्यवस्था में ज्यादा पारदर्शिता लाई जा सकेगी।
24 मई तक चलने वाली इस बैठक के लिए 190 से ज्यादा सदस्य देशों के प्रतिनिधि जेनेवा में जुटे हैं। फ्रांसीसी प्रतिनिधि क्रिस्टोफ बिगोट ने कहा, यह बायोपाइरेसी के खिलाफ लड़ाई का मामला है ताकि जेनेटिक संसाधनों या पारंपरिक ज्ञान को बिना सहमति के उनसे लेकर कोई अन्य लाभ ना उठाए।
क्या है बायोपाइरेसी?
बायोपाइरेसी उस ज्ञान के बिना सहमति इस्तेमाल को कहा जाता है, जो पीढ़ी दर पीढ़ी लोगों के बीच आगे बढ़ता है। जैसे कि किसी पौधे या फसल के औषधीय गुणों की जानकारी और इस्तेमाल या फिर किसी जानवर की प्रजाति का इस्तेमाल। इस तरह के नियम बनाने की कोशिश की जा रही है कि इस ज्ञान के आधार पर कोई किसी तरह की खोज को बिना उस समुदाय की सहमति के पेटेंट ना करा पाए।
दुनिया में कई बड़ी कंपनियां इस ज्ञान का इस्तेमाल दवाओं से लेकर बायोटेक्नोलॉजी, खाने का सामान या बीज विकसित करने में करती हैं। समाजसेवी संस्थाओं के मुताबिक भारत के नीम से लेकर पेरू के मक्का और दक्षिण अफ्रीका के हूदिया तक तमाम तरह के पौधे इसी ज्ञान के तहत आने चाहिए।
इस दिशा में कई छोटी-छोटी कामयाबियां भी मिली हैं। मसलन भारत में पाए जाने वाले नीम के गुणों को लेकर 1995 में केमिकल कंपनी डब्ल्यू आर ग्रेस ने एक कई पेटेंट दर्ज करा लिए थे। भारत में नीम के औषधीय और अन्य गुणों का इस्तेमाल हजारों साल से होता आया है।
पेटेंट की शर्तें
दस साल तक चले संघर्ष के बाद यूरोपीय पेटेंटे ऑफिस ने बायोपाइरेसी को आधार मानकर नीम पर दर्ज तमाम पेटेंट खारिज कर दिए थे। यह बायोपाइरेसी के आधार पर पेटेंट खारिज होने का पहला मामला था। डब्ल्यूआईपीओ ने संधि का जो मसौदा तैयार किया है उसमें पेटेंट के लिए अर्जी में यह बताना जरूरी होगा कि संबंधित खोज किस देश के पारंपरिक ज्ञान पर आधारित है और किस समुदाय के लोगों ने अपना पारंपरिक ज्ञान उपलब्ध कराया है।
यह संधि हो जाना एक ऐसे मुद्दे पर दो दशकों से जारी बातचीत का समापन होगा जो बहुत देशों के लिए अहमियत रखता है। संगठन को उम्मीद है कि सदस्य देशों के बीच इस मुद्दे पर पूरी सहमति बन पाएगी। हालांकि अब भी कई असहमतियां है जिन पर चर्चा होनी बाकी है। इनमें प्रतिबंधों की शर्तें और पेटेंट खारिज होने के आधार शामिल हैं।
इस समझौते की एक प्रतीकात्मक अहमियत है क्योंकि यह पहली बार होगा कि इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी संबंधित दस्तावेजों में पारंपरिक ज्ञान के उदाहरणों का जिक्र करना होगा। 30 देशों में ऐसे स्थानीय कानून लागू हैं जिनके तहत किसी भी पेटेंट के लिए यह बताना जरूरी होता है कि खोज किस पारंपरिक ज्ञान पर आधारित है। इनमें चीन, ब्राजील, भारत और दक्षिण अफ्रीका जैसे विकासशील देशों के अलावा फ्रांस जर्मनी और स्विट्जरलैंड जैसे देश भी शामिल हैं।